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विली बेस्टर (दक्षिण अफ़्रीका), क्रॉस रोड्स, 1991.
प्यारे दोस्तों,
ट्राइकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा कोरोनावायरस महामारी के आगमन की घोषणा करने के बाद के शुरुआती महीनों के दौरान भारतीय उपन्यासकार अरुंधति रॉय ने अपनी लेखनी के माध्यम से यह उम्मीद ज़ाहिर की कि यह महामारी ‘इस दुनिया और आगामी दुनिया के बीच एक रास्ता तैयार करेगी‘। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने उम्मीद ज़ाहिर की कि दुनिया अपने उन गहराते संकटों को स्वीकार करेगी तथा सामाजिक संरचनाओं को पुनर्व्यवस्थित करने की शुरुआत होगी, जिन संकटों को महामारी ने और गहरा दिया है। यह तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक कि दुनिया के ज़्यादातर देशों के वर्ग चरित्र को बदला नहीं जाता।
संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप तथा विकासशील दुनिया के बड़े देशों जैसे भारत और ब्राज़ील में सिर्फ़ समस्याओं को स्वीकार कर लेने भर से बदलाव की इबारत नहीं लिखी जा सकती। पिछले साल की घटनाएँ इसकी पुष्टि करती हैं। इन देशों में प्रभुत्वशाली वर्गों ने सार्वजनिक धन का उपयोग संकटग्रस्त और जन–विरोधी पूँजीवादी तंत्र को उबारने में किया। उन्होंने तंत्र में बदलाव लाकर जनता के हितों को तरजीह देने की जगह मुट्ठी भर लोगों के मुनाफ़ों की तरफ़दारी की।
शी लू (चीनी जनवादी गणराज्य), दक्षिणी शांक्सी में युद्ध, 1959.
ऑक्सफ़ैम की एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि ‘महामारी के शुरू होने के बाद से दुनिया के दस सबसे धनी लोगों की कुल संपत्ति में आधा ट्रिलियन डॉलर की बढ़ौत्तरी हुई है– यह रक़म सबके लिए कोविड-19 का टीका उपलब्ध कराने और महामारी के कारण ग़रीबी के चंगुल में फँसने से सबको बचाने के लिए आवश्यक रक़म से भी ज़्यादा है‘। इस रक़म को टीका और ग़रीबी उन्मूलन पर ख़र्च करने के बजाय अवैध कर–मुक्त देशों और मोटे बैंक खातों में इकट्ठा होने दिया गया। वैक्सीन–राष्ट्रवाद और बढ़ती भुखमरी पूँजीवादी समाज की विशेषता बन गई है।
इस बीच, चीन में समाजवादी परियोजना के तहत ग़रीबी को पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया गया है। नवंबर 2020 में, दक्षिण–पश्चिम चीन में गुइझोऊ प्रांत के अधिकारियों ने घोषणा की कि सबसे निर्धन नौ ज़िलों को ग़रीबी सूची से हटा दिया गया है। जिसका मतलब है कि देश के सभी 832 निर्धन ज़िले को अब ग़रीबी से बाहर निकाल लिया गया है। चीन की नीतियों ने सात वर्षों में 8 करोड़ लोगों (जर्मनी की लगभग पूरी आबादी) को ग़रीबी से बाहर निकाला है। 1949 की क्रांति के बाद के दशकों में कुल मिलाकर लगभग 85 करोड़ चीनी लोगों ने ख़ुद को ग़रीबी के चंगुल से बाहर निकाल लिया है। इस परिवर्तन को संभव बनाने में तीन कारणों ने अहम भूमिका निभाई है: पहला, कोई भी चीनी परिवार अब ग्रामीण ग़रीबी रेखा से नीचे नहीं रहेगा। दूसरा, कम्युनिस्ट परियोजना भूख और कपड़ों की ‘दो चिंताओं’ को ख़त्म करेगी। तीसरा, चीनी राज्य शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और आवास की ‘तीनों गारंटियों’ को प्रदान करना सुनिश्चित करेगा। यह सब कुछ महामारी के दौरान किया गया।
एंटोनियो बेर्नी (अर्जेंटीना), डेसोकुपाडोस (‘बेरोजगार‘), 1934.
मुख्यत: ग़रीब देशों में विकसित हुई समाजवादी परियोजना पूँजीवादी परियोजना से निश्चित रूप से बेहतर है जो अपने देशों में मौजूद अकूत धन के बावजूद संकटों से घिरी हुई है। इस तंत्र के विनाशकारी चेहरे का ख़ुलासा करने के लिए निम्नलिखित आँकड़े काफ़ी हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की गणना के अनुसार 2020 की पहली तीन तिमाहियों के दौरान कुल श्रम आय में औसतन 10.7% की कमी आई। श्रम आय में आई यह कमी $3.5 ट्रिलियन के बराबर है (यह 2019 के कुल वैश्विक उत्पादन का 5% है)। इसका मतलब यह है कि पूँजीवादी राज्यों में श्रमिक वर्ग ने दो चिंताओं (भूख और कपड़ों) और तीन गारंटियों (शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास) का ख़र्च वहन करने की अपनी क्षमता खो दी है। ये सारी चीज़ें मुख्यत: निजीकरण के शिकंजे में हैं।
समाजवादी देशों और वैश्विक समाजवादी आंदोलन की कमज़ोरी के कारण उनकी परियोजना के फ़ायदों को एक गहन सूचना युद्ध के तहत नकार दिया गया है और मुनाफ़ों के बजाय लोगों के हितों को तरजीह देने के उनके सिद्धांतों को वैश्विक नीतिनिर्माण प्रक्रियाओं में समुचित स्थान नहीं मिला है। इससे अलग वर्तमान दौर को तीन रंगभेद परिभाषित करते हैं।
ये वो तीन रंगभेद हैं जो एक समाजवादी परियोजना के लिए प्रतिबद्ध देशों के बाहर की विश्व प्रणाली का निर्धारण करते हैं। इस बीच समाजवादी परियोजना के लिए प्रतिबद्ध देशों के ऊपर सैन्य हमलों और हाइब्रिड युद्ध की तकनीकों (जैसे सूचना युद्ध, आर्थिक युद्ध और राजनयिक युद्ध) का ख़तरा मँडराता रहता है। उत्तरी अटलांटिक देश सहयोग के बजाय टकराव की नीति अपनाते हैं, जिससे एकजुटता के बजाय विभाजन की नींव पर खड़े संसारिक दृष्टिकोण का निर्माण होता है।
यह महामारी एक परिवर्तन–द्वार बन सकती है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि इसके नतीजों की वजह से अभिजात वर्ग की आँखों पर पड़ा पर्दा ख़ुद–ब–ख़ुद हट जाएगा। वो बैंकों को उबारने और माँग को गिरने से रोकने में लगे हुए हैं। उनका मकस़द ही यही है। वो क़र्ज़ रद्द नहीं करेंगे। लोगों के लिए वैक्सीन नहीं बनाएँगे या यह सुनिश्चित नहीं करेंगे कि किसानों और खेतिहर मज़दूरों की अगुवाई में खाद्य प्रणाली दुरुस्त रहे। वे ख़ुद से रंगभेदी संरचनाओं को नेस्तनाबूद नहीं करने वाले हैं।
मज़दूरों और किसानों पर, विशेषकर दक्षिणी गोलार्ध के देशों में पड़ने वाले महामारी के नकारात्मक प्रभावों के कारण मज़दूरी में कमी आने की प्रक्रिया को बल मिलता है। इससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मोल–भाव की क्षमता मज़बूत होती है क्योंकि जब आय और मज़दूरी में कमी आती है तथा सामाजिक मज़दूरी में गिरावट आती है तब मज़दूरों को कम मज़दूरी देना कंपनियों के लिए आसान हो जाता है। लेकिन जब जीवन स्तर के ख़राब होने की यह प्रक्रिया नाक़ाबिले–बर्दाश्त हो जाती है तब एक उग्र प्रतिरोध का जन्म होता है ।
भारतीय खेतिहर मज़दूरों और किसानों का विद्रोह, केन्या और पेरू के स्वास्थ्य कर्मचारियों की हड़ताल, हैती और ट्यूनीशिया में लोगों का आम विरोध, ब्राज़ील में महामारी से निपटने में विफल रही सरकार के ख़िलाफ़ संघर्ष, गर्भपात को वैध क़रार दिए जाने के लिए अर्जेंटीना में बड़े पैमाने पर हुए प्रदर्शन: ये लोगों की बग़ावत के संकेत हैं। इसे जी. डब्ल्यू. एफ़. हेगेल ने फ़ेनेमेनेलॉजी ऑफ़ स्प्रिट (1807) में ‘गंभीरता, पीड़ा, धैर्य, तथा नकारात्मकता की उपज कहा था। यह ‘नकारात्मकता की उपज‘ है, ये संघर्ष है जिन्हें संगठनों द्वारा मूर्त रूप दिया जाता है, ये आंदोलन है जो कामगार वर्ग और किसानों को आत्मविश्वास और शक्ति से लबरेज़ कर रहा है, जो किसी भी एजेंडा को आगे बढ़ा पाएँगे। ये जब आगे बढ़ेंगे तो रास्ते ख़ुद–ब–ख़ुद तैयार हो जाएँगे।
मोनसेंगो शुला (कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य), ला रेवोलूश्यों न्यूमेरिक (‘ डिजिटल क्रांति‘), 2016.
पूँजीवाद के सामान्य संकट से पैदा हुई आम समस्याओं को हल करने की क्षमता अभिजात वर्ग में नहीं है। वो निश्चित रूप से महामारी के कारण उत्पन्न हुई असाधारण समस्याओं को हल करने में बिलकुल भी सक्षम नहीं हैं। आंदोलनों की भूमिका यहाँ से शुरू होती है। वो इस महामारी से निकलने का रास्ता बनाने के लिए ज़रूरी एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं। लेकिन इसके अलावा वो पूँजीवाद के दुर्दशा–चक्र से बाहर निकलने का मार्ग भी तैयार करते हैं ।
स्नेह–सहित,
विजय
दक्षिण अफ़्रीका में ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के शोधकर्ता के तौर पर पुरानी तस्वीरों और दूसरी पुरालेखीय सामग्रियों को इकट्ठा करने के लिए पुरालेखीय संग्रहालयों में न जा पाने का मुझे मलाल रहता है। कोविड-19 के कारण, अधिकांश अभिलेखागार और विशेष संग्रह या तो बंद हैं या फिर कुछ ख़ास दिनों पर सिर्फ़ कुछ समय के लिए ही खोले जाते हैं। कम्यून किताबघर में कार्यकारी दस्तावेज़ों का पैनल के माध्यम से विमोचन किए जाने के दौरान व्यक्तिगत रूप से उपस्थित रहकर शामिल नहीं हो पाने और द फ़ोर्ज में गोष्ठियाँ नहीं आयोजित कर पाने का भी मलाल है जिसमें हम राजनीति और ख़ुद को प्रभावित करने वाले तमाम मुद्दों पर चर्चा करते थे। अभी हमारा ध्यान ऑनलाइन कार्यक्रमों, शोध कार्य और प्रकाशनों पर केंद्रित है। वर्तमान में मैं ऑनलाइन चर्चा/वेबिनार आयोजित करने के साथ–ही–साथ ऑनलाइन पुरालेखीय सामग्रियों को इकट्ठा करने, मौखिक ऐतिहासिक साक्षात्कार और डॉजियर के लिए तस्वीरों पर शोध कर रहा हूँ।
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