मालिना सुलेमान (अफ़ग़ानिस्तान), आइस बॉक्स में लड़की, 2013.

 

प्यारे दोस्तों,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।

रविवार 15 अगस्त को अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी अपने देश से उज़्बेकिस्तान  भाग गए। वो अपने पीछे राजधानी काबुल छोड़ गए, जिस पर तेज़ी से आगे बढ़ रहा तालिबान क़ब्ज़ा कर चुका था। पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई ने घोषणा की है कि उन्होंने राष्ट्रीय सुलह समिति के प्रमुख अब्दुल्ला अब्दुल्ला और जिहादी नेता गुलबुद्दीन हिकमतयार के साथ एक समन्वय परिषद का गठन किया है। तालिबानी नेता मुल्ला बरादर द्वारा काबुल स्थित राष्ट्रपति भवन में प्रवेश कर देश की कमान अपने हाथ में ले लेने के बाद करज़ई ने तालिबान से विवेक के साथ काम करने का आह्वान किया।

करज़ई, अब्दुल्ला अब्दुल्ला और हिकमतयार ने राष्ट्रीय सरकार के गठन की माँग की है। यह तालिबान के अनुकूल होगा, क्योंकि इससे उन्हें तालिबान सरकार के बजाय अफ़ग़ान सरकार होने का दावा करने का मौक़ा मिलेगा। हालाँकि देश की डोर प्रभावी रूप से बरादर और तालिबान के ही हाथ में होगी, और करज़ई, अब्दुल्ला अब्दुल्ला व हिकमतयार अवसरवादी बाहरी शक्तियों के साथ बातचीत करने वाले नुमाइंदों की तरह काम करेंगे।

 

शमसिया हसनी (अफ़ग़ानिस्तान), दुःस्वप्न, 2021.

 

तालिबान का काबुल में प्रवेश अमेरिका के लिए एक बड़ी हार है। 2001 में अमेरिका द्वारा तालिबान के ख़िलाफ़ युद्ध शुरू करने के कुछ महीने बाद, अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने घोषणा की थी कि ‘तालिबान शासन समाप्त होने वाला है’। बीस साल बाद, अब उसका उल्टा होता दिख रहा है। लेकिन -22.61 खरब डॉलर ख़र्च करने और कम-से-कम 241,000 लोगों की मौत के बाद- संयुक्त राज्य अमेरिका की यह हार अफ़ग़ानिस्तान के लोगों के लिए कोई तसल्ली लेकर नहीं आई है। उन्हें अब तालिबानी शासन की कठोर वास्तविकता से जूझना पड़ेगा। 1994 में पाकिस्तान में इसके गठन के बाद से, तालिबान के लगभग तीस साल के इतिहास के दौरान उनके शब्दों और कार्यों में कुछ भी प्रगतिशील नहीं पाया गया है। और न ही संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा अफ़ग़ानी लोगों के ख़िलाफ़ बीस साल तक चलाए गए युद्ध में कुछ भी प्रगतिशील पाया जा सकता है।

 

एम. महदी हमीद (अफ़ग़ानिस्तान), दुःस्वप्न, 2015.

 

16 अप्रैल 1967 को क्यूबा की पत्रिका ट्राईकॉन्टिनेंटल में चे ग्वेरा का एक लेख ‘एक, दो नहीं कई वियतनाम बनाओ: यही आज का नारा है’ छपा। ग्वेरा का तर्क था कि वियतनामी लोगों पर पड़ रहे दबावों को दूसरी जगहों पर गुरिल्ला संघर्ष छेड़कर ही कम किया जा सकता है। उसके आठ साल बाद, अमेरिकी अधिकारी और उनके वियतनामी सहयोगी साइगॉन स्थित सीआईए भवन की छत से हेलीकॉप्टर में सवार होकर वियतनाम छोड़कर भाग निकले थे।

वियतनाम में अमेरिका की हार के समय साम्राज्यवाद बहुत जगह हार रहा था: उससे एक साल पहले अंगोला, गिनी-बिसाऊ और मोज़ाम्बिक ने पुर्तगाल को हराया था; श्रमिकों और छात्रों ने थाईलैंड की तानाशाही ख़त्म कर वो प्रक्रिया शुरू की जिसके तीन साल बाद 1976 में छात्रों का बड़ा विद्रोह हुआ; अप्रैल 1978 में सौर क्रांति के दौरान अफ़ग़ानिस्तान में कम्युनिस्टों ने सत्ता सँभाल ली थी; ईरान के लोगों ने अमेरिका समर्थित तानाशाह, ईरान के शाह, के ख़िलाफ़ एक साल लंबा संघर्ष किया, जिसके परिणामस्वरूप जनवरी 1979 की क्रांति हुई; समाजवादी न्यू ज्वेल मूवमेंट ने ग्रेनेडा के छोटे से द्वीप राज्य पर क्रांतिकारी गतिविधियाँ शुरू कीं; जून 1979 में, सैंडिनिस्टास ने मानागुआ (निकारागुआ) में घुसकर अमेरिका समर्थित अनास्तासियो सोमोज़ा का शासन ख़त्म कर दिया। ये कई साइगोन थे, साम्राज्यवाद की कई जगह हार हुई, और तरह-तरह के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों की कई जगह जीत हुई।

ये सभी जीत अलग-अलग राजनीतिक परंपराओं और अलग-अलग रफ़्तार के साथ हासिल हुईं। सबसे शक्तिशाली जन विद्रोह ईरान में हुआ था, हालाँकि उसका अंत समाजवाद में नहीं बल्कि प्रशासनिक लोकतंत्र में हुआ। इन को संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगियों की खीझ का सामना करना पड़ा था, क्योंकि इनमें से अधिकतर प्रयोग समाजवादी थे और अमेरिका इन प्रयोगों को फलने नहीं देना चाहता था। 1976 में थाईलैंड में सैन्य तानाशाही को प्रोत्साहित किया गया, अफ़ग़ानिस्तान और निकारागुआ में छद्म युद्ध कराए गए, और इराक़ को सितंबर 1980 में ईरान पर आक्रमण करने के लिए पैसा दिया गया। संयुक्त राज्य सरकार ने इन देशों को संप्रभुता से वंचित करने और उन्हें पूर्ण अधीनता की स्थिति में वापस ले जाने के लिए हर तरह का क़दम उठाया।

अराजकता फैली। इसके दो कारण थे: ऋण संकट और छद्म युद्ध। 1974 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में गुटनिरपेक्ष देशों ने एक नया अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक आदेश (NIEO) प्रस्ताव पारित किया; लेकिन इन सभी देशों ने ख़ुद को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और अमेरिकी ट्रेजरी विभाग सहित पश्चिमी-प्रभुत्व वाले वित्तीय संस्थानों की चंगुल में फँसा हुआ पाया। इन संस्थाओं ने गुटनिरपेक्ष देशों को एक गहरे ऋण संकट में धकेल दिया; मेक्सिको 1982 में अपने क़र्ज़ चुका पाने में चूक गया और वहीं से शुरू हुआ तीसरे विश्व का ऋण संकट। इसके अलावा, 1970 के दशक में राष्ट्रीय मुक्ति बलों की जीत के बाद, दो पीढ़ियों तक अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका की राजनीति को अस्थिर बनाने के लिए छद्म युद्धों और तख़तापलटों की सिलसिलेवार शुरुआत हुई।

हम अभी तक 1970 के दशक की पश्चिमी नीति के कारण हुए विनाश से बाहर नहीं निक सके हैं।

 

 

अफ़ग़ानिस्तान के प्रति पश्चिमी उदासीनता प्रतिक्रांति और उदार हस्तक्षेपवाद की प्रकृति को परिभाषित करती है। अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने अफ़ग़ान राजनीति के सबसे ख़राब तत्वों पर अपार संसाधन लगाने का फ़ैसला किया और अफ़ग़ानिस्तान लोकतांत्रिक गणराज्य (डीआरए), जो कि केवल 1978 से 1992 तक चला-1987 में जिसका नाम बदलकर अफ़ग़ानिस्तान गणराज्य हो गया था- को नष्ट करने के लिए पाकिस्तान और सऊदी अरब के साथ मिलकर काम किया।

अफ़ग़ानिस्तान गणराज्य के पतन के कुछ वर्षों बाद, मैं पहली डीआरए सरकार में मंत्री रह चुकीं अनाहिता रातेब्ज़ाद से उन शुरुआती वर्षों के बारे में पूछने के लिए मिला। उन्होंने कहा, ‘हम देश के भीतर –प्रतिक्रियावादी सामाजिक दृष्टिकोण रखने वालों- और देश के बाहर -अमेरिका और पाकिस्तान में हमारे विरोधियों- दोनों तरफ़ से चुनौतियों का सामना कर रहे थे। 1978 में हमारे सत्ता में आने के कुछ ही महीनों में, हम यह जान गए थे कि हमारे दुश्मन हमें कमज़ोर करने और अफ़ग़ानिस्तान में लोकतंत्र और समाजवाद के आगमन को रोकने के लिए एकजुट हो गए थे’। उस सरकार में रातेब्ज़ाद के साथ सुल्ताना उमैद, सुराया, रूहफ़्ज़ा काम्यार, फ़िरोज़ा, दिलारा मार्क, प्रोफ़ेसर आर.एस. सिद्दीक़ी, फ़ौजिया शाहसवारी, डॉ. अज़ीज़ा, शिरीन अफ़ज़ल और अलमत टोलकुन जैसी अन्य महत्वपूर्ण महिला नेता भी शामिल थीं -जिनके नाम काफ़ी समय से भुला दिए गए हैं।

रातेब्ज़ाद ने ही काबुल न्यू टाइम्स (1978) में लिखा था कि ‘जो विशेषाधिकार महिलाओं को, अधिकार स्वरूप मिलने चाहिए, उनमें समान शिक्षा, नौकरी की सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवाएँ और देश के भविष्य के निर्माण हेतु एक स्वस्थ पीढ़ी के पालन-पोषण के लिए ख़ाली समय शामिल होने चाहिए… महिलाओं को शिक्षित करना और स्वावलंबी बनाना अब सरकार के ध्यान का ख़ास विषय है’। 1978 की उम्मीद अब ख़त्म हो चुकी है।

आशाहीनता का इल्ज़ाम केवल तालिबान पर नहीं लगाया जाना चाहिए, बल्कि अमेरिका, सऊदी अरब, जर्मनी और पाकिस्तान जैसे देशों पर भी लगाया जाना चाहिए, जिन्होंने तालिबान जैसे धार्मिक फ़ासीवादियों का समर्थन किया और उनकी वित्तीय मदद की। 2001 में शुरू हुए अमेरिकी युद्ध के बवंडर में अनाहिता रातेब्ज़ाद जैसी महिलाओं को भुला दिया गया; अमेरिका के लिए यह अधिक उपयुक्त था कि वो अफ़ग़ान महिलाओं को ख़ुद की मदद कर पाने में असमर्थ देखे, जिन्हें अमेरिकी हवाई बमबारी और ग्वांतानामो जेल का सहारा चाहिए। अमेरिका के लिए यह भी उपयुक्त था कि वो सबसे ख़राब ईश्वरवादियों और स्त्री द्वेषियों (जैसे हिकमतयार सरीखे लोग, जो तालिबान से बहुत अलग नहीं हैं) के साथ अपने सक्रिय संबंधों को नकारता रहे।

 

लतीफ़ एशरक (अफ़ग़ानिस्तान), फरखुंडा, 2017.

 

अमेरिका ने मुजाहिदीन की वित्तीय मदद की, डीआरए के कामों को अवरुद्ध किया, अमू दरिया में सोवियत (जो कि इसके लिए तैयार नहीं था) का हस्तक्षेप शुरू करवाया, और फिर प्रति-क्रांतिकारी अफ़ग़ान बलों और पाकिस्तानी सैन्य तानाशाही को सोवियत संघ के ख़िलाफ़ जंग में मोहरा बनाकर सोवियत और डीआरए दोनों पर दबाव बनाया। सोवियत के पीछे हटने और डीआरए के टूटने के बाद चीज़ें और भी ख़राब हो गईं और गृहयुद्ध की स्थिति बन गई, जिसमें से तालिबान का उदय हुआ। तालिबान के ख़िलाफ़ अमेरिकी युद्ध बीस साल तक चला लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका की बेहतरीन सैन्य तकनीकों के बावजूद अमेरिका की हार हुई।

कल्पना कीजिए की अगर अमेरिका ने मुजाहिदीन का समर्थन नहीं किया होता और अफ़ग़ानों को समाजवादी भविष्य की दिशा में काम करने दिया होता तो क्या होता। ज़ाहिर तौर पर इस प्रकार के संघर्ष के अपने उतार-चढ़ाव होते लेकिन उनसे निकला हुआ वर्तमान, तालिबान की वापसी, सार्वजनिक रूप से महिलाओं की पिटाई, और सबसे ख़राब सामाजिक संहिताओं वाले आज से कहीं बेहतर होता।

 

हमीद हसनज़ादा (अफ़ग़ानिस्तान), नरसंहार, 2012.

 

आज के दिन में अमेरिकी सत्ता को हराने के पीछे ज़रूरी नहीं है कि असल मक़सद संप्रभुता का दावा करना या समाजवादी एजेंडे को आगे बढ़ाना हो। बल्कि, यह हार तो अराजकता और पीड़ा से उपजी है। हैती, अफ़ग़ानिस्तान की तरह, अमेरिकी हस्तक्षेप का निशाना है। अमेरिका समर्थित दो तख़्तापलटों से पीड़ित और राजनीतिक व आर्थिक आक्रमणों को लगातार सह रहा हैती अब एक और भूकंप से जूझ रहा है। अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की हार हमें इराक़ में अमेरिका की हार (2011) की भी याद दिलाती है; इन दोनों देशों ने अमेरिकी सेना की प्रचंड क्रूरता का सामना किया लेकिन वे झुके नहीं।

यह सब कुछ हमें बताता है कि अमेरिकी युद्ध मशीनरी एक तरफ़ जहाँ दुनिया के देशों को नष्ट करने की क्षमता रखती है वहीं अमेरिकी शक्ति दुनिया को अपनी छवि के अनुसार गढ़ने में असमर्थ है। अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ ने अपनी राज्य परियोजनाओं का निर्माण करने में सैकड़ों साल लगाए थे। अमेरिका ने उन्हें एक दिन में चौपट कर दिया।

अफ़ग़ानिस्तान के आख़िरी वामपंथी राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्लाह ने 1980 के दशक में एक राष्ट्रीय सुलह नीति बनाने की कोशिश की थी। 1995 में, उन्होंने अपने परिवार को लिखा था कि, ‘अफ़ग़ानिस्तान में अब कई सरकारें हैं, प्रत्येक अलग-अलग क्षेत्रीय शक्तियों द्वारा बनाई गईं। यहाँ तक ​​कि काबुल भी छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ है… जब तक सभी शक्तियाँ [क्षेत्रीय और वैश्विक] एक मेज़ पर बैठने के लिए सहमत नहीं हो जातीं, और अपने मतभेदों को छोड़कर अफ़ग़ानिस्तान में हस्तक्षेप रोकने पर एक वास्तविक आम सहमति तक पहुँचकर समझौता का पालन नहीं करतीं, टकराहटें जारी रहेंगी’। 1996 में तालिबान द्वारा काबुल पर क़ब्ज़ा करने के बाद उन्होंने राष्ट्रपति नजीबुल्लाह को पकड़कर संयुक्त राष्ट्र परिसर के बाहर बेरहमी से मार डाला था। उनकी बेटी, हीला, ने मुझे तालिबान द्वारा काबुल पर क़ब्ज़ा करने से कुछ दिन पहले कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि उनके पिता की नीति अब अपनाई जा सकती है।

करज़ई की अपील को इसी दिशा में समझा जा सकता है। तालिबान द्वारा इसे विशुद्ध रूप से अपनाए जाने की संभावना नहीं है।

 

महविश चिश्ती (पाकिस्तान), फ़सल काटने वाला, 2015.

 

तालिबान को कौन/क्या नरम बना सकता है? शायद उनके पड़ोसियों का दबाव -जिसमें चीन भी शामिल है- जिनके हित अस्थिर अफ़ग़ानिस्तान में ख़तरे में होंगे। जुलाई के अंतिम सप्ताह में, चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने तियानजिन में तालिबान के बरादर से मुलाक़ात की थी। उन्होंने सहमति जताई कि अमेरिकी नीति विफल रही है। लेकिन चीन ने बरादर से व्यावहारिक होने का आग्रह किया: कि वे अब आतंकवाद का समर्थन न करें और अफ़ग़ानिस्तान बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में शामिल हो। फ़िलहाल यही एक उम्मीद है, लेकिन बहुत नाज़ुक।

पिछले साल काबुल में तालिबान द्वारा की गई बमबारी से घायल हुए डीआरए सरकार के पूर्व मंत्री और कवि सुलेमान लाएक की जुलाई 2020 में मृत्यु हो गई थी। लाएक की कविता ‘इटरनल पैशन्स (अनंत ख़्वाहिशें)’ (1959) में वो उस अलग दुनिया की ख़्वाहिश का वर्णन करते हैं जिसे बनाने की परियोजना में वो और उनके जैसे कई और लोग लगे हुए थे,  जिस परियोजना को अमेरिकी हस्तक्षेपों ने नष्ट कर दिया:

प्यार की आवाज़

ज्वालामुखी की तरह,

मदहोश दिलों से बह निकली

कई साल बीत गए

फिर भी ये ख़्वाहिशें

बर्फ़ पर हवाओं की तरह

या पानी पर लहरों की तरह

फैल जाती हैं जैसे विलाप करती महिलाओं के आँसू

अफ़ग़ान अमेरिकी क़ब्ज़े से छुटकारा पाकर ख़ुश हैं। लेकिन यह मानवता की जीत नहीं है। अफ़ग़ानिस्तान के लिए इन दु:स्वप्न भरे दशकों की बदहाली से बाहर निकलना आसान नहीं होगा, लेकिन ऐसा करने की इच्छा अब भी सुनी जा सकती है।

स्नेह-सहित,

विजय।