प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
1 अक्टूबर को, 200 से अधिक सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों के नेटवर्क, इंटरनेशनल पीपुल्स असेंबली (आईपीए) को सार्वजनिक रूप से लॉन्च किया गया था। 2015 में ब्राज़ील में विभिन्न आंदोलनों के नेता दुनिया के सामने मौजूद ख़तरनाक स्थिति पर विचार करने के लिए एकत्र हुए थे। इसी बैठक से आईपीए की शुरुआत मानी जाती है। ‘डिलेमाज़ ऑफ़ ह्यूमानिटी’ के नाम से हुई इस बैठक में आईपीए और तीन साझेदार कार्यक्रमों: मीडिया नेटवर्क (पीपुल्स डिस्पैच), राजनीतिक स्कूलों का एक नेटवर्क (इंटरनेशनल कलेक्टिव ऑफ़ पॉलिटिकल एजुकेशन), और एक शोध संस्थान ( ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान) के निर्माण का विचार उभरा। अगले कुछ महीनों के न्यूज़लेटर में, मैं आईपीए के इतिहास और इसके सामान्य दृष्टिकोण के बारे में और अधिक लिखूँगा। अभी के लिए, हम इसके लॉन्च का स्वागत करते हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ हर साल 16 अक्टूबर को विश्व खाद्य दिवस मनाता है। इस साल, आईपीए, पीपुल्स डिस्पैच, द इंटरनेशनल कलेक्टिव ऑफ़ पॉलिटिकल एजुकेशन, और ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान भुखमरी को ख़त्म करने के लिए एक राजनीतिक अभियान चलाएँगे। इस सिलसिले में पीपुल्स डिस्पैच पहले से ही छ: मीडिया प्लेटफ़ॉर्म के सहयोग से दुनिया में व्याप्त भुखमरी और इसके प्रति लोगों के प्रतिरोध को उजागर करने वाले कई लेख प्रकाशित कर चुका है। इस बीच, इंटरनेशनल कलेक्टिव ऑफ़ पॉलिटिकल एजुकेशन अस्थिर खाद्य उत्पादन के तत्वों की खोज करने के उद्देश्य के साथ एन्वायरन्मेंटल क्राइसिस एंड कैपिटलिज़म के नाम से सेमिनार की एक सीरीज़ आयोजित कर रहा है।
भुखमरी से ज़्यादा अनैतिक और कुछ नहीं हो सकता, कड़ी मेहनत के बावजूद जीविका के साधनों से वंचित रहने से बड़ा अपमान क्या होगा। इसीलिए हमने भुखमरी और खाद्य सुरक्षा के बारे में अपनी समझ को और स्पष्ट बनाने और भुखमरी ख़त्म करने के लिए हमारे अभियानों को तेज़ करने के उद्देश्य के साथ रेड अलर्ट संख्या 12, ‘भुखमरी रहित दुनिया’ तैयार किया है।
भुखमरी असहनीय है।
विश्व स्तर पर भुखमरी 2005 से 2014 के बीच घट रही थी, लेकिन उसके बाद से अब लगातार बढ़ रही है; विश्व में भुखमरी अब फिर से 2010 के स्तर पर पहुँच गई है। इस प्रवृत्ति का प्रमुख अपवाद चीन रहा है, जिसने 2020 में अपने देश से अत्यधिक ग़रीबी ख़त्म कर दी। संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य और कृषि संगठन (एफ़एओ) की 2021 की रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ़ फ़ूड इनसिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड’ के अनुसार ‘दुनिया के तीन में से लगभग एक व्यक्ति (यानी 2.37 अरब लोगों) के पास 2020 में पर्याप्त भोजन मुहय्या नहीं थी – केवल एक वर्ष के भीतर [इस आँकड़े में] लगभग 32 करोड़ लोगों की संख्या और बढ़ गई’। संयुक्त राष्ट्र संघ के विश्व खाद्य कार्यक्रम का अनुमान है कि ‘यदि कोई त्वरित कार्रवाई नहीं की जाती’ तो कोविड-19 महामारी को पूरी तरह रोके जाने से पहले भुखमरी से जूझ रहे लोगों की संख्या दोगुनी हो सकती है।
वैज्ञानिकों ने बताया है कि दुनिया की आबादी के अनुसार भोजन की उपलब्धता में कोई कमी नहीं है: वास्तव में, दुनिया भर में प्रति व्यक्ति कैलोरी की कुल सप्लाई बढ़ी है। लोग भूखे इसलिए नहीं हैं क्योंकि लोगों की संख्या अधिक है, बल्कि इसलिए हैं क्योंकि दुनिया भर में जीवनयापन के लिए खेती करने वाले छोटे किसानों को कृषि-उद्योग द्वारा उनकी ज़मीनों से बाहर कर शहरों की झुग्गी बस्तियों में धकेला जा रहा है, जहाँ भोजन तक पहुँच उनकी आय पर निर्भर करती है। इसका नतीजा यह हुआ है कि अरबों लोगों के पास भोजन ख़रीदने के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं।
सभी ऐतिहासिक शोध इस बात की ओर संकेत करते हैं कि अकाल मुख्य रूप से खाद्य आपूर्ति की कमी के कारण नहीं पड़ते हैं, बल्कि भोजन उपलब्ध कराने के साधनों की कमी के कारण पड़ते हैं। जैसा कि एफ़एओ ने 2014 में लिखा था, ‘वर्तमान खाद्य उत्पादन और वितरण प्रणाली दुनिया [के लोगों] का पेट भरने में विफल हो रही है। जबकि कृषि से 12-14 अरब लोगों के लिए पर्याप्त भोजन का उत्पादन होता है, [फिर भी] लगभग 85 करोड़ लोग -यानी दुनिया के आठ में से एक व्यक्ति- तीव्र भुखमरी से जूझ रहे हैं’। इस विफलता को आंशिक रूप से इस तथ्य से मापा जा सकता है कि उत्पादित हुए सभी खाद्य पदार्थों में से एक तिहाई या तो प्रॉसेसिंग और आवाजाही के दौरान नष्ट हो जाते हैं या बर्बाद हो जाते हैं। भुखमरी का कारण जनसंख्या नहीं है, जो तर्क अक्सर हमें दिया जाता है, बल्कि असमानता और मुनाफ़े द्वारा संचालित कृषि-उद्योग के वर्चस्व वाली खाद्य प्रणाली है जिसमें करोड़ों लोगों की भुखमरी से बाहर निकलने की बुनियादी ज़रूरतों को त्याग कर मुट्ठी भर लोगों की मुनाफ़े की भूख शांत की जाती है।
1996 में, दो महत्वपूर्ण शब्दावलियाँ -खाद्य सुरक्षा और खाद्य संप्रभुता- आम बातचीत का हिस्सा बनीं।
खाद्य सुरक्षा का विचार, जो कि उपनिवेशवाद-विरोधी तथा समाजवादी संघर्षों से निकाला था और जिसे औपचारिक रूप से एफ़एओ के विश्व खाद्य सम्मेलन (1974) में स्वीकार्यता मिली, राष्ट्रीय खाद्य आत्मनिर्भरता के विचार से निकटता से जुड़ा हुआ है। 1996 की रोम घोषणा में भोजन तक आर्थिक पहुँच के महत्व पर ज़ोर देते हुए खाद्य सुरक्षा की अवधारणा को व्यापक बनाया गया और राष्ट्रीय सरकारों ने आय एवं खाद्य वितरण नीतियों के माध्यम से सभी लोगों को भोजन की गारंटी देने की प्रतिबद्धता जताई।
1990 के दशक की शुरुआत में, एक अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क ला वाया कैम्पेसिना, 81 देशों के 20 करोड़ किसान आज जिसके सदस्य हैं, ने खाद्य संप्रभुता का विचार सामने रखा, जिसका उद्देश्य न केवल इस बात पर ज़ोर देना था कि सरकारें भोजन वितरित करें, बल्कि इस बात पर भी था कि सरकारें लोगों को बुनियादी खाद्य पदार्थों का उत्पादन करने में सक्षम बनाएँ। खाद्य संप्रभुता का विचार एक ऐसी कृषि एवं खाद्य प्रणाली के निर्माण के इर्द-गिर्द परिभाषित किया गया था जो ‘स्थायी तरीक़ों से उत्पादित स्वस्थ और सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त भोजन को ग्रहण करने के लोगों के अधिकार और अपनी खाद्य एवं कृषि प्रणालियों को ख़ुद परिभाषित करने के उनके अधिकार’ को सुरक्षित करेगी।
एक दशक बाद, ला वाया कैम्पेसिना, वर्ल्ड मार्च ऑफ़ विमन, और विभिन्न पर्यावरण समूहों ने 2007 में नाइलेनी (माली) में खाद्य संप्रभुता पर एक अंतर्राष्ट्रीय फ़ोरम का आयोजन किया। इस फ़ोरम में, उन्होंने खाद्य संप्रभुता के छह मुख्य घटकों को व्याख्यायित किया:
वर्ग, जाति, और लिंग के पदानुक्रमों का तीखा मूल्यांकन ‘स्थानीय’ की अवधारणा को समझने के लिए ज़रूरी है; ऐसा कोई ‘स्थानीय समुदाय’ या ऐसी कोई ‘स्थानीय अर्थव्यवस्था’ नहीं है जो इन पदानुक्रमों और उनसे उत्पन्न भेदभावों के शोषण और हिंसा का सामना न कर रहा हो। इसके साथ-साथ, स्थानीय ज्ञान को आधुनिक विज्ञान की प्रगति की नज़र से भी देखा जाना चाहिए, क्योंकि कृषि के क्षेत्र में विज्ञान की सफलताओं को नज़रंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। खाद्य संप्रभुता के मंच को जो एक चीज़ एकजुट करती है, वह है खाद्य उत्पादन पर इनकी समझ जो कि पूँजीवादी तरीक़ों के बिलकुल विपरीत है।
उदारीकरण और वित्तीय अटकलों से खाद्य उत्पादन और वितरण में गंभीर विकृतियाँ पैदा होती हैं। व्यापार उदारीकरण सस्ते आयात का ख़तरा पैदा कर फ़सलों की क़ीमतें ही कम नहीं करता, बल्कि घरेलू बाज़ारों में अंतर्राष्ट्रीय क़ीमतों के प्रवेश के माध्यम से क़ीमतों को अस्थिर भी बना देता है। उदारीकरण विकासशील देशों में समृद्ध देशों की माँगों के अनुरूप फ़सल पैटर्न बदलकर खाद्य संप्रभुता को कमज़ोर करता है। 2010 में, अत्यधिक ग़रीबी और मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व विशेष रैपॉर्टियर, ओलिवियर डी शटर ने इस बात के बारे में आगाह किया था कि कमोडिटी डेरिवेटिव्स के माध्यम से अटकलें लगाकर हेज फ़ंड्स, पेंशन फ़ंड्स और निवेश बैंक कृषि पर हावी हो गए हैं। उन्होंने लिखा, ‘ये वित्तीय तरीक़े आम तौर पर कृषि बाज़ार की बुनियादी परिस्थितियों में दिलचस्पी नहीं रखते’। कृषि में वित्तीय अटकलें इस बात का उदाहरण पेश करती हैं कि मुनाफ़ा और उस पर आधारित व्यवस्था, उत्पादकों और उपभोक्ताओं दोनों को लाभान्वित करने वाली संतुलित खाद्य उत्पादन प्रणाली का किस तरह तिरस्कार करता है और खाद्य उत्पादन प्रणाली को विकृत करने के लिए पैसे की ताक़त का इस्तेमाल करता है।
खाद्य संप्रभुता की अवधारणा इस तरह कृषि उद्योग निगमों के क़ब्ज़े में ज़मीनें करने वाली विकृति के ख़िलाफ़ एक महत्वपूर्ण तर्क है। इस सदी की शुरुआत से ही, यूनिलीवर और मोनसेंटो जैसे कृषि उद्योग निगम बड़े पैमाने पर दुनिया भर में ज़मीनें हड़प रहे हैं। जिसके कारण इतिहास में पहली बार इतने लोग एक साथ अपनी जगहों से विस्थापित हुए हैं और नतीजतन मनुष्य और भूमि के बीच के सम्बंध नष्ट हुए हैं।
संयुक्त राष्ट्रसंघ के दो संकल्प -पहला 2010 में पानी के अधिकार की घोषणा और दूसरा किसानों के अधिकारों की पुष्टि की घोषणा (2018)- एक नयी कृषि प्रणाली को आकार देने में मदद करेंगे। एक ऐसी प्रणाली जो उत्पादकों के भूमि तक पहुँच सहित अन्य अधिकारों और प्रकृति के प्रति सम्मान पर केंद्र में रखे और पानी को वस्तु नहीं बल्कि संसाधन के रूप में देखे।
किसान और किसान संगठनों ने खाद्य उत्पादन के पूँजीवादी तरीक़ों की विफलताओं के बारे में पर्याप्त समझ हासिल की है। उनकी समयबद्ध माँगें कृषि उत्पादन की एक अलग व्यवस्था पर ज़ोर देती हैं, एक ऐसी व्यवस्था जो खाद्य प्रणालियों के निर्माण और पुनरुत्पादन में अधिक-से-अधिक लोकतांत्रिक भागीदारी को बढ़ावा दे, जहाँ भागीदारी में सहायता एजेंसियों या निजी क्षेत्र का नहीं बल्कि सरकारों का हस्तक्षेप शामिल हो। हमने उनकी कुछ बेहद महत्वपूर्ण माँगों को यहाँ दर्ज किया है:
ग. ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय स्व-शासन की स्थापना करें, क्योंकि यही वो महत्वपूर्ण जगहें हैं जहाँ किसान अपने जीवन को लाभ पहुँचाने और पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा करने वाली नीतियों को आकार देने में अपनी राजनीतिक शक्ति का उपयोग कर सकते हैं।
घ. सामाजिक कल्याण की प्रणालियों को सुदृढ़ करें ताकि प्रतिकूल समयों (जैसे ख़राब मौसम, ख़राब फ़सल, आदि) में किसानों की रक्षा की जा सके।
ङ. सार्वजनिक वितरण प्रणाली का निर्माण करें, जिसका एक विशेष उद्देश्य भुखमरी को ख़त्म करना हो।
च. सुनिश्चित करें कि सरकारी स्कूलों और बालगृहों में स्वस्थ भोजन उपलब्ध हो।
ख. किफ़ायती बैंक ऋण तक ग्रामीण उत्पादकों की पहुँच का विस्तार करें और उन्हें अनौपचारिक ऋणदाताओं से राहत प्रदान करें।
ग. कृषि उपज के लिए न्यूनतम मूल्य सुनिश्चित करने की नीति बनाएँ।
घ. सार्वजनिक धन से वित्त पोषित, टिकाऊ सिंचाई प्रणाली, परिवहन प्रणाली, भंडारण सुविधाओं और अन्य संबंधित बुनियादी ढाँचे का विकास करें।
ङ. सहकारी क्षेत्र के खाद्य उत्पादन को बढ़ावा दें और खाद्य उत्पादन एवं वितरण प्रणालियों में जनता की भागीदारी को प्रोत्साहित करें।
च. टिकाऊ और पारिस्थितिक कृषि के लिए वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्षमता विकसित करें।
छ. बीजों पर पेटेंट हटाएँ और कृषि व्यवसायियों के हाथों देशी बीजों के बिक्री को रोकने के लिए क़ानूनी ढाँचे का विकास करें।
ज. कृषि के लिए ज़रूरी आधुनिक उपकरणों को किफ़ायती दामों पर उपलब्ध करवाएँ।
ख. विवादों से निपटने व नयी नीतियाँ बनाने के लिए आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) और विश्व बैंक के इंटरनेशनल सेंटर फ़ॉर सेटल्मेंट ऑफ़ इन्वेस्टमेंट डिस्प्यूट्स जैसे उत्तरी गोलार्ध के शक्तिशाली निकायों पर निर्भरता कम करें। उत्तरी गोलार्ध के देश इन निकायों को नियंत्रित करते हैं, और ये उत्तरी गोलार्ध की बहुराष्ट्रीय निगमों के हित में पूरी तरह से काम करते हैं।
आईपीए के राजनीतिक मंच की भी यही माँगें हैं; कृपया फ़ेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर उनके विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स को फ़ॉलो करें, जहाँ से भुखमरी के ख़िलाफ़ हमारी भविष्य में आयोजित होने वाली गतिविधियों के बारे में आपको अधिक जानकारी प्राप्त होगी।
स्नेह-सहित,
विजय।