डुमिले फेनी (दक्षिण अफ़्रीका), आकृति अध्ययन , 1970

प्यारे दोस्तों,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।

अगस्त 2023 में हुए अपने पन्द्रहवें सम्मेलन में ब्रिक्स (ब्राज़ीलरूसभारतचीनदक्षिण अफ़्रीका) समूह ने जोहान्सबर्ग द्वितीय घोषणापत्र को अंगीकृत किया। जोहान्सबर्ग द्वितीय घोषणापत्र ने, अन्य मुद्दों के अलावा, संयुक्त राष्ट्र और विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार का सवाल उठाया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को अधिक लोकतांत्रिक, प्रतिनिधिक, प्रभावी और कुशल बनाने तथा उसमें विकासशील देशों की भागीदारी बढ़ानेके लिए ब्रिक्स देशों ने अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के देशों को शामिल कर यूएन सुरक्षा परिषद के विस्तार की बात की है। घोषणापत्र में विशेष रूप से कहा गया है कि यदि यूएन सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों का विस्तार किया जाता है तो ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका को उसमें शामिल किया जाना चाहिए। पिछले लगभग बीस सालों से, ब्रिक्स के ये तीन संस्थापक देश वीटो शक्ति के साथ यूएन सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य के रूप में प्रवेश करने की मांग कर रहे हैं। इन देशों ने पिछले दशकों में अपनी आकांक्षाओं को विफल होते देखा है, और उनके नेतृत्व के बीच खड़ी बाधाओं ने उन्हें पहले 2003 में आईबीएसए (भारतब्राजीलदक्षिण अफ्रीका) समूह और फिर 2009 में ब्रिक्स समूह बनाने के लिए प्रेरित किया।

सुरक्षा परिषद की संरचना और उसमें स्थायी सदस्यता के कारण चुनिंदा देशों को प्राप्त वीटो शक्ति के मुद्दे संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के बाद से ही केन्द्र में रहे हैं। 1944 में, मुख्य सहयोगी देश यानी ब्रिटेन, चीन, सोवियत संघ (यूएसएसआर), और संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) – संयुक्त राष्ट्र और उसके मुख्य संस्थानों के ढाँचे आदि पर चर्चा करने के लिए वाशिंगटन डीसी के डंबर्टन ओक्स में एकत्र हुए थे। इन देशों जिन्हें बिग 4 कहा गया ने तय किया कि वे सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य होंगे और उनके पास सुरक्षा परिषद के फैसलों पर वीटो का प्रयोग करने की शक्ति होगी। यूएसएसआर नहीं चाहता था कि फ्रांस उसकी तरह तरह सुरक्षा परिषद का सदस्य बने, क्योंकि फ्रांसीसी सरकार ने 1940 से 1944 तक नाजियों का साथ दिया था। लेकिन, संयुक्त राज्य अमेरिका ने पूरा ज़ोर लगा कर फ्रांस को बिग 5 यानी यूएन सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों में शामिल कर लिया। 1945 में, सैन फ्रांसिस्को में, संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 23 द्वारा यह स्थापित हो गया ये पांच देश स्थायी सदस्य (पर्मानेंट5 या पी5) होंगे और छह अन्य गैरस्थायी सदस्यों को दो साल के कार्यकाल के लिए महासभा द्वारा चुना जाएगा।

पमेला सिंह (भारत), खजाने का मानचित्र 006, 2014-15

 

नवंबर 2005 में, जी4 के नाम से जाने जाने वाले देशों ब्राज़ील, जर्मनी, जापान और भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक प्रस्ताव पेश किया। संयुक्त राष्ट्र में ब्राजील के राजदूत रोनाल्डो मोटा सार्डेनबर्ग ने महासभा में कहा कि संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के बाद से प्राप्त संचित अनुभव से पता चलता है कि 1945 में स्थापित शक्ति की वास्तविकताएँ बहुत पहले ही समाप्त हो चुकी हैं। उस समय स्थापित की गई सुरक्षा संरचना अब स्पष्ट रूप से पुरानी हो चुकी है।जी4 ने प्रस्ताव दिया कि छह स्थायी और चार गैरस्थायी सदस्यों को शामिल करते हुए यूएन सुरक्षा परिषद की सदस्यता को 15 से बढ़ाकर 25 कर दिया जाए। बहस में बोलने वाले अधिकांश सदस्यों ने यह स्वीकार किया कि वर्तमान में अफ़्रीका या लैटिन अमेरिका का कोई भी देश सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य नहीं है। इसका समाधान करना दुनिया के सामने समानता के पक्ष में एक बड़ा कदम उठाने जैसा होगा। इस परिवर्तन को लागू करने के लिए, संयुक्त राष्ट्र चार्टर को महासभा के दोतिहाई सदस्यों की मंजूरी और उनकी विधायिकाओं में इस कदम की पुष्टि की आवश्यकता होती है। ऐसा सिर्फ एक बार 1965 में हुआ था जब, जब परिषद का आकार ग्यारह सदस्यों से बढ़ाकर पंद्रह किया गया था। 2005 का प्रस्ताव मतदान के लिए आगे नहीं लाया गया। तब से यह प्रस्ताव अधर में लटका है। 2009 में, संयुक्त राष्ट्र ने समान प्रतिनिधित्व के प्रश्न और सुरक्षा परिषद की सदस्यता में वृद्धि व अन्य संबंधित मामलोंपर एक प्रस्ताव पारित किया, जिससे आज तक जारी बातचीत की एक लंबी कड़ी की शुरुआत हुई।

जी4 देशों के लिए आम सहमति नहीं बन पाई क्योंकि पी5 देश (ब्रिटेन, चीन, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका तथा फ़्रांस) इस बात पर असहमत रहे कि उनके सहयोगियों में से किसे स्थायी सदस्य बनाया जाए। 2005 में, P5 देशों के बीच टकराव शुरू हो गया था; संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके G7 सहयोगी (ब्रिटेन और फ्रांस) चीन तथा रूस के खिलाफ एक गुट के रूप में काम कर रहे थे। अमेरिका अपने करीबी सहयोगियों (जर्मनी और जापान) को लाकर ही पी5 का विस्तार करना चाहता था, ताकि प्रभावी रूप से यूएनसुरक्षा परिषद पर जी7 के सात सदस्यों में से पांच का प्रभुत्व हो जाए। यह न तो चीन को स्वीकार्य है और न ही रूस को।

एक बार फिर से, अमेरिकी सरकार यह कहकर व्यापक संयुक्त राष्ट्र सुधार के सवाल का राजनीतिकरण करने की कोशिश कर रही है कि वह चीन और रूस के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए यूएन सुरक्षा परिषद का विस्तार करना चाहती है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के उच्च अधिकारियों ने कहा है कि वे यूएन सुरक्षा परिषद में होने वाली बहस और चर्चा को अपने पक्ष में झुकाने के लिए अपने सहयोगियों को लाने के पक्ष में हैं। संयुक्त राष्ट्र के सुधार के प्रति यह रवैया वैश्विक दक्षिण द्वारा समान भौगोलिक प्रतिनिधित्व की माँग, और विशेष रूप से अफ्रीका व लैटिन अमेरिका से एक स्थायी सदस्य को शामिल करने के बारे में उठाए गए बुनियादी सवालों का समाधान नहीं कर सकता।

उमर बा (सेनेगल), मुखौटा 2, 2016

2005 में, संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफ़ी अन्नान ने इन लार्जर फ़्रीडमरिपोर्ट लिखी, जिसमें उन्होंने यूएन सुरक्षा परिषद को पंद्रह से बढ़ाकर चौबीस सदस्यों तक विस्तारित करने का आह्वान किया। उन्होंने तर्क दिया कि यह विस्तार क्षेत्रीय आधार पर किया जाए, जिसमें स्थायी सदस्यता (बिग 5 की तरह) ऐतिहासिक रूप से नहीं बल्कि क्षेत्रीय आधार पर दी जाएगी। कोफी अन्नान द्वारा प्रस्तावित मॉडलों में से एक के अनुसार अफ्रीका को दो, एशिया व प्रशांत क्षेत्र को दो, यूरोप को एक और अमेरिकी महाद्वीपों को एक स्थायी सीट मिलनी थीं। यह आवंटन जनसंख्या पर आधारित होता, यानी यूएन सुरक्षा परिषद का केंद्र (750 मिलियनकी आबादी वाले) यूरोप और (1 बिलियन की आबादी वाले) अमेरिका के बजाय अफ्रीका और एशिया महाद्वीपों की ओर चला जाता (जिनकी जनसंख्या क्रमश: 1.2 बिलियन और 4.3 बिलियन है)

वर्तमान में, सुरक्षा परिषद के दो सदस्यों की आबादी बहुत ही कम है ब्रिटेन और फ्रांस दोनों की आबादी 67 मिलियन है, जो रूस की आबादी के आधे और चीन की आबादी के एक से छोटे हिस्से के बराबर है। यह हैरान करने वाली बात है कि ये दोनों यूरोपीय देश दुनिया में अपनी घटती भूमिका के बावजूद वीटो शक्ति के साथ सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य बने हुए हैं, जबकि इनमें से कोई भी देश यूरोप का सबसे शक्तिशाली देश भी नहीं है (जो कि आर्थिक दृष्टि से जर्मनी है)। अफ्रीका में फ्रांस की औपनिवेशिक महत्वाकांक्षाओं को मिल रहे हालिया झटके, और यूक्रेन में शांति के पक्ष में यूरोपीय एजेंडे का नेतृत्व करने में फ्रांस की अक्षमता से पता चलता है कि यह यूरोपीय देश वैश्विक मामलों में कितना अप्रासंगिक हो गया है।

उसी तरह से, ब्रेक्सिट के बाद दुनिया में ब्रिटेन की भ्रामक स्थिति और वैश्विक ब्रिटेन पर एकमत दृष्टिकोण प्रदान करने में ब्रिटेन की विफलता से पता चलता है कि, प्रधान मंत्री ऋषि सुनक के गुस्से के बावजूद, इसे अपने आप को बड़ा समझने वाला एक मध्यम आकार का देशमानना सही है।

सुरक्षा परिषद में ब्रिटेन और फ़्रांस की स्थायी सदस्यता परिषद के ढाँचे की पुरातनता का उदाहरण है, क्योंकि जब दुनिया में सुरक्षा और विकास के लिए नेतृत्व प्रदान करने की बात आती है तो इनमें से कोई भी देश आत्मविश्वास पैदा नहीं कर पाता है।

निकोलस मौफ़रगे (मिस्र), पाँचवाँ दिन, 1980

कवि समीह अलकासिम (1939-2014) ने अपनी कविता प्रलय के पश्चातमें लिखा था – ‘वर्तमान एक निर्दोष झूठ हैभविष्य देखने के लिए, आपको अतीत से परामर्श करना चाहिए‘, अलकासिम ने अपने मूल देश फ़िलिस्तीन और इज़राइल द्वारा उस पर किए गए कब्जे के बारे में सोचते हुए कहा था। औपनिवेशिक अतीत का वर्चस्व वर्तमान में जारी है। उपनिवेशवादियों द्वारा अर्जित की गई शक्ति बरकरार है, उपनिवेशों से चुराई गई सारी संपत्ति का भंडार बांके डी फ्रांस और बैंक ऑफ इंग्लैंड में मौजूद है। इन पुरानी औपनिवेशिक शक्तियों ब्रिटेन और फ्रांस को वर्तमान के अधिपति बने रहने की अनुमति किस लिए दी जा रही है, बावजूद इसके कि इनका आधिपत्य का आधार बहुत पहले ही ख़त्म हो चुका है (जबकि ये परमाणु शक्तियाँ हैं, और प्रमुख हथियार निर्यातक भी)। अतीत में अर्जित शक्ति वर्तमान की आवश्यकताओं के लिए बाधक बनी हुई है।

संयुक्त राज्य अमेरिका, हालाँकि दुनिया में सबसे शक्तिशाली देश के रूप में अपना स्थान खो चुका है, लेकिन उसकी आदतें अभी बदली नहीं हैं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अमेरिका अपने सहयोगी देशों की स्थायी सदस्यता बरकरार रखना चाहता है और युद्ध पर भारी मात्रा में धन खर्च करना चाहता है (जैसे कि वैश्विक हथियार व्यय का आधा हिस्सा अमेरिका खर्च करता है)। संयुक्त राष्ट्र को ज़्यादा लोकतांत्रिक और मजबूत बनने देने की बजाय, अमेरिका संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न मंचों पर अपनी दादागिरी चलाकर या उनके चार्टरों का उल्लंघन कर इस वैश्विक संस्था को ठीक से काम नहीं करने देता है। हाल ही में संपन्न हुए 78वें संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र में, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता, [और] मानवाधिकारोंके महत्व पर बात की, बावजूद इसके कि अमेरिका इन तीनों वायदों का युद्ध, प्रतिबंध और ग्वांतानामो की खाड़ी में अपनी जेल के माध्यम से नियमित रूप से उल्लंघन करता रहा है। नैतिकता के अभाव में, संयुक्त राज्य अमेरिका संयुक्त राष्ट्र जैसे संस्थानों में लोकतंत्र की प्रगति को रोकने के लिए अपनी ताकत का उपयोग करता है।

अब तक, सभी प्रस्ताव यूएन सुरक्षा परिषद के विस्तार से सम्बन्धित रहे हैं, जिसके लिए महासभा में और सदस्य देशों की विधायिकाओं में वोट की आवश्यकता होती है। सुरक्षा परिषद में समानता लाने के लिए उपरोक्त प्रक्रिया से कहीं ज़्यादा आसान तरीका होगा दो सदस्य देशों द्वारा स्वेच्छा से अपनी सीटों का त्याग करके उन्हें स्थायी सदस्य देशों के समूह में प्रतिनिधिविहीन अफ़्रीका तथा लैटिन अमेरिका के देशों को सुपुर्द करना।

स्नेहसहित,

विजय।