Roberto Matta (Chile), Cuba es la capital (‘Cuba Is the Capital’), 1963.

रॉबर्टो मट्टा (चिली), क्यूबा एस ला कैपिटल (’क्यूबा राजधानी है’), 1963.

 

प्यारे दोस्तों, 

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन। 

सन् 2002 में, अठारहवें हवाना अंतर्राष्ट्रीय बैले महोत्सव का उद्घाटन करने के लिए क्यूबा के राष्ट्रपति फ़िदेल कास्त्रो रुज़ ने देश के राष्ट्रीय बैले स्कूल का दौरा किया। प्राइमा बैलेरीना असोलुटा एलिसिया अलोंसो (1920–2019) ने सन् 1948 में इस स्कूल की स्थापना की थी। यह स्कूल अपने स्थापना-काल के बाद से ही आर्थिक तंगी के कारण संघर्ष करता रहा। यह आर्थिक तंगी तब ख़त्म हुई जब क्यूबा की क्रांति ने यह तय किया कि कला के अन्य माध्यमों की तरह ही- बैले को भी- जनसुलभ होना चाहिए और इसलिए इसका सामाजिक वित्तपोषण किया जाना चाहिए। 2002 में स्कूल में अपनी मौजूदगी के दौरान कास्त्रो ने याद दिलाया कि 1960 में आयोजित पहले उत्सव ने ‘क्यूबा के संस्कृतिकर्म, पहचान और राष्ट्रीयता पर ज़ोर दिया था। संस्कृतिकर्म, पहचान और राष्ट्रीयता के प्रति यह प्रतिबद्धता बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में भी, और जब देश के सिर पर ख़तरों और धमकियों का साया मंडरा रहा था, सशक्त बनी रही’। 

संस्कृति के बहुत सारे रूपों की तरह ही बैले को भी जन-भागीदारी और लोक-मनोरंजन के साधनों से लिया गया था। मानवीय गरिमा को सशक्त करने के अपने प्रयासों के प्रति कृतसंकल्पित क्यूबा क्रांति कला के इन रूपों को लोगों को वापस लौटाना चाहती थी। औपनिवेशिक बर्बरता के हमले से ज़ख़्मी देश में एक क्रांति को साकार करने के लिए, नयी क्रांतिकारी प्रक्रिया को देश की संप्रभुता अक्षुण्ण रखने के साथ-साथ देश के हर व्यक्ति की गरिमा का निर्माण करना था। यह दोहरा कार्य राष्ट्रीय मुक्ति का कार्य है। कास्त्रो ने कहा था,’संस्कृति के बिना आज़ादी नामुमकिन है’।

 

Enrique Tábara (Ecuador), Coloquio de frívolos (‘Colloquium of the Frivolous’), 1982. Acrylic on canvas,140.5 x 140.5 cm.

एनरिक ताबारा (इक्वाडोर), कोलोक्विओ डी फ़्रीवोलोस (’तुच्छों का विमर्श’), 1982.

 

कई भाषाओं में ’संस्कृति’ शब्द के कम-से-कम दो अर्थ पाए जाते हैं। बुर्जुआ समाज में, संस्कृति का अर्थ शुद्धता और उच्च कला तक सिमट कर रह गया है। यह संस्कृति जो प्रभुत्वशाली वर्गों की संपत्ति है वह उन्हें आचरणों और उच्च शिक्षा के माध्यम से विरासत में मिलती है। संस्कृति का दूसरा अर्थ एक समुदाय (एक जनजाति से लेकर एक राष्ट्र तक) के लोगों के विश्वासों, प्रथाओं और जीवन को जीने का तरीक़ा है। उदाहरण के लिए, क्यूबा की क्रांति का बैले और शास्त्रीय संगीत का लोकतांत्रीकरण करना मानव जीवन के सभी पक्षों, आर्थिक से लेकर सांस्कृतिक तक, के सामाजिकीकरण के प्रयासों का हिस्सा था। इसके साथ ही साथ, क्रांतिकारी प्रक्रियाओं ने क्यूबा के लोगों की सांस्कृतिक विरासत को औपनिवेशिक संस्कृति के हानिकारक प्रभावों से बचाने का प्रयास किया। यहाँ यह रेखांकित करना आवश्यक है कि ’रक्षा’ करने का तात्पर्य औपनिवेशिक संस्कृति को पूरी तरह से अस्वीकार करना नहीं था। ऐसा करना लोगों को हर तरह की संस्कृतियों से परिचित होने के अवसर से वंचित करके उनको एक संकीर्ण जीवन जीने के लिए मजबूर करने के समान होगा। उदाहरण के लिए, बेसबॉल का जन्म उस संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ जो लगातार छ: दशकों से क्यूबा का गला घोंटने की कोशिश करता रहा है। इसके बादजूद क्यूबा की क्रांति ने बेसबॉल को अपनाया।

इसलिए संस्कृति के समाजवादी स्वरूप के लिए चार पहलुओं की आवश्यकता होती है: उच्च संस्कृति के रूपों का लोकतांत्रीकरण, उपनिवेशवाद की दासता से आज़ाद लोगों की सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण, सांस्कृतिक साक्षरता के बुनियादी तत्वों की उन्नति, और औपनिवेशिक शक्ति के सांस्कृतिक स्वरूपों का स्थानीकरण।

 

Violeta Parra (Chile), Untitled (unfinished), 1966. Embroidery on sackcloth, 136 x 200 cm.

वायलेटा पारा (चिली)। शीर्षकविहीन (अधूरा), 1966.

 

जुलाई 2022 में, मैंने हवाना के सांस्कृतिक जीवन में अहम स्थान रखने वाले और चिली से लेकर मैक्सिको तक होने वाली सांस्कृतिक गतिविधियों के हृदयस्थल, क्यूबा के कासा डे लास अमेरिका में एक व्याख्यान दिया। यह व्याख्यान मार्क्सवाद और उपनिवेशवाद के दस सिद्धांतों पर केंद्रित था। कुछ दिनों बाद कासा के निदेशक एबेल प्रीतो, जो पूर्व संस्कृति मंत्री भी थे, ने इनमें से कुछ विषयों पर चर्चा करने के लिए एक संगोष्ठी बुलाई। इस संगोष्ठी में मुख्य रूप से इन विषयों पर चर्चा की गई कि किस तरह से क्यूबा के समाज को साम्राज्यवादी सांस्कृतिक स्वरूपों के उग्र प्रवाह से और विरासत में मिली नस्लवाद तथा पितृसत्ता से लड़ना पड़ता है। इस संगोष्ठी में दो आयामों पर गंभीर चर्चा हुई। ये दो आयाम हैं राष्ट्रपति मिगुएल डियाज़ कैनेल द्वारा नवंबर 2019 में नस्लवाद तथा नस्लीय भेदभाव विरोधी राष्ट्रीय कार्यक्रम की घोषणा और वो प्रक्रिया जिसकी परिणति परिवार कोड 2022 के जनमत-संग्रह (इसकेलिए 25 सितंबर को आम चुनाव होंगे) में हुई। ये दोनों ही आयाम क्यूबा के समाज को एक नस्लवाद विरोधी दिशा में ले जाने की क्षमता रखते हैं। 

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान और कासा डे लास अमेरिका के संयुक्त प्रयास से अस्तित्व में आए डॉज़ियर संख्या 56 (सितंबर 2022), मार्क्सवाद और उपनिवेशवाद के दस सिद्धांत, में एबेल प्रीतो की प्रस्तावना के साथ उस व्याख्यान का एक विस्तृत संस्करण शामिल है। इसकी एक झलक दिखाने के लिए हम यहाँ नौवाँ सिद्धांत, भावनाओं का संग्राम, प्रस्तुत कर रहे हैं:

 

एंटोनियो बर्नी (अर्जेंटीना), जुआनिटो लगुना, एन.डी.

 

नौवाँ सिद्धांत: भावनाओं का संग्राम। फ़िदेल कास्त्रो ने 1990 के दशक में विचारों के संग्राम की अवधारणा को केंद्र में रखकर एक विमर्श की लौ जलाई। इस विमर्श के मूल में मानव जीवन की नवउदारवादी परिकल्पनाओं की तुच्छता के ख़िलाफ़ वैचारिक वर्ग संघर्ष निहित था। इस दौर के फ़िदेल के भाषणों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा उनके कथ्य के अलावा उनकी शैली भी थी। उनके भाषणों का प्रत्येक शब्द सम्पत्ति, विशेषाधिकार और शक्ति के शिकंजे से मानवता की मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध एक मानव की असीम करुणा से ओत-प्रोत था। वास्तव में, विचारों का संग्राम केवल विचारों तक सीमित नहीं था, बल्कि ‘भावनाओं का संग्राम’ भी उसकी परिधि में आता था। यह भावनाओं के एहसास को लालचमात्र के शिकंजे से आज़ाद कराकर सहानुभूति और उम्मीद की तरफ़ मोड़ने का एक प्रयास था। 

हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक चुनौती है बुर्जुआ वर्ग द्वारा संस्कृति उद्योगों और शिक्षा तथा आस्था के संस्थानों का प्रयोग करके वास्तविक समस्याओं के बारे में होने वाली महत्वपूर्ण चर्चाओं से – और सामाजिक दुविधाओं को हल करने के लिए सामूहिक समाधान खोजने से – ध्यान भटकाकर काल्पनिक समस्याओं के प्रति सनक पैदा करना। 1935 में, मार्क्सवादी दार्शनिक अर्नस्ट ब्लोच ने इसे ’झूठी तृप्ति’ कहा, जो कल्पनाओं की एक शृंखला का बीजारोपण करके उनके सच होने की असंभवता को छुपाती है। बलोच ने लिखा कि, ‘सामाजिक उत्पादन का लाभ पूँजीवाद के बड़े और ऊपरी तबक़े द्वारा हड़प लिया जाता है, और सर्वहारा हक़ीक़तों के ख़िलाफ़ स्याह सपनों का प्रयोग किया जाता है।’ मनोरंजन उद्योग पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर कभी भी पूरी नहीं होने वाली आकांक्षाओं के तेज़ाब से सर्वहारा संस्कृति को मिटाता है। लेकिन ये आकांक्षाएँ कामगार वर्ग की किसी भी परियोजना को कमज़ोर करने के लिए पर्याप्त होती हैं। 

पूँजीवादी व्यवस्था में सड़ रहा एक समाज विखंडन और अलगाव, निराशा, डर, नफ़रत, रोष, और असफलता से ग्रसित सामाजिक ज़िंदगी पैदा करता है। इन कुरूप भावनाओं को संस्कृति उद्योग (’आप भी इसे प्राप्त कर सकते हैं!’), शैक्षिक प्रतिष्ठान (’लालच प्रमुख प्रेरक है’), और नव-फ़ासीवादी (’अप्रवासियों, यौन अल्पसंख्यकों और हर उस इंसान से नफ़रत करो जो तुम्हें तुम्हारे सपनों की प्राप्ति से महरूम करता है!) पैदा करते और बढ़ावा देते हैं। इन भावनाओं का शिकंजा समाज पर पूरी तरह कसा होता है, और नव-फ़ासीवादियों के उदय का आधार भी यही है। निरर्थकता का एहसास शायद तमाशों के समाज के अंत का ही परिचायक है। 

मार्क्सवादी दृष्टिकोण के अनुसार संस्कृति को मानवीय हक़ीक़त से परे और कालनिरपेक्ष पहलू के रूप में नहीं देखा जाता है। भावनाओं को भी एक अलग या इतिहास की घटनाओं से अप्रभावित चीज़ के रूप में नहीं देखा जाता है। चूँकि मानवीय अनुभव भौतिक जीवन की परिस्थितियों से परिभाषित होता है, इसलिए भाग्य की अवधारणा तब तक बनी रहेगी जब तक ग़रीबी मानव जीवन का एक हिस्सा है। यदि ग़रीबी से पार पा लिया जाता है तो भाग्यवाद का वैचारिक आधार कमज़ोर पड़ जाएगा। लेकिन यह अपने आप नहीं होगा। संस्कृतियाँ विरोधाभासी होती हैं। संस्कृतियाँ एक असमान समाज के सामाजिक ताने-बाने में विभिन्न तत्वों को असंगत तरीक़ों से मिलाती हैं जो वर्ग असामनता का पुनरुत्पादन करने और सामाजिक ऊँच-नीच विरोधी तत्वों का विरोध करने के बीच झूलती रहती है। प्रभुत्वशाली विचारधाराएँ एक ज्वार की तरह वैचारिक तंत्रों के माध्यम से संस्कृति को सराबोर करती है, जिससे मज़दूर वर्ग और किसान वर्ग के वास्तविक अनुभव दरकिनार होते हैं। आख़िरकार, वर्ग संघर्ष और समाजवादी परियोजनाओं द्वारा निर्मित नयी सामाजिक संरचनाओं के माध्यम से ही नयी संस्कृतियों का निर्माण होगा – सिर्फ़ सोचने भर से नहीं। 

यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि प्रारंभिक वर्षों में हर क्रांतिकारी प्रक्रिया – 1917 में रूस से लेकर 1959 में क्यूबा तक – का सांस्कृतिक उत्थान आनंद और संभावना की भावनाओं, गहन रचनात्मकता और प्रयोगधर्मिता से भरा हुआ था। ये वही संवेदनशीलता है जो लालच और घृणा की भयानक भावनाओं से अलग अहसासों को सींचती है।

 

Nicolás Guillén honours Alicia Alonso at the Unión Nacional de Escritores y Artistas de Cuba (‘National Union of Writers and Artists of Cuba’), Havana, 1961.

एलिसिया अलोंसो को यूनियन नैशनल डी एस्क्रिटोरेस वाई आर्टिस्टस डी क्यूबा (’क्यूबा के लेखकों और कलाकारों का राष्ट्रीय सम्मेलन’) में सम्मानित करते निकोलस गुइलेन, हवाना, 1961.

 

1959 के बाद के शुरुआती वर्षों में, रचनात्मकता और प्रयोगधर्मिता की ऐसी ही लहरों से क्यूबा हलचल से भरा था। महान क्रांतिकारी कवि निकोलस गुइलेन (1902-1969), जिन्हें फुलगेन्सियो बतिस्ता की तानाशाही के दौरान क़ैद किया गया था, ने जीवन की कठोरता और क्यूबा के लोगों को भूख और सामाजिक असामनता की बदहाली से मुक्ति दिलाने की क्रांतिकारी प्रक्रिया की तीव्र इच्छा को दर्शाया। 1964 से लिखी गई उनकी कविता ’टेंगो’ (’मेरे पास है’) हमें बताती है कि क्रांति की नयी संस्कृति मौलिक थी। किसी का किसी भी वरिष्ठ के आगे अपने कंधे नहीं झुकाना, कार्यालयों के कर्मचारियों से यह कहना कि वो भी कामरेड हैं, ’सर’ या ’मैम’ नहीं, दरवाज़े पर बिना किसी रोक टोक के एक अश्वेत व्यक्ति का होटल में प्रवेश कर पाना, इस तरह की भावनाएँ मौलिकता का अहम हिस्सा थीं। उनकी महान उपनिवेश-विरोधी कविता हमें संस्कृति की भौतिक नींव के प्रति सचेत करती है: 

मैंने, 

मैंने पढ़ना सीख लिया है, 

गिनना सीख लिया है। 

मैंने लिखना सीख लिया है, 

सोचना, 

हँसना सीख लिया है। 

और हाँ, मेरे पास है 

एक जगह जहाँ मैं काम करके 

कमाता हूँ 

और खाता हूँ। 

मेरे पास है, 

वो सब जो मेरे पास होना चाहिए। 

डॉज़ियर में अपनी प्रस्तावना के अंत में एबेल प्रीतो लिखते हैं, ‘हमें उपनिवेशवाद विरोध के अर्थ को एक स्वाभाविक प्रवृत्ति में बदलना चाहिए’। दो पल ठहरकर इस पर चिंतन करें: उपनिवेशवाद-विरोध केवल औपचारिक औपनिवेशिक शासन का अंत नहीं है, बल्कि यह एक गहरी प्रक्रिया है, जिसे प्रवृत्ति के स्तर पर समाहित किया जाना चाहिए ताकि हम अपनी बुनियादी ज़रूरतों (उदाहरण के लिए, भूख और निरक्षरता को ख़त्म करना) को हल करने की क्षमता का निर्माण कर सकें और मुक्ति प्रदान करने वाली और महँगी वस्तुओं की चकाचौंध भरी दुनिया से खुली हुई दुनिया वाली संस्कृतियों की आवश्यकता के प्रति हमारी चेतना का निर्माण कर सकें। 

सस्नेह, 

विजय