पढ़ना, एक बेहतर इंसान बनना है
मेहनतकश वर्ग की क्रांतियों ने समानता पर आधारित एक नए समाज के निर्माण का स्वप्न देखा और इसे साकार करने के लिए शिक्षा सबसे कारगर हथियार बनी.

इस डोसियर में शामिल चित्र रेड बुक्स डे 2025 के उपलक्ष्य पर जारी किए गए कैलेंडर से लिए गए हैं। इंटरनेशनल यूनियन ऑफ लेफ्ट पब्लिशर्स के सहयोग से तैयार किए गए ये बारह चित्र दुनिया के अलग-अलग हिस्से की किसी क्रांतिकारी किताब से प्रेरित है। रेड बुक्स डे क्रांतिकारी किताबों, उनके लेखकों और जन आंदोलनों का जश्न मनाने का दिन है, जिसे हम 21 फ़रवरी को मनाते हैं, क्योंकि साल 1848 में इसी दिन कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र प्रकाशित किया था। इस उत्सव के साथ हम दुनिया से कहना चाहते हैं कि पढ़ना, एक बेहतर इंसान बनना है।
पूरा रूस पढ़ना सीख रहा था और पढ़ रहा था – राजनीति, अर्थशास्त्र, इतिहास – क्योंकि लोग जानना चाहते थे… हर शहर में, अधिकतर क़स्बों में, मोर्चे के साथ चलते हुए, हर राजनीतिक संगठन का अपना एक अख़बार था – [और] कहीं-कहीं एक से ज़्यादा भी। हज़ारों संगठनों द्वारा लाखों पर्चे बांटे जा रहे थे जो क्रांतिकारियों की फ़ौजों से लेकर गांवों, कारख़ानों, सड़कों तक पहुँच रहे थे। शिक्षा की भूख, जो लंबे समय से दबी पड़ी थी, क्रांति के साथ अभिव्यक्ति के उन्माद में बदल गई। अकेले स्मोल्नी इंस्टीट्यूट से ही पहले छह महीनों के भीतर, हर दिन हज़ार किलो साहित्य निकल रहा था, जो कारों और ट्रेनों में लद कर देश भर में जाता। रूस पढ़ने की चीज़ों को ऐसे पी रहा था जैसे अतृप्त गर्म रेत पानी पीती है। और लोग दंतकथाएँ, मिथ्या इतिहास, सस्ती धार्मिक व्याख्याएँ या भ्रष्ट करने वाला पल्प फ़िक्शन नहीं पढ़ रहे थे – वे पढ़ रहे थे सामाजिक और आर्थिक सिद्धांत, दर्शन, टॉल्स्टॉय, गोगोल और गोर्की की रचनाएँ…
जॉन रीड, टेन डेज़ दैट शुक द वर्ल्ड, 19191
आम मेहनतकश लोगों की क्रांतियों ने समाज की बेड़ियाँ तोड़कर नई दुनिया बनाने पर ज़ोर दिया। ऐसी हर क्रांति, चाहे वह सीधे तौर पर समाजवादी हो या राष्ट्रीय मुक्ति से प्रेरित रही हो, समाज के पुराने तौर-तरीक़ों को हटा कर आपसी मेलजोल पर आधारित समतावादी समाज के निर्माण की आकांक्षा को दर्शाती है। बीसवीं सदी की ज़्यादातर क्रांतियाँ (मेक्सिको, 1910; चीन, 1911; ईरान, 1905-1911; रूस और मध्य एशिया, 1917) किसानों और मज़दूरों के नेतृत्व में हुई थीं, इसलिए यहां अक्सर ज़मींदारी के कठोर ढाँचे को बदलने का सवाल केंद्र में दिखाई देता है। जमींदारों की सत्ता उखाड़ फेंकने के लिए केवल अधिशेष भूमि वितरण जैसे भूमि सुधार के उपाय करना काफ़ी नहीं था; ज़मींदारों की ताक़त की जड़ें सामाजिक ढाँचे में जमी थीं, जिसे भगवान के नियम की तरह माना जाता था। किसानों का उत्पीड़न भूमि अभिलेखों, बही खातों, साहूकारों और पुजारियों के दस्तावेज़ों में दर्ज समझ में न आने वाली लिखाई के ज़रिए किया जाता था। किसानों को पढ़ने की क्षमता से वंचित रख कर उन्हें शक्तिहीन बनाया गया। लेकिन दुनिया के तमाम पिछड़े इलाक़ों में हुई क्रांतियाँ इस बात की गवाह हैं कि किसानों ने यह शक्ति हासिल कर समाज में बदलाव किए।
उन्नीसवीं सदी में इन देशों में व्याप्त बुर्जुआ संस्कृति में पढ़ना-लिखना व्यक्ति के वर्ग से जुड़ा हुआ था। हालाँकि व्यावसायिक प्रकाशन शुरू होने के साथ किताबों और समाचार पत्रों की उपलब्धता बढ़ी, लेकिन ये सब मुख्य रूप से पूंजीपति वर्ग और – कहीं कहीं – पेटी बुर्जुआ वर्ग में ही पढ़े जाते थे। मेक्सिको में राष्ट्रपति बेनिटो जुआरेज़ (1858-1872) ने स्कूली शिक्षा और प्रकाशन उद्योग का विस्तार तो किया लेकिन एक समाचार पत्र की लागत मज़दूरों (या किसानों) की औसत दैनिक आय से कहीं ज़्यादा थी।2 मेक्सिको व रूस जैसे देशों में तथा भारत व अफ्रीकी महाद्वीप जैसे उपनिवेशों में ज़मींदारों के शासन के चलते, मज़दूरों और किसानों के लिए साक्षर होने के बहुत कम अवसर मौजूद थे। इन देशों में ट्रेड यूनियन और कम्युनिस्ट आंदोलन शुरू होने के साथ उनके संगठनों से छपने वाले समाचार पत्र और पर्चे जब कार्यकर्ताओं द्वारा श्रमिकों और किसानों के बीच उपलब्ध कराए जाने लगे तब जाकर उन्होंने कुछ पढ़ना शुरू किया। सामूहिक शिक्षा का यह रूप साक्षरता का शुरुआती ज़रिया बना।
यह डोसियर, ‘पढ़ना, एक बेहतर इंसान बनना है’ ऐसे ही प्रयासों से प्रेरित है तथा मेक्सिको से लेकर भारत व चीन में चले लोकप्रिय साक्षरता अभियानों के उदाहरण पेश करता है। डोसियर का अंतिम भाग रेड बुक्स डे के बारे में है। इस कार्यक्रम की शुरुआत सबसे पहले भारत में हुई थी और अब इंटरनेशनल यूनियन ऑफ लेफ्ट पब्लिशर्स की पहल के ज़रिए यह कार्यक्रम पूरी दुनिया में आयोजित होता है।

वेलेंटिना एगुइरे (वेनेज़ुएला/यूटोपिक्स) द्वारा बनाया गया चित्र।
मेक्सिको रीड्स
1910 की मेक्सिकन क्रांति के समय, देश की 1.51 करोड़ आबादी में से केवल 22% लोग ही साक्षर थे।3 इसके बाद मेक्सिको में अशांति का एक दशक लंबा दौर चला। 1920 में अल्वारो ओब्रेगॉन ने राष्ट्रपति पद जीतने के बाद सुधार प्रक्रिया शुरू की, जिसमें कई सामूहिक सांस्कृतिक गतिविधियाँ शामिल थीं, जैसे ग्रामीण स्कूल खोले गए, शिक्षकों को प्रशिक्षित किया गया, सार्वजनिक पुस्तकालय तथा कला विद्यालय बनाए गए और नव-साक्षरों के लिए पर्चे व किताबें प्रकाशित की जाने लगीं। 1921 में, जोस वास्कोनसेलोस सार्वजनिक शिक्षा मंत्रालय के पहले सचिव बने और राष्ट्रपति ओब्रेगॉन ने उन्हें मेक्सिकन संस्कृति को लोकतांत्रिक बनाने का काम सौंपा।4 इसके लिए सरकार ने हज़ारों ग्रामीण विद्यालय और शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान बनाए और ग्रामीण शिक्षकों का वेतन एक पेसो से बढ़ाकर तीन पेसो प्रतिदिन कर दिया।5 मुख्य प्रशिक्षण संस्थान चलाने की ज़िम्मेदारी वास्कोनसेलोस ने मेक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य एलेना टोरेस क्यूएलर को सौंपी , जिन्होंने इस सांस्कृतिक मिशन का विस्तार देश भर में किया और एक दशक के भीतर चार हज़ार से ज़्यादा शिक्षकों को प्रशिक्षित किया। टोरेस ने देश के हज़ारों बच्चों का पोषण सुनिश्चित करने के लिए 1921 में स्कूलों में निःशुल्क आहार की योजना शुरू की।6
वास्कोनसेलोस के नेतृत्व में सार्वजनिक शिक्षा मंत्रालय ने ग्रामीण इलाक़ों में गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक पुस्तकालयों के विकास पर जोर दिया। इस दिशा में मंत्रालय ने पुस्तकालयों के निर्माण के लिए धन वितरित करने के साथ ग्रामीण पुस्तकालयों के लिए पचास पुस्तकों का सेट और शहरी पुस्तकालयों के लिए हज़ार किताबों का सेट तैयार किया। इन किताबों को मंत्रालय द्वारा प्रकाशित कर हर पुस्तकालय में पहुँचाया गया ताकि किसानों तक इनकी पहुँच बढ़े और उनके सांस्कृतिक जीवन व रोज़मर्रा के व्यावहारिक व किसानी से संबंधित ज्ञान में इज़ाफ़ा हो। ग्रीक के बेहतरीन साहित्य से लेकर मेक्सिको के इतिहास और घरेलू प्रबंधन तथा कृषि विज्ञान से संबंधित किताबें इन सेट्स में शामिल थीं।7 मंत्रालय ने शिक्षकों के लिए एक पत्रिका ‘एल मेस्ट्रो’ (शिक्षक), का प्रकाशन भी शुरू किया। इस पत्रिका में शिक्षण शैली और शिक्षा क्षेत्र में उठ रहे नए विचारों पर जानकारी के साथ पुस्तक समीक्षाएँ शामिल होती थीं। इस सरकारी पहल के अलावा 1934 में समाजशास्त्री व अर्थशास्त्री डैनियल कोसियो विलेगास ने नेशनल स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स (जिसे अब नेशनल ऑटोनॉमस यूनिवर्सिटी ऑफ मेक्सिको के स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के रूप में जाना जाता है) में आर्थिक संस्कृति कोष की स्थापना की। इसका उद्देश्य था अर्थशास्त्र के छात्रों को किताबें वितरित करना। पर आगे चल कर इस कोष के ज़रिए पूरे लैटिन अमेरिका में विस्तृत विषयों पर कई किताबें पहुँचाई गईं।
मेक्सिकन क्रांति ज्यो-ज्यों संस्थागत रूप लेती गई वहाँ का वर्ग चरित्र बदलने लगा। इसी के साथ संस्कृति को लोकतांत्रिक बनाने पर से ध्यान हटता गया। साक्षरता दर बढ़ी तो थी, लेकिन 70% के आसपास आकर रुक गई। सरकार की शैक्षिक व सार्वजनिक पुस्तकालय प्रणाली साक्षरता की गुणवत्ता में सुधार नहीं कर पा रही थी। दूसरी तरफ़ वित्तीय संकट बढ़ रहा था, जो कि 1982 में मेक्सिकन ऋण संकट के रूप में सामने आया। इस लगातार बढ़ते संकट के चलते शिक्षा और सार्वजनिक पुस्तकालयों की अनदेखी होने लगी थी। मेक्सिको के नीति निर्माता नवउदारवाद की आदतों में ढल रहे थे और समाज के भीतर मौजूद प्रगतिकामी धाराएँ साक्षरता की अनदेखी को रोकने का संघर्ष कर रही थीं। 1986 में पुस्तकालयों के महानिदेशालय ने लाइब्रेरी में ‘मेरी गर्मियों की छुट्टियां’ (मिस वैकेशनेस एन ला बिब्लियोटेका) नामक एक कार्यक्रम शुरू किया। इस कार्यक्रम के माध्यम से दस लाख बच्चों व युवाओं ने सार्वजनिक पुस्तकालयों द्वारा आयोजित विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में भाग लिया।8 मेक्सिको के लाइब्रेरी सिस्टम ने इस कार्यक्रम को आगे बढ़ाया और संस्कृति, संगीत और कथा-वाचन के कई उत्सव आयोजित किए। 1993 में पाठ्यक्रम में बदलाव के ज़रिए हुए शैक्षिक सुधारों की रोशनी में 1995 में सार्वजनिक शिक्षा मंत्रालय ने राष्ट्रीय पठन कार्यक्रम (प्रोग्रामा नैशनल पैरा ला लेक्टुरा) शुरू किया। साल 2000 में इसका नाम बदल कर ‘पाठकों का देश बनाने की मुहिम’ (हैसिया अन पैस डे लेक्टोरेस) कर दिया गया। इस कार्यक्रम की एक ख़ासियत यह थी कि हर साल पचहत्तर किताबें चुनकर उनका प्रकाशन किया जाता और देश भर के स्कूल-पुस्तकालयों में उन्हें पहुँचाया जाता।
2008 में मेक्सिको के राष्ट्रीय पठन एवं पुस्तक संवर्धन कार्यक्रम (प्रोग्रामा डे फ़ोमेंटो पैरा एल लिब्रो वाई ला लेक्टुरा) ने साक्षरता को सामाजिक असमानता कम करने और ज्ञान तक पहुँच बढ़ाने के साधन के रूप में उपयोग करने के उद्देश्य से मेक्सिको रीड्स (मेक्सिको ली) परियोजना की स्थापना की। यह परियोजना मेक्सिको के साक्षरता अभियानों के अपने इतिहास और क्यूबाई क्रांति के वयस्क साक्षरता पाठ्यक्रम “यो, सी पुएदो (हाँ, मैं कर सकता हूँ)” से प्रेरित थी। क्यूबा में 1961 के साक्षरता कार्यक्रम से मिली सीख के आधार पर “यो, सी पुएदो” पाठ्यक्रम को 2001 में तैयार किया गया था और यह पाठ्यक्रम पूरे लैटिन अमेरिका के साक्षरता अभियानों में काफ़ी प्रभावशाली रहा है। 2009 में मेक्सिको के आर्थिक संस्कृति कोष के तत्कालीन निदेशक पाको इग्नासियो ताइबो-द्वितीय और लेखिका पालोमा सैज़ तेजेरो ने मिलकर एक ब्रिगेड (ब्रिगेड पैरा लीयर एन लिबर्टाड) की स्थापना की। इस ब्रिगेड का उद्देश्य था ऐसी किताबें प्रकाशित करना जिन्हें जनता निःशुल्क डाउनलोड कर सके या पुस्तक मेलों व सांस्कृतिक उत्सवों से बिना ख़र्च ले सके। ब्रिगेड का मिशन है पढ़ने के आनंद को सब के बीच पहुँचाना। इस विषय में पालोमा सैज़ तेजेरो कहती हैं:
पढ़ने से नए सपने और ज्ञान के नए स्रोत खुलते हैं, जो आम तौर पर किसी के पास पहले नहीं होते; पढ़ना आपमें आलोचनात्मक नज़रिया विकसित करता है और आपको अपने जीवन में हर दिन खुद का बचाव करने के लिए हथियार देता है; पढ़ना आपको पहले से ज़्यादा सुंदर या अमीर नहीं बनाएगा; वे किताबें जो आपको बताती हैं कि अगर आप उन्हें पढ़ेंगे तो ऐसी चीजें होंगी, वे सफ़ेद झूठ हैं, ऐसा नहीं होता, आप पहले से अधिक बुद्धिमान भी नहीं बन जाएँगे; लेकिन पढ़ना आपको यह तय करने की स्पष्टता देता है कि आप क्या करना चाहते हैं और क्या नहीं करना चाहते हैं।9

ओथमान घाल्मी (मोरक्को/वर्कर्स डेमोक्रेटिक वे) द्वारा बनाया गया चित्र।
किताबों से मिला चीनियों को हौसला
1911 में किंग राजवंश के पतन से पहले चीन की अधिकांश आबादी – विशेष रूप से महिलाएँ – निरक्षर थी। 1900 में अनुमानित साक्षरता दर केवल 10-15% थी।10 समाज में व्याप्त उथल-पुथल के बीच किंग राजवंश के बाद भी साक्षरता में बहुत सुधार नहीं हुआ। 1949 की चीनी क्रांति के बाद यह तस्वीर बदली। 1950 के दशक में ही साक्षरता दर में बड़ी वृद्धि दिखाई देने लगी। 1959 आते तक 57% आबादी साक्षर हो गई थी।11 और 2021 आते तक, चीन में वयस्क साक्षरता दर बढ़कर 97% पर पहुँच गई। इस आँकड़े में चीन आज दुनिया में सबसे आगे है। पिछले सात दशकों में चीन ने साक्षरता में जिस तरह क़दम बढ़ाया है, उसे ‘शायद मानव इतिहास में सबसे बड़ा शैक्षिक प्रयास’ कहा गया।12
यह उपलब्धि 1949 की क्रांति के तुरंत बाद चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) द्वारा लागू की गई परियोजनाओं का परिणाम है। इन परियोजनाओं के प्रेरणास्रोत थे- दक्षिण-पूर्वी और उत्तर-मध्य चीन में क्रमशः जियांग्शी सोवियत (1931-1934) और यान’आन सोवियत (1936-1948) जैसे प्रयासों के तहत ग्रामीणों और वयस्कों के बीच साक्षरता बढ़ाने के लिए चले विभिन्न साक्षरता अभियान। ये अभियान सोवियत संघ के “लिकबेज़” व अन्य साक्षरता कार्यक्रमों पर आधारित थे। लिकबेज़ एक निरक्षरता उन्मूलन कार्यक्रम था, जिसके तहत प्रौढ़ साक्षरता कार्यक्रमों से जुड़े ज्ञान व समझ को व्यवस्थित किया गया और जिससे सभी सोवियत गणराज्यों में साक्षरता के क्षेत्र में उल्लेखनीय लाभ मिला था।13 1921 में वी. आई. लेनिन ने आर्थिक नीति पर आयोजित एक सम्मेलन में घोषणा की थी कि यदि निरक्षरता बरक़रार रही तो कोई प्रगति नहीं होगी। लेनिन ने कहा कि ‘साक्षरता के बिना कोई राजनीति नहीं हो सकती; इसके बिना अफ़वाहें, गप, परीकथाएँ और पूर्वाग्रह ही चल सकते हैं, राजनीति नहीं’।14
हालाँकि, नए चीन के साक्षरता अभियान से जुड़ी सभी गतिविधियों को यहाँ प्रस्तुत करना असंभव है, लेकिन उनमें से तीन गतिविधियों के बारे में जानना बहुत ज़रूरी है:
- निरक्षरता को चीनी भाषा में 文盲 लिखा जाता है, जिसका मतलब है ‘टेक्स्ट ब्लाइंड’, यानी जो लिपि ना पढ़ सके, क्योंकि साक्षर माने जाने के लिए चीनी भाषा के अक्षरों को जानना ऐतिहासिक रूप से पहली शर्त माना गया है। एक लाख से भी ज़्यादा ऐसे अक्षरों से बनी चीनी भाषा समाज में पूर्ण साक्षरता प्राप्त करने की दिशा में बाधाएँ पैदा करती रही। 1955 में, क्रांतिकारी सरकार ने साक्षरता को सुचारू रूप से आगे बढ़ाने के लिए ‘चीनी लिखित भाषा सुधार समिति’ का गठन किया। इसके तहत साक्षरता का न्यूनतम मापदंड नए सिरे से तय किया गया, और ग्रामीण निवासियों के लिए 1500 अक्षरों तथा शहरी निवासियों व ग्रामीण नेताओं के लिए 2,000 अक्षरों की सूची तैयार की गई।15 इसके अलावा 1958 में, प्राथमिक विद्यालयों में पिनयिन लिपि (चीनी अक्षरों का रोमानीकरण) का इस्तेमाल शुरू कर चीनी अक्षरों के उपयोग को सरल बनाया गया।
- मेक्सिको और रूस की तरह चीनी क्रांति ने ग्रामीण साक्षरता और वयस्क साक्षरता दोनों के महत्त्व पर ज़ोर दिया: यदि अभिभावक लिखने-पढ़ने में दिलचस्पी नहीं लेंगे तो बच्चे भी पढ़ने के आनंद से वंचित रहेंगे। लिन हांडा, जो चीन के निरक्षरता-विरोधी अभियान के प्रमुख नेताओं में से एक थे, ने 1955 में कहा था कि साक्षरता केवल अक्षरों की पहचान भर नहीं है; साक्षरता के अभियान का अंतिम लक्ष्य यह होना चाहिए कि किसान अपने जीवन को समृद्ध बना सकें और अपनी उत्पादकता बढ़ा सकें। इसके अगले वर्ष जारी की गई निरक्षरता-विरोधी उद्घोषणा के अनुसार ग्रामीण वयस्क साक्षरता मुहिम के दो सिद्धांत थे: ज्ञान को ‘व्यवहार में जोड़ना’ (लियानक्सी शिजी) और ‘लागू करने के उद्देश्य से सीखना’ (ज़ुए यी ज़ी योंग)।16
- चीनी क्रांति ने अपने साक्षरता कार्यक्रमों में सार्वजनिक पुस्तकालयों की भूमिका पर ज़ोर डाला। 1949 में चीन में केवल पचपन सार्वजनिक पुस्तकालय थे। लोकतंत्र के प्रसार के लिए, नए चीन ने किसानों के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में पुस्तकालयों और श्रमिकों के लिए कारख़ाना पुस्तकालयों का निर्माण किया। 1956 आते तक, चीन के गाँवों में 1,82,960 वाचनालय बन चुके थे, जहां विस्तृत विषयों पर पठन सामग्री उपलब्ध थी।17
इस तरह की परियोजनाओं ने चीनी समाज को निरक्षरता से उबरने में मदद की। आज चीन नई तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है, जैसे कि युवाओं में स्क्रीन और वीडियो गेम की लत। इस मामले में 2021 में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने घोषणा की थी कि उनकी सरकार युवाओं के बीच ऑनलाइन वीडियो गेम के उपयोग को प्रति सप्ताह तीन घंटे तक सीमित करने का क़दम उठाएगी, जिसे वीडियो गेम उद्योग और अभिभावक दोनों नियंत्रित करेंगे। 2022 में राष्ट्रपति शी ने पठन-पाठन पर आयोजित पहले राष्ट्रीय सम्मेलन में अपने उद्घाटन भाषण में पढ़ने को ज्ञान प्राप्त करने के साधन के अलावा, ज्ञान का विस्तार करने और सद्गुण सीखने का ज़रिया बताते हुए कहा कि:
प्राचीन काल से चीनी लोगों ने पढ़ने की वकालत की है और चीज़ों की प्रकृति का अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त करने और विवेक का इस्तेमाल करते हुए व्यक्तित्व में सुधार करने पर जोर दिया है। पढ़ने की आदत चीनी लोगों में संयम की पारंपरिक भावना को मज़बूती देने, उनमें आत्मविश्वास पैदा करने तथा उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में अहम भूमिका निभा सकती है।
मैं पार्टी के सदस्यों और पदाधिकारियों से पठन-पाठन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हुए, सद्गुण व आदर्श का रास्ता अपनाने और अपनी क्षमताओं में सुधार करने का आह्वान करता हूँ। मुझे उम्मीद है कि हमारे सभी बच्चों को पढ़ने की आदत लगेगी, उन्हें पढ़ने में आनंद आएगा और वे स्वस्थ रूप में बड़े होंगे। मैं चाहता हूं कि हमारी जनता पढ़ने में रूचि ले और ऐसा माहौल बनाने में योगदान करे जहां हर कोई पढ़ना पसंद करता हो, सबके पास पढ़ने के लिए अच्छी किताबें हों और सबको पढ़कर कुछ सीखना आता हो।18
उसी साल शंघाई लाइब्रेरी की पूर्वी शाखा को जनता के लिए खोल दिया गया था। पुडोंग जिले में स्थित सेंचुरी पार्क के ठीक सामने इस लाइब्रेरी में हर दिन चहल-पहल रहती है, लेकिन रविवार की शाम देखने लायक होती है। ग्लोबल दक्षिण के कई ग़रीब देशों में उस समय बच्चों को सड़क पर खेलते हुए देखा जा सकता है। ग्लोबल उत्तर में शायद उस समय बच्चे घर के अंदर स्क्रीन के सामने चिपके होते होंगे। लेकिन शंघाई में बच्चे किताबों के ढेर उठाकर, अपने पापा-मम्मी, या दादा-दादी की गोद में बैठकर, उन्हें एक-एक कर उत्साह से पढ़ते हैं।
लाइब्रेरी के एक छोटे पर महत्त्वपूर्ण हिस्से में मार्क्सवादी साहित्य रखा है। इस हिस्से में रखी किताबें लेखकों के आधार पर लगाई गई हैं: कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स, माओ ज़ेडोंग, डेंग शियाओपिंग तथा शी जिनपिंग। लाइब्रेरी का सबसे प्यारा हिस्सा बच्चों का सेक्शन है, जिसमें रंग-बिरंगी किताबों की क़तारें लगी हुई हैं, और पास के सोफे, टेबल आप में बैठकर पढ़ने की जिज्ञासा पैदा करते हैं। मानवाधिकारों पर 1948 की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 26 के अनुसार हर इंसान को पढ़ने का अधिकार प्राप्त है। यह पुस्कालय वो जगह है जहाँ लोग -चाहे वयस्क हों या बच्चे– अपने पढ़ने के अधिकार का प्रयोग करने आते हैं। इस परंपरा में पठन-पाठन एक सामाजिक गतिविधि है जो इंसानों में, और ख़ासकर युवाओं में सहानुभूति और संज्ञानात्मक क्षमता विकसित करने में मदद करती है और लोगों को उनके इतिहास, संस्कृति, भाषा और पूर्वजों से जोड़ती है।

जुनैना मुहम्मद (भारत/यंग सोशलिस्ट आर्टिस्ट्स) द्वारा बनाया गया चित्र।
केरल में किताबों की भीनी महक
लगभग 3.34 करोड़ की आबादी वाले केरल राज्य में वाम लोकतांत्रिक मोर्चे की सरकार है, जिसमें मुख्य पार्टी भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई-एम) है।19 आप केरल के किसी भी क़स्बे या शहर में जाइए, आपको निश्चित रूप से वहाँ सार्वजनिक पुस्तकालय दिखाई देंगे, जिनमें लोग साथ लेकर जाने के लिए किताबें ढूँढ़ रहे होंगे या टेबल पर बैठकर किताबें पढ़ रहे होंगे। केरल में नौ हज़ार से ज़्यादा सार्वजनिक पुस्तकालय हैं। यहाँ कम्युनिस्ट आंदोलन की सक्रिय उपस्थिति के कारण पढ़ने की एक स्थायी परंपरा रही है।
1920 के दशक में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ जारी आंदोलन के दौरान साक्षरता का मुद्दा उपनिवेशवाद-विरोधी भारतीय राष्ट्रवाद के एजेंडे का हिस्सा था। सार्वजनिक पुस्तकालयों को साक्षरता अभियान का महत्त्वपूर्ण साधन माना जाता था। पुस्तकालय भारत के उन राज्यों में विकास एजेंडे का अहम हिस्सा पहले से ही बन चुके थे जो उदार शासक के अधीन थे (जैसे बड़ौदा, जिसे अब वडोदरा के नाम से जाना जाता है)। भारत के लाइब्रेरी आंदोलन की सबसे दिलचस्प बात यह है कि इसकी शुरुआत अधिकतर जगहों पर दोस्तों के किसी समूह द्वारा अपनी पुस्तकों और समाचार पत्रों को इकट्ठा कर अपने गाँव-क़स्बे में छोटा सा पुस्तकालय शुरू करने के साथ हुई थी। उदाहरण के लिए के.एन. पणिक्कर – जिन्हें केरल के लाइब्रेरी आंदोलन का जनक माना जाता है- बताते हैं कि समाचार पत्रों तक केवल अमीर लोगों की पहुँच थी। पर जब वह ख़ुद किसी तरह से एक समाचार पत्र की सदस्यता लेने में सफल हो गए, तो उनके घर पर आठ-दस लोग इकट्ठा होने लगे जो उनसे समाचार पढ़ कर सुनाने का आग्रह करते। उन्होंने कहा, ‘जब कभी अख़बार नहीं आता था, तो मैं उन्हें महान नायकों की जीवनियाँ पढ़कर सुनाता था’। वह आगे कहते हैं कि ‘मेरे एक दोस्त ने दो समाचार पत्र और लगवा लिए थे और उसके पास कुछ पुस्तकें भी थीं। इन पुस्तकों और समाचार पत्रों को एक छोटे से बिना किराए वाले कमरे में इकट्ठा कर हमने एक छोटा पुस्तकालय शुरू किया था’।20 इस तरह लाइब्रेरी शुरू करने से जुड़ी हज़ारों कहानियाँ हैं। ऐसे कई पुस्तकालयों को बाद में राज्य पुस्तकालय प्रणाली में शामिल कर लिया गया जिससे उन पुस्तकालयों को संसाधन मिले और उनका दायरा भी बढ़ा। इसी तरह के छोटे-छोटे पुस्तकालयों के साथ केरल में पुस्तकालय आंदोलन की शुरुआत हुई थी। भारत के अन्य राज्यों में भी लाइब्रेरी आंदोलन चले पर आज भी इसका केंद्र केरल ही है। और आज भी ऐसे छोटे पुस्तकालय इस आंदोलन की जान हैं।
इसका बेहतरीन उदाहरण हैं कन्नूर ज़िले के पुस्तकालय। केरल में सबसे ज़्यादा पुस्तकालय कन्नूर में हैं। लगभग 29,000 लोगों की आबादी वाले गाँव मायिल की ग्राम पंचायत, कन्नूर ज़िले की 93 स्थानीय सरकारों में से एक है। इस इलाक़े में केरल राज्य पुस्तकालय परिषद से संबद्ध 34 पुस्तकालय हैं। इसका मतलब है कि हर वर्ग किलोमीटर में लगभग एक पुस्तकालय है, जिनमें से प्रत्येक पुस्तकालय लगभग 872 लोगों को सेवा प्रदान करने में सक्षम है। दुनिया के किसी भी हिस्से में पुस्तकालयों का इस कदर असाधारण घनत्व देखने को नहीं मिलेगा। ये सभी पुस्तकालय राज्य सरकार द्वारा वित्त-पोषित हैं और सभी में कंप्यूटर व एकीकृत कैटलॉग की सुविधा के साथ-साथ प्रशिक्षित लाइब्रेरियन हैं, जो आसपास के समुदाय के लिए बेहतरीन संसाधन की तरह हैं।
इनमें से हरेक पुस्तकालय की अपनी कहानी है, और कई पुस्तकालयों का नाम तो किसी राष्ट्रवादी या कम्युनिस्ट नेता के नाम पर रखा गया है। कन्नूर में मौजूद कुछ पुस्तकालयों के बारे में जानें:
- मायिल में स्थित वेलम पब्लिक रीडिंग रूम हॉल (वेलम पोथुजना वायनशाला):21 1934 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य ईश्वरन नंबूथिरी ग्रामीणों के बीच हिंदी भाषा को बढ़ावा देने के लिए मायिल पंचायत (ग्राम परिषद) आए थे। उन्होंने अपने स्कूल के लिए एक छोटा सा शेड बनवाया, जो बाद में एक पुस्तकालय बन गया और जिसमें आज 18,000 पुस्तकें हैं।
- थालास्सेरी में स्थित पराल पब्लिक रीडिंग रूम हॉल (पराल पोथुजना वायनशाला पब्लिक लाइब्रेरी): 1934 में कौमुदी नाम की एक सोलह वर्षीय लड़की ने ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन के ख़िलाफ़ जारी स्वतंत्रता आंदोलन में अपना योगदान करने के लिए गांधी जी को अपने सोने के आभूषण दे दिए थे। सोने से मिले पैसे का इस्तेमाल लाइब्रेरी के निर्माण के लिए किया गया, जिसमें अब ज़िले के इतिहास का अभिलेखागार भी शामिल है।
- कंदक्कई में स्थित एस.जे.एम. रीडिंग रूम हॉल एवं देशीय राष्ट्रीय पुस्तकालय (एस.जे.एम. वायनशाला और देशीय ग्रंथालयम): केरल में उन्नीसवीं सदी के सामाजिक सुधार आंदोलनों के दौरान श्री जथावेद गुरु नामक एक व्यक्ति कंदक्कई पहुँचे। उन्होंने वहाँ के ग्रामीणों को जातिगत पदानुक्रम और भेदभाव से लड़ने के लिए प्रेरित किया। इस संघर्ष को गति देने के लिए गुरु ने एक छोटी सी लाइब्रेरी की स्थापना की, जहां आज दस हज़ार से अधिक पुस्तकें मौजूद हैं।
- पिनाराई में स्थित सी. माधवन मेमोरियल रीडिंग रूम हॉल (सी. माधवन स्मारक वायनशाला): भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का पहला सम्मेलन 1939 में केरल के पिनाराई में गुप्त रूप से आयोजित किया गया था। उसके दो दशक बाद प्रगतिशील युवा संगठन श्री श्री नारायण आश्रिता युवाजन संघम ने एक सामाजिक कार्यकर्ता के नाम पर सी. माधवन मेमोरियल लाइब्रेरी शुरू की। इस पुस्तकालय में स्थानीय स्तर पर डोनेशन सिस्टम के ज़रिए हर साल हज़ारों किताबें इकट्ठी की जाती हैं। सामुदायिक भावना का विस्तार इस कदर हुआ है कि आज जब भी इस क्षेत्र में नया घर बनता है, तो लाइब्रेरी के नाम पर उसके पास कोई फलदार पेड़ लगाया जाता है।
- एज़होम स्थित कुलप्पुरम रीडिंग रूम हॉल और लाइब्रेरी (कुलप्पुरम वायनशाला और ग्रंथालयम): 1950 के दशक में एज़होम गाँव के बुनकरों ने यंग मेन्स क्लब के नाम से एक रीडिंग रूम शुरू किया। वह रीडिंग रूम अब तीन मंज़िल का जलवायु-नियंत्रित पुस्तकालय बन चुका है, जिसमें सार्वजनिक आयोजनों के लिए जगह है और एक बड़ा खेल का मैदान तथा शाक वाटिका (वेजिटेबल गार्डेन) भी है। यह पुस्तकालय कई तरह की सामाजिक सेवाएँ भी प्रदान करता है, जैसे पुस्तक वितरण और महिलाओं के लिए मोटरसाइकिल ड्राइविंग का कोर्स। इस कोर्स से अब तक सौ से अधिक महिलाएँ ड्राइविंग सीख कर लाइसेंस प्राप्त करने में सफल रही हैं। 2008 में, पुस्तकालय ने कन्नूर ज़िले के परियारम में स्थित गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज के स्वास्थ्य-कर्मियों के साथ मिलकर गांव के 700 घरों का दौरा किया था। डॉक्टरों व पुस्तकालयकर्मियों ने पूरे गाँव से स्वास्थ्य संबंधी जानकारी इकट्ठा की और नगरपालिका की विभिन्न सेवाओं के बारे में ग्रामीण जनता को जानकारी दी।
- नेशनल होमलैंड अपलिफ्टमेंट रीडिंग रूम हॉल और पब्लिक लाइब्रेरी (देशोद्धारना वायनशाला एवं पब्लिक लाइब्रेरी) तथा चला स्थित देशोद्धारना वायनशाला: खजूर के बाग के किनारे स्थित इस छोटे पुस्तकालय की स्थापना 1960 के दशक में किसानों ने की थी। ये किसान बीड़ी बनाने, बुनकरी जैसे दिहाड़ी मज़दूरी के काम करते थे। किसानों ने अपने पैसे जमा करके पठन-पाठन व चिंतन के लिए एक जगह बनाई। आज, इस लाइब्रेरी में क़रीब 9,000 किताबें हैं।
- कावुम्बई में स्थित थलियान रमन नंबियार मेमोरियल पब्लिक रीडिंग रूम हॉल (थलियान रमन नंबियार मेमोरियल पब्लिक लाइब्रेरी स्मारक पोथुजना वायनशाला): किसान नेता थलियान रमन को 1946 में कावुम्बई के किसान विद्रोह के दौरान गिरफ़्तार किया गया था और चार साल बाद सलेम जेल में पुलिस द्वारा किए गए नरसंहार में उनकी हत्या हो गई। 1962 में स्थानीय किसानों ने उनके सम्मान में यह लाइब्रेरी बनवाई।
- करिवेल्लूर स्थित एवन-वन लाइब्रेरी: एवन-वन क्लब के रूप में शुरू हुई इस लाइब्रेरी को 1973 के बाद से एवन लाइब्रेरी के नाम से जाना जाता है। इस लाइब्रेरी में आज 17,574 किताबें हैं और 619 सदस्य हैं। यह लाइब्रेरी बच्चों के लिए रीडिंग की गतिविधियाँ आयोजित करती है, समय-समय पर फिल्म स्क्रीनिंग आयोजित करती है और बुजुर्गों को उनके घरों तक किताबें पहुँचाती है। लाइब्रेरी के स्थानीय इतिहास समूह के साथ जुड़-कर दो स्थानीय शोधकर्ताओं ने इतिहास पर अपने शोध-ग्रंथ तैयार किए हैं।
महामारी के दौरान पुस्तकालय आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं ने देख-रेख कार्य में और छात्रों के लिए शिक्षा जारी रखने में महत्त्वपूर्ण मदद पहुँचाई। इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण नेटवर्क परियोजना है, जो कन्नूर ज़िले के आदिवासी क्षेत्रों में सामाजिक विकास को बढ़ावा देने के उद्देश्य से शुरू हुई थी। इस परियोजना की शुरुआत सीपीआई (एम) नेता और राज्यसभा सदस्य डॉ. वी. शिवदासन ने की थी और जल्द ही यह परियोजना पीपुल्स मिशन फॉर सोशल डेवलपमेंट (पीएमएसडी) ट्रस्ट का एक अभिन्न अंग बन गई। यह ट्रस्ट कन्नूर ज़िला पुस्तकालय परिषद के तहत काम करती है, और केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन इसके मुख्य संरक्षक हैं तथा शिवदासन अध्यक्ष हैं। पीएमएसडी का संकल्प है हर वार्ड में एक पुस्तकालय स्थापित करने में सहयोग करना। इसी के साथ पीएमएसडी ने कन्नूर विश्वविद्यालय और केरल की लाइब्रेरी काउंसिल के साथ मिलकर जनवरी 2023 में पहली भारतीय लाइब्रेरी कांग्रेस की मेजबानी की, जिसमें पाँच लाख लोगों ने भाग लिया था। कांग्रेस की तैयारी के लिए आयोजकों ने विभिन्न विषयों पर 1,500 सेमिनार आयोजित किए। भाग लेने वालों में 3,000 लाइब्रेरियन के अलावा स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के कर्मचारी, सरकारी अधिकारी, सहकारी कार्यकर्ता, छात्र, शिक्षक और अन्य लोग शामिल थे।
भारतीय लाइब्रेरी कांग्रेस विभिन्न राज्यों में आयोजित होने वाला एक वार्षिक कार्यक्रम बन चुका है। इसका उद्देश्य निम्नलिखित विचारों को बढ़ावा देना है:
- अधिक से अधिक स्थानों पर पुस्तकालय शुरू किए जाने चाहिए, जहां पुस्तकों के भंडार के साथ यथासंभव उन्नत तकनीक भी उपलब्ध हो।
- पुस्तकालय केवल शहरी क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि ग्रामीण और दूरदराज के इलाक़ों में भी स्थापित किए जाने चाहिए, जैसे पूर्वोत्तर केरल में वायनाड के पहाड़ी इलाके में।
- लोगों के लिए पुस्तकालय महत्त्वपूर्ण और सक्रिय सार्वजनिक स्थान बनें, जहां सांस्कृतिक विकास के पर्याप्त मौक़े मिलने के साथ फिल्म स्क्रीनिंग, खेल, कला मेले और व्यावसायिक प्रशिक्षण जैसी गतिविधियों के आयोजन हो। पुस्तकालयों के आसपास स्वास्थ्य केंद्र और विज्ञान कक्षाएं स्थापित की जानी चाहिए।22
लाइब्रेरी आंदोलन कामकाजी लोगों की मेहनत से चलता है। इनमें से एक हैं पय्यन्नूर अन्नूर के राजन वी.पी., जो छठी कक्षा तक पढ़े थे और एक बीड़ी मजदूर थे। जब राजन ने छोटी उम्र में एक बीड़ी फैक्ट्री में काम करना शुरू किया तो वे वहाँ के मज़दूरों की पढ़ने की आदत से खूब प्रभावित हुए। लंच ब्रेक से पहले मज़दूर एक-दूसरे को दैनिक समाचार पढ़कर सुनाते और लंच के बाद में कोई उपन्यास। ऐसा क्यूबा की सिगार फैक्टरियों में भी देखा जा सकता है। इस तरह रोज़ अख़बार और उपन्यास पढ़ते हुए राजन को आगे पढ़ने की प्रेरणा मिली, जिससे उन्हें अपने घर के पास स्थित एक सहकारी बैंक में क्लर्क के रूप में नई नौकरी मिल गई। 2008 तक वे बैंक के प्रबंधक रहे। उस वर्ष, राजन ने पीपुल्स लाइब्रेरी और रीडिंग रूम की स्थापना की, जो अब शहर में सांस्कृतिक जीवन का केंद्र बन गया है।
लाइब्रेरी आंदोलन की एक और अनूठी नेता हैं साठ साल की राधा वी.पी.। उन्होंने सातवीं तक पढ़ाई की है और एक बीड़ी मजदूर हैं। छोटी उम्र से ही उन्हें अपने घर के कामकाज की ज़िम्मेदारी उठानी पढ़ी। उन्होंने बचपन में ही सीपीआई (एम) की साप्ताहिक पत्रिका देशाभिमानी को पढ़ना शुरू कर दिया था। वह पत्रिका में शामिल कहानियों व कविताओं पर टिप्पणी करते हुए संपादकों को पत्र भी लिखतीं। 2002 में राधा ‘जवाहर मूविंग लाइब्रेरी’ से जुड़ीं। यह लाइब्रेरी 2001 में शुरू हुई थी, और पाठकों, ख़ास तौर पर महिलाओं और बुज़ुर्गों के घरों तक किताबें पहुँचाती है। काम के बाद राधा एक हाथ में लाइब्रेरी रजिस्टर और कंधे पर किताबों से भरा बैग लेकर घर-घर किताबें देने जाने लगीं। जल्द ही उन्हें इस रूप में आते देखना स्थानीय लोगों के लिए ख़ुशी का सबब बन गया। 2018 में उन्होंने दसवीं कक्षा पूरी की और उच्च शिक्षा के लिए ज़रूरी राज्य परीक्षा पास की। अपनी पढ़ाई और काम के बीच भी लाइब्रेरी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता कभी कम नहीं हुई। वो कहती हैं कि, ‘मुझे यह काम करना अच्छा लगता है। मुझे कभी भी अपना बैग भारी नहीं लगा, क्योंकि किताबों की भीनी महक से मुझे हमेशा बहुत ख़ुशी मिलती रही।’23
राजन और राधा जैसे कामकाजी लोग ही केरल के लाइब्रेरी आंदोलन को सुचारू रूप से चलाने में लगने वाली इंसानी मेहनत का प्रतीक हैं।

साल्वाटोर कार्लियो (इटली/पोटेरे अल पोपोलो!) द्वारा बनाया गया चित्र।
जापान से चाँद तक मनाएँगे रेड बुक्स डे
21 फरवरी 2019 को सीपीआई(एम) से जुड़े प्रकाशकों के समूह ‘इंडियन सोसाइटी फॉर लेफ्ट पब्लिशर्स’ ने एक अभियान शुरू किया था, जिसे अब रेड बुक्स डे के नाम से जाना जाने लगा है। कम्युनिस्ट घोषणापत्र के प्रकाशन की 171वीं वर्षगांठ और अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित इस कार्यक्रम का उद्देश्य था धर्मनिरपेक्ष, सांस्कृतिक और समाजवादी सिद्धांतों के अनुरूप सामूहिक जीवन का विकास। दुनिया भर के प्रकाशकों का ध्यान रेड बुक्स डे की तरफ़ गया। और इसके अगले साल, 2020 में दक्षिण कोरिया से क्यूबा तक 30,000 से अधिक लोगों ने इसे मनाया।24 2024 में रेड बुक्स डे के तहत इंडोनेशिया से लेकर चिली तक आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों में दस लाख से अधिक लोगों ने शिरकत की। अकेले केरल में ही विभिन्न शहरों, ज़िलों में आयोजित गतिविधियों में पाँच लाख लोग शामिल रहे थे।25
2020 में पहली बार यह उत्सव भारत से बाहर मनाया गया था। उस दिन तमिलनाडु में किसान संगठनों और ट्रेड यूनियनों के सदस्यों ने अपने-अपने गाँवों की सड़कों पर प्लास्टिक की कुर्सियों का घेरा बनाकर कम्युनिस्ट घोषणापत्र पर चर्चा की। ब्राज़ील के भूमिहीन श्रमिक आंदोलन (एमएसटी) की बस्तियों में कार्निवल उत्सव के दौरान आंदोलन के सदस्य एक साथ बैठे और बारी-बारी से इसे जोर-जोर से पढ़ा। नेपाल के पहाड़ों में कृषि श्रमिक संघ ने अपने संगठन द्वारा प्रकाशित क्रांतिकारी किताबों पर चर्चा की। तंजानिया में भूमिहीन किसानों ने इकट्ठे होकर साक्षरता के महत्त्व के बारे में बात की।
2024 में क्यूबा में दस दिवसीय हवाना पुस्तक मेले के दौरान 21 फरवरी को रेड बुक्स डे के उपलक्ष्य में विशेष गतिविधियाँ आयोजित की गईं। केरल में, चेम्म पार्वती ने रेड बुक्स डे का एक वीडियो जारी किया, जिसमें वह त्रिवेंद्रम के बाज़ारों और कारख़ानों में ‘इंटरनैशनल’ के फ्रेंच संस्करण पर नृत्य करती हुई दिखाई देती हैं। वीडियो के अंत में चेम्म पार्वती समंदर के किनारे खड़ी दिखती हैं, उनके हाथ में लाल झंडा है और उनके पीछे क्षितिज पर लाल सूरज। इस वीडियो के साथ दुनिया भर से कलाकारों ने अपने पोस्टर जारी किए थे, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग अपने शहर-क़स्बे-गाँव में इस दिन को मनाने के लिए रीडिंग सेशन या अन्य गतिविधियाँ आयोजित करने की प्रेरणा ले सकें।
2020 में रेड बुक्स डे के पहले अंतर्राष्ट्रीय उत्सव की तैयारी के लिए इंडियन सोसाइटी ऑफ़ लेफ्ट पब्लिशर्स ने दुनिया भर के प्रकाशकों के साथ बैठकें की। इन बैठकों के परिणामस्वरूप इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ लेफ्ट पब्लिशर्स (आईयूएलपी) का गठन हुआ, जिसमें अब पैंतालीस प्रकाशक शामिल हैं।26 आईयूएलपी का गठन केवल रेड बुक्स डे मनाने के लिए नहीं हुआ था, बल्कि वामपंथी प्रकाशकों को दक्षिणपंथी हमलों से बचाने और तर्कसंगत व समाजवादी विचारों को आगे बढ़ाने के मक़सद से एक मंच प्रदान करने हेतु किया गया था। आईयूएलपी ने रेड बुक्स डे के ही दिन कई भाषाओं में संयुक्त पुस्तकें जारी की हैं। इनमें चे ग्वेरा के लेखों का संकलन और पैरिस कम्यून आदि किताबें शामिल हैं, जिन्हें रोमानियाई से लेकर इंडोनेशियाई भाषा में एक ही दिन प्रकाशित किया गया। इसके साथ ही लेखकों या प्रकाशकों पर जब हमले हुए तो आईयूएलपी ने उनके बचाव में संयुक्त बयान जारी किए हैं।27
लाइब्रेरी आंदोलन द्वारा केरल के विभिन्न सार्वजनिक पुस्तकालयों में हर साल रेड बुक्स डे कार्यक्रम आयोजित किए गए हैं। गीत व नाटक इन कार्यक्रमों का अहम हिस्सा हैं, जिनसे लाखों लोग तर्कसंगतता और समाजवाद के रास्ते पर चलने की नई ऊर्जा हासिल करते हैं।
रेड बुक्स डे, क्रांतिकारी किताबों के लेखन-प्रकाशन और पढ़ने के अधिकार की रक्षा के लिए तथा तर्क पर हमला करने वाले मौजूदा रूढ़िवादी विचारों से लड़ने के लिए एक व्यापक सांस्कृतिक संघर्ष का हिस्सा है। उम्मीद है कि यह दिन आईयूएलपी ही नहीं बल्कि दुनिया भर की प्रगतिशील ताक़तों के कैलेंडर में एक अहम तारीख़ बनेगा। रेड बुक्स डे की पहचान बढ़ने और प्रगतिशील ताक़तों के कैलेंडर पर इसे जगह मिलने के साथ हम देख रहे हैं कि आईयूएलपी और वामपंथी धाराओं के दायरे से बाहर के लोग व संगठन भी रेड बुक्स डे को अपना रहे हैं। हमें उम्मीद है कि इस दशक के अंत तक दुनिया भर में एक करोड़ से भी ज़्यादा लोग रेड बुक्स डे में हिस्सा लेंगे।
1930 के दशक में उत्तरी काकेशस में स्थित जॉर्जीवस्की के सामूहिक खेतों से महिलाओं ने सोवियत सरकार को एक पत्र लिखा था। उन्होंने लिखा था, ‘हमें बड़े खेतों को ठीक से चलाने के लिए ज़रूर पढ़ाई करनी चाहिए। हम पूरी सर्दी पढ़ाई करना चाहती हैं; पढ़ना-लिखना सीखना चाहती हैं; राजनीतिक ज्ञान और वैज्ञानिक कृषि के मूल सिद्धांतों का अध्ययन करना चाहती हैं। हमें और किताबें व नोटबुक दीजिए, क्योंकि महिलाओं में पढ़ाई की इच्छा बहुत ज़्यादा है।’ इन महिलाओं में से एक, फ़ेकला गोलोवचेंको (जो लगभग पचास साल की थीं) ने लिखा था, ‘अगर मैं पर्याप्त रूप से शिक्षित नहीं हुई, तो मैं अपनी ब्रिगेड को संभाल नहीं पाऊँगी।’ महिलाओं ने लिखा, ‘शिक्षा अब विलास की चीज़ नहीं है। अब यह एक अहम ज़रूरत है, जैसे प्यासे आदमी के लिए पानी ज़रूरी होता है’।28
जॉर्जीवस्की की महिलाओं के शब्द मेक्सिको की ब्रिगेड (ब्रिगेड पैरा लीयर एन लिबर्टाड) की संस्थापक पालोमा सैज़ तेजेरो के शब्दों से मिलते हैं, जिन्होंने कहा था:
पढ़ने वाले लोगों का नज़रिया आलोचनात्मक होता है, वे महान आदर्शों की हिमायत करते हैं। अपने इतिहास को जानने वाले और उसे अपनी विरासत मानने वाले निश्चय ही अपनी जड़ों पर गर्व करेंगे। पढ़ना हमें सामाजिक बनाता है; हमारे अनुभवों और सूचनाओं को समृद्ध करता है। किताबें हमें ख़ुद को और हमारे इतिहास को समझने की दृष्टि देती हैं; किताबें हमारी चेतना को हमारे अतीत और वर्तमान की समझ से आगे बढ़ाती हैं। पढ़ना हमें बेहतर नागरिक बनाता है। किताबों की ही बदौलत हम असंभव पर विश्वास करना, प्रत्यक्ष पर अविश्वास करना, नागरिक के रूप में अपने अधिकारों की मांग करना, और अपने कर्त्तव्यों को पूरा करना सीखते हैं। पढ़ना इंसान के व्यक्तिगत और सामाजिक विकास को प्रभावित करता है; इसके बिना, कोई भी समाज प्रगति नहीं कर सकता।

इंग्रिड नेवेस (ब्राजील/ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान) द्वारा बनाया गया चित्र।
Notes
1 John Reed, Ten Days That Shook the World (New Delhi: LeftWord Books, 2017), 53.
2 Omar Martínez Legorreta, Modernisation and Revolution in Mexico: A Comparative Approach (Tokyo: United Nations University, 1989), 71.
3 James Presley, ‘Mexican Views on Rural Education 1900–1910’, The Americas 20, no. 1 (July 1963): 64–71.
4 Jacqueline Paola Ayala Zamora, La obra educativa de José Vasconcelos [The Educational Work of José Vasconcelos] (Mexico City: Universidad Pedagógica Nacional, 2005).
5 José Vasconcelos, ‘Education in Mexico: Present Day Tendencies’, Bulletin of the Pan American Union 56, no. 3 (January–June 1923): 230–245.
6 Patience Alexandra Schell, Church and State Education in Revolutionary Mexico City (Tuscon: University of Arizona Press, 2003); Lloyd Hughes, Las misiones culturales mexicanas y su programa [Mexican Cultural Missions and their Programme] (Paris: UNESCO, 1950); Martha Eva Rocha Islas, Los rostros de la rebeldía. Veteranas de la Revolución Mexicana, 1910-1939 [The Faces of Rebellion: Women Veterans of the Mexican Revolution, (1910–1939)] (Mexico City: Secretaría de Cultura, 2016); Paco Ignacio Taibo, Bolcheviques: historia narrativa de los orígenes del comunismo en México 1919–1925 [The Bolsheviks: A Narrative History of the Origins of Communism in Mexico 1919–1925] (Mexico City: Joaquín Mortiz, 1986).
7 Louise Schoenhals, ‘Mexico Experiments in Rural and Primary Education, 1921–1930’, Hispanic American Historical Review 44, no. 1 (1 February 1964): 22–43.
8 Elsa Margarita Ramírez Leyva, ‘Mexico Reads: National Program for the Promotion of Reading and the Book’ (paper presented at the World Library and Information Congress: 77th IFLA General Conference and Assembly, San Juan, Puerto Rico, 13–14 August 2011).
9 Ángel Vargas, ‘“Leer te hace mucho más crítico y te da armas para defenderte todos los días”: Paloma Saiz’ [‘Reading Makes You Much More Critical and Gives You Weapons to Defend Yourself Every Day’: Paloma Saiz], La Jornada, 18 July 2024, https://www.jornada.com.mx/2024/07/18/cultura/a04n2cul.
10 ‘“The Single Greatest Educational Effort in Human History”’, Language Magazine (blog), 8 November 2024, https://www.languagemagazine.com/the-single-greatest-educational-effort-in-human-history/.
11 Wang Yianwei and Li Jiyuan, Reform in Literacy Education in China (Geneva: UNESCO, International Bureau of Education, 1990).
12 Glen Peterson, The Power of Words: Literacy and Revolution in South China, 1949–1995 (Vancouver: University of British Columbia Press, 1997), 3.
13इस डोसियर में हमने सोवियत संघ के साक्षरता अभियानों पर विस्तार से चर्चा नहीं की है, हालांकि उनकी उपलब्धि अपने आप में उल्लेखनीय रही थी। सोवियत संघ के साक्षरता के आँकड़े पूरी कहानी नहीं बता सकते, उनसे केवल यह पता चलता है कि सोवियत संघ निरक्षरता को किस तेज़ी से हराने में सक्षम रहा था। सोवियत संघ ने ज़ार साम्राज्य के पुराने ग्रामीण इलाकों में झोपड़ियाँ (इज़बी-चिटल’नी) और खुले मैदानों में टेंट (युर्ट) लगाए, जहां चिकित्सा कर्मियों के साथ साथ और साक्षरता कर्मी नियुक्त किए गए। यह कहानी यहाँ पूरी तरह से बताई नहीं गई है।
14 V. I. Lenin, ‘The New Economic Policy’, Lenin Collected Works, vol. 33, (Moscow: Progress Publishers, 1965), 78.
15 Heidi Ross, with contributions from Jingjing Lou, Lijing Yang, Olga Rybakova, and Phoebe Wakhunga, China Country Study, background paper commissioned for the Education for All Global Monitoring Report 2006: Literacy for Life (2005), UNESCO, 2006/ED/EFA/MRT/PI/85.
16 Peterson, The Power of Words, 85.
17 Priscilla C. Yu, ‘Leaning to One Side: The Impact of the Cold War on Chinese Library Collections’, Libraries and Culture 36, no. 1 (2001): 256; Zhixian Yi, ‘History of Library Developments in China’ (paper presented at the ‘Future Libraries: Infinite Possibilities’, session 164, Library History Special Interest Group, International Federation of Library Associations and Institutions Conference, Singapore, 15–23 August 2013), https://library.ifla.org/id/eprint/143/1/164-yi-en.pdf.
18 Xi Jinping, ‘Full Text of Xi Jinping’s Congratulatory Letter to the First National Conference on Reading’, China Daily, 23 April 2022, https://www.chinadaily.com.cn/a/202204/23/WS6263ad99a310fd2b29e58dbf.html.
19 State Planning Board, Government of Kerala, ‘Population and the Macro Economy’, in Economic Review 2017 (Thiruvananthapuram: Government of Kerala, January 2018), accessed 12 January 2025, https://spb.kerala.gov.in/economic-review/ER2017/web_e/ch11.php?id=1&ch=11.
20 Lawrence Liang and Aditya Gupta, The Public Library Movement in India: Bedrock of Democracy and Freedom (Public Resource, 2024), 54–55.
21मलयालम भाषा में ग्रंथालयम का अर्थ है पुस्तकालय, जबकि वायनशाला का अर्थ है वाचनालय, एक ऐसा स्थान जहाँ लोग बैठकर पढ़ सकते हैं। कुछ वायनशालाएँ छोटे कमरे के बराबर हैं, जहां कुछ अख़बार और पत्रिकाएँ हैं लेकिन बहुत कम किताबें हैं। हालाँकि, कभी-कभी वायनशाला का उपयोग पुस्तकालय के संदर्भ में भी किया जाता है। इस सूची में शामिल सभी लाइब्रेरियों में पुस्तकों के साथ बैठ कर पढ़ने की भी जगह है, जैसा कि केरल के अधिकांश पुस्तकालयों में पाया जाता है। ब्रैकिट में दिए गए नाम पुस्तकालयों के आधिकारिक नाम हैं।
22 P. Mohandas and Manu M. R., eds., People Own Spaces: Emergence of Libraries in Kerala (Kannur: Indian Library Congress, 2024).
23 M. A. Rajeev Kumar, ‘Bag Full of Joy and Wisdom’, The New Sunday Express, 26 June 2022.
24 ‘Red Books Day Celebrated on Each Continent’, Tricontinental: Institute for Social Research, 30 April 2020, https://thetricontinental.org/booklet-red-books-day/.
25 Nitheesh Narayanan, Sudhanva Deshpande, and Vijay Prashad, ‘Red Books Day 2024’, Peoples Democracy, 3 March 2024, https://peoplesdemocracy.in/2024/0303_pd/red-books-day-2024.
26 International Union of Left Publishers, ‘Who We Are’, https://iulp.org/about.
27 For a full list, see ‘Books’, Tricontinental: Institute for Social Research, https://thetricontinental.org/books/.
28 Georgii Nikolaevich Serebrennikov, The Position of Women in the USSR (London: Victor Gollancz, 1937), 81.