पढ़ने वालों के नाम, एक बेहतर समाज गढ़ने वालों के नाम: आठवाँ न्यूज़लेटर (2025)
पढ़ने से ही हम अपने कल को समझना, आज को आलोचनात्मक नज़रिए से देखना, और आने वाले कल के लिए असंभव की मांग करना सीखते हैं।

पढ़ती और लिखती हुई जापानी महिलाएँ, कात्सुकावा शुंशो (जापान), 1776.
प्यारे दोस्तो,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
कुछ ऐसे दिन होते हैं जब घटनाओं का भार मुझे मन पर महसूस होने लगता है और तब मैं खोजता हूँ अपने लिए एक ख़ामोश कोना, जहाँ मैं किताबों की दुनिया में खो सकूँ। वो कोई भी किताब हो सकती है, साहित्य की हो या इतिहास की, बस लेखक मुझे यथार्थ की बर्बरता से कल्पना की दुनिया में पहुँचा दे। हाल के महीनों में मैं ज़्यादातर उपन्यास पढ़ रहा हूँ, इनमें भी जापानी क्राइम फ़िक्शन मुझे ख़ास पसंद आ रहे हैं। इन उपन्यासों में मुझे ऐसे किरदार मिलते हैं जिनके साथ मैं कभी हँसता हूँ तो कभी अचंभे से त्योरियाँ चढ़ाता हूँ। पागलपन हमारी दुनिया के लिए नया नहीं। यह तो शायद हमेशा से ही है।
मेरे सामने जो किताबें रखी हैं उनमें हैं सेचो मात्सुमोतो के Ten to Sen (बिंदु और रेखाएँ, 1958) और Suna no Utsuwa (इन्स्पेक्टर इमानिशी की जाँच जारी है, 1960-1961) इसके साथ ही है तेतसुया आयुकावा का उपन्यास Kuroi Hakucho (काले हंस का रहस्य, 1961)। ये सब जासूसी उपन्यास हैं, जो 1945 में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा हिरोशिमा और नागासाकी पर ऐटम बम गिराए जाने की बर्बर घटना के बाद के दौर में लिखे गए। ये किताबें और इसी दौर की फ़िल्में – ख़ासतौर से 1945 में बनी Gojira (गॉडज़िला) जिसका निर्देशन और सह-लेखन इशिरो होंडा ने किया था – ऐटम शक्ति साध लिए जाने के बाद के समाज की पेचीदगियों को उजागर करती हैं। मैं मानो देख सकता हूँ इन लेखकों को युद्ध से बर्बाद हुए अपने शहरों में क़लम लिए बैठे, काग़ज़ की कमी से जूझते हुए अपने समाज को आईना दिखाते हुए, मज़दूर वर्ग से आने वाले इनके गढ़े जासूस जो ऐसे पुराने ख़ानदानों के दुस्साहस को झेलने पर मजबूर हैं जो कभी फ़ासीवादी सामाजिक व्यवस्था में डूबे हुए थे और अब शक्तिशाली पूँजीपतियों में तब्दील हो चुके हैं। हालाँकि इन लेखकों से पहले ही इस स्थिति पर हिरोशिमा के भीतर से ही कवि लिख चुके थे जैसे सांकिचि टोगे (1917-1953) और सदाको कुरिहारा (1913-2005)। ये दोनों ही ऐटम बम के दंश झेल चुके थे और जब ये लिख रहे थे तब उसका रेडीएशन शायद इनके घरों से पूरी तरह ख़त्म भी नहीं हुआ होगा। कुरिहारा ने दिसंबर 1945 में ‘The Children’s Voices’ (बच्चों की आवाज़) नाम से एक सौम्य और शांत कविता लिखी:
सर्दियों की एक गुनगुनी दोपहर में
मैं अपने सब्ज़ी के बग़ीचे की देखरेख कर रही था।
अपने बेमानी ख़्यालों में खोयी, मैंने इसे अनदेखा कर दिया था
कुछ देर,
इस साल जो धूप खिली उससे
न मालूम कब इतने खरपतवार उग आए।
अमूमन मैं हर सुबह और शाम इस बग़ीचे की देखभाल किया करती थी,
लेकिन कुछ परेशान हो चली हूँ तो सब छूट गया है।
क्यों? मैं सोचती हूँ खरपतवार उखाड़ते हुए।
‘माँ!’ बच्चे पुकार रहे थे, हाँफते हुए।
स्कूल से लौट आएँ हैं।
ओह, उनकी आवाज़ कितनी मासूम, कितनी पाक़!
अब से, माँ इतनी बेवक़ूफ़ी न करेगी कि
हमारे बग़ीचे में खरपतवार उग आए।
हमारे बग़ीचे में अब कभी खरपतवार नहीं उगेंगे।
1949 में जर्मनी के मार्क्सवादी थिओडॉर अडोर्नो ने सांस्कृतिक समालोचना पर एक लेख लिखा ‘To write poetry after Auschwitz is barbaric’ (आउशवित्ज़ के बाद कविता लिखना बर्बरता है)। ज़ाहिर है अडोर्नो का मतलब यह क़तई न था कि हालकॉस्ट के बाद लिखी कविताएँ बर्बर हैं क्योंकि उनके बचपन के क़रीबी दोस्त बर्तोल्त ब्रेख्त ने युद्ध के बाद के दौर में कई बेहतरीन कविताएँ लिखीं हैं। अडोर्नो का मतलब शायद यह था कि कल्चर इंडस्ट्री (सांस्कृतिक माध्यमों से जुड़े उद्योग जैसे फ़िल्में, कला, लोकप्रिय साहित्य आदि) ने दुनिया की सब अच्छी चीज़ें हड़प ली हैं और उन्हें ख़रीद-फ़रोख़्त की वस्तु बना दिया है। कला दुनिया को रौशन करने की अपनी नैसर्गिक क्षमता से संघर्ष कर रही थी और उसे बस एक और बेची जा सकने वाली वस्तु बनाया जा रहा था। लेकिन फिर भी अडोर्नो को इतना निराशावादी होने की ज़रूरत नहीं थी। मसलन कुरिहारा की कविताएँ अमेरिका के क़ब्ज़े के कारण सेन्सर किए जाने के बावजूद हिरोशिमा और नागासाकी की याद में होने वाले समारोह में हमेशा चर्चा का विषय रहीं और आख़िर वे जापान और दूसरे देशों में स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनीं। दुनिया को बेहतर बनाने की प्रबल इच्छा रखने वाली कलात्मक संवेदनशीलता लगातार दुनियाभर में समाज निर्माण का काम करती है न कि बस बेचने लायक़ वस्तुओं के निर्माण का।
हमारे नए डोसियर पढ़ना, एक बेहतर इंसान बनना है में हम इसी संवेदनशीलता की बात कर रहे हैं: हम चाहते हैं कि पढ़ने के ज़रिए हम प्रसन्न समाजों का निर्माण कर सकें। यह डोसियर इस बात पर ज़ोर देता है कि लोकतांत्रिक संस्कृति के लिए साक्षरता कितनी अहम है, लेकिन यह साक्षरता लोगों को उनकी भाषा में उनका नाम लिखना सिखाना भर नहीं है; इसका मतलब है कि हर इंसान की पब्लिक लाइब्रेरी तक पहुँच हो और ज़िंदगीभर अपनी कल्पना का विस्तार कर सके। इस डोसियर में हमने मेक्सिको, चीन और केरल के लोकप्रिय साक्षरता अभियानों के उदाहरणों को उजागर किया है। इन सभी उदाहरणों में पढ़ने की ज़रूरत उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों से उपजी जिन्होंने न सिर्फ़ उपनिवेशवाद से आज़ादी को अपना लक्ष्य माना बल्कि उनके लिए लोगों की राजनीतिक और सांस्कृतिक शिक्षा भी उतनी ही ज़रूरी थी ताकि वे सामाजिक वाद-विवाद का हिस्सा बनें और सिर्फ़ अभिजात वर्ग की गतिविधियों के मूकदर्शक बनकर न रह जाएँ।

एक क़िताब के साथ महिला, फेरनंद लेगेर (फ़्रांस), 1923.
जब मेक्सिको की आज़ादी से पढ़ने की ब्रिगेड (Brigada para Leer en Libertad) से जुड़ी लेखिका पलोमा सैज़ तेजेरो को पढ़ने की अहमियत पर अपनी बात रखने के लिए कहा गया तो उन्होंने बताया:
पढ़ने वाले लोगों का नज़रिया आलोचनात्मक होता है, वे महान आदर्शों की हिमायत करते हैं। अपने इतिहास को जानने वाले और उसे अपनी विरासत मानने वाले निश्चय ही अपनी जड़ों पर गर्व करेंगे। पढ़ना हमें सामाजिक बनाता है; हमारे अनुभवों और सूचनाओं को समृद्ध करता है। किताबें हमें ख़ुद को और हमारे इतिहास को समझने की दृष्टि देती हैं; किताबें हमारी चेतना को हमारे अतीत और वर्तमान की समझ से आगे बढ़ाती हैं। पढ़ना हमें बेहतर नागरिक बनाता है। किताबों की ही बदौलत हम असंभव पर विश्वास करना, प्रत्यक्ष पर अविश्वास करना, नागरिक के रूप में अपने अधिकारों की मांग करना, और अपने कर्त्तव्यों को पूरा करना सीखते हैं। पढ़ना इंसान के व्यक्तिगत और सामाजिक विकास को प्रभावित करता है; इसके बिना, कोई भी समाज प्रगति नहीं कर सकता।
मेक्सिको में जो काम Brigada para Leer en Libertad करता है, वह चीन और भारत की पब्लिक लाइब्रेरियों के लिए चले आंदोलनों से अलग नहीं है। भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन की पहल पर जनवरी 2023 में पहली बार भारतीय लाइब्रेरी कांग्रेस का आयोजन हुआ और अब यह एक वार्षिक कार्यक्रम बन चुका है। कांग्रेस के उद्देश्यों के मुताबिक़ इसके काम में शामिल है ‘लोगों के लिए पुस्तकालय महत्त्वपूर्ण और सक्रिय सार्वजनिक स्थान बनें, जहां सांस्कृतिक विकास के पर्याप्त मौक़े मिलने के साथ फिल्म स्क्रीनिंग, खेल, कला मेले और व्यावसायिक प्रशिक्षण जैसी गतिविधियों के आयोजन हो। पुस्तकालयों के आसपास स्वास्थ्य केंद्र और विज्ञान कक्षाएं स्थापित की जानी चाहिए’। इसी तरह चीन के ग्रामीण और शहरी इलाक़ों में पब्लिक लाइब्रेरियाँ सांस्कृतिक जीवन का केंद्र हैं और लोकप्रिय शिक्षा के लिए जगह देती हैं।

अपने गाँव वेल्लुर (कन्नूर, केरल) में राधा वी पी, जवाहर लाइब्रेरी की किताबों के झोले के साथ।
इन देशों में पब्लिक लाइब्रेरी बनाने की पहल ऊपर से किसी आदेश से नहीं हुई। बल्कि आम लोगों के बीच से यह पहल हुई। केरल के बारे में बात करते हुए जिन लोगों के उदाहरण हमारे सामने आते हैं वे बेहद ख़ास हैं जैसे साठ बरस की राधा वी.पी. जो बीड़ी बनाती हैं, जो अपने ख़ाली समय में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की साप्ताहिक पत्रिका पढ़ती थीं और इससे उनमें पढ़ने की इच्छा जागी। इसके बाद वह एक स्थानीय मोबाइल लाइब्रेरी से जुड़ीं। वे अपने झोले में किताबें भर कर अपने इलाक़े के लोगों के घरों तक जातीं ख़ासतौर से महिलाओं और बुजुर्गों के पास ताकि वे उनसे किताबें ले सकें और पढ़कर लौटा सकें। राधा का कहना है ‘मुझे कभी भी अपना बैग भारी नहीं लगा, क्योंकि किताबों की भीनी महक से मुझे हमेशा बहुत ख़ुशी मिलती रही’।

डोसियर का अंत होता है रेड बुक्स डे की चर्चा पर जो हर साल 21 फ़रवरी को मनाया जाता है। यह कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो के प्रकाशन की यादगार और अंतर्राष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस के अवसर पर मनाया जाता है। इंडियन सॉसाइटी ऑफ़ लेफ़्ट पब्लिशर्स और बाद में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ लेफ़्ट पब्लिशर्स (IULP) की पहल से 2020 में रेड बुक्स डे मनाया जाना शुरू हुआ ताकि लोगों को उत्सव मानने और अपनी पसंदीदा रेड बुक्स की पब्लिक रीडिंग आयोजित करने के लिए प्रेरित कर सकें। अब इस आयोजन का स्तर इतना बड़ा हो चुका है कि पिछले साल इसमें इंडोनेशिया से क्यूबा तक दुनियाभर में दस लाख से ज़्यादा लोगों ने हिस्सा लिया। इस डोसियर में शामिल चित्र रेड बुक्स डे 2025 कैलेंडर से लिए गए हैं जिन्हें अंग्रेज़ी फ़ॉर्मैट में डाउनलोड कर सकते हैं और IULP के प्रकाशक सदस्यों से दुनियभर में ख़रीद सकते हैं, मसलन मार्जिन किरी (इंडोनेशिया), इंकानी बुक्स (दक्षिण अफ़्रीका), ला त्रोचा (चिली)।
रेड बुक्स डे की शुरुआत इसलिए की गई ताकि लोगों में पढ़ने से मिलने वाली ख़ुशी को फैलाया जा सके और सार्वजनिक जीवन को बचाया जा सके। हमें लगता है कुछ सालों में दुनियभर में लाखों लोग इकट्ठा होकर रेड बुक्स डे मनाएँगे। शायद ब्राज़ील के कार्निवल में एक ट्रक पर विशालकाय रेड बुक लगाकर झाँकी निकाली जाए या केरल की किसी पब्लिक लाइब्रेरी के सदस्य सड़कों पर कुर्सियाँ डालकर एक-दूसरे के लिए इडक्का (लकड़ी से बना एक ड्रम) बजाएँ।

शतप्रतिशत साक्षरता (Folklore Kerala Series), एम.एफ़. हुसैन, 2010.
पढ़ने से मिलने वाली ख़ुशी को और फैलाने तथा सार्वजनिक जीवन को बचाने के इस प्रयास के एक हिस्से के तौर पर हमारा संस्थान अपने पाठकों को ट्राईकॉन्टिनेंटल रीडिंग सर्कल्स बनाने के लिए प्रेरित करना चाहता है। आप अपने दोस्तों और सहकर्मियों के साथ एक रीडिंग सर्कल बनाएँ और महीने में एक बार मिलें हमारे डोसियर या दूसरे दस्तावेज़ों को पढ़ें। एक साथ पढ़ने और चर्चा करने से बहुत ख़ुशी मिलती है। अगर आप ऐसा कोई रीडिंग सर्कल बनाएँ तो हमें [email protected] पर ज़रूर लिखकर इसके बारे में बताएँ।
सस्नेह,
विजय