Diego Rivera (Mexico), Frozen Assets, 1931.

डिएगो रिवेरा (मेक्सिको), जमी हुई सम्पत्ति, 1931.

 

प्यारे दोस्तों,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।

अप्रैल 2022 में, संयुक्त राष्ट्र ने खाद्य, ऊर्जा और वित्त पर वैश्विक संकट प्रतिक्रिया समूह की स्थापना की। यह समूह तीन प्रमुख संकटों – खाद्य मुद्रास्फीति, ईंधन मुद्रास्फीति और वित्तीय संकट – पर नज़र रख रहा है। 8 जून 2022 को जारी उनकी दूसरी ब्रीफ़िंग में कहा गया है कि, कोविड-19 महामारी के दो साल बाद:

विश्व अर्थव्यवस्था नाज़ुक स्थिति में है। आज, 60 प्रतिशत श्रमिकों की वास्तविक आय महामारी से पहले की तुलना में कम है; 60 प्रतिशत सबसे ग़रीब देश या तो क़र्ज़ के संकट में हैं या इसके उच्च जोखिम में हैं; विकासशील देश सामाजिक सुरक्षा की कमी को पूरा करने के लिए प्रति वर्ष 1.2 ट्रिलियन डॉलर से चूक रहे हैं; और सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को पूरा करने के लिए प्रति वर्ष 4.3 ट्रिलियन डॉलर – यानी पहले से कहीं अधिक धन – की आवश्यकता है।

यह संकटपूर्ण वैश्विक स्थिति का पूरी तरह से उचित वर्णन है, हालात और बदतर होने की संभावना है।

संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक संकट प्रतिक्रिया समूह के अनुसार, अधिकांश पूँजीवादी देश महामारी के दौरान दी जा रही राहत राशि को पहले से ही बंद कर चुके हैं। रिपोर्ट में कहा गया है, ‘यदि सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों और सुरक्षा जालों को पर्याप्त रूप से विस्तारित नहीं किया गया, तो विकासशील देशों में भूख से जूझ रहे ग़रीब परिवार स्वास्थ्य से संबंधित ख़र्च को कम कर सकते हैं; कोविड-19 के कारण अस्थायी रूप से स्कूल छोड़ने वाले बच्चे अब स्थायी रूप से शिक्षा प्रणाली से बाहर हो सकते हैं; या छोटे धारक या छोटे व्यापारी अधिक ऊर्जा बिलों के कारण अपनी दुकान बंद कर सकते हैं’।

 

Renato Guttuso (Italy), La Vucciria, 1974.

रेनाटो गुट्टूसो (इटली), बूचड़ख़ाना, 1974.

 

विश्व बैंक की रिपोर्ट है कि खाद्य और ईंधन की क़ीमतें कम-से-कम 2024 के अंत तक ऐसे ही ऊँची रहेंगी। जैसे-जैसे गेहूँ और तिलहन की क़ीमतें बढ़ी हैं, दुनिया भर से रिपोर्ट आ रही है – यहाँ तक कि अमीर देशों से भी – कि श्रमिक वर्ग के परिवारों ने खाना छोड़ना (दिन में एक समय कम भोजन खाना) शुरू कर दिया है। इस तनावपूर्ण खाद्य स्थिति को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र महासचिव की विकास हेतु समावेशी वित्त की विशेष अधिवक्ता, नीदरलैंड की रानी मैक्सिमा, ने यह भविष्यवाणी की है कि कई परिवार अब दिन में एक ही समय भोजन करेंगे, जैसा कि वह कहती हैं, ‘दुनिया में और भी अधिक अस्थिरता का स्रोत’ होगा। वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम कहता है कि अगर हम गिरवी भुगतानों (मॉर्टगेज पेमेंट) पर बढ़ती ब्याज दरों और अपर्याप्त वेतन के प्रभाव की ओर ध्यान दें तो हम ‘एक पर्फ़ेक्ट स्टॉर्म (तूफ़ान)’ के बीच में हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) की प्रबंध निदेशक, क्रिस्टालिना जॉर्जीवा-किनोवा ने पिछले महीने के अंत में कहा था कि ‘क्षितिज पर अंधेरा छाने लगा है’।

 

Cândido Portinari (Brazil), Coffee Bean Mowers, 1935.

कैंडीडो पोर्टिनारी (ब्राज़ील), कॉफ़ी के बीजों को काटनेवाले, 1935.

 

ये आकलन शक्तिशाली वैश्विक संस्थानों – आईएमएफ़, विश्व बैंक, डब्ल्यूईएफ़, और यूएन – के अपने लोगों द्वारा पेश किए गए हैं (यहाँ तक ​​​​कि एक रानी के द्वारा भी)।  हालाँकि वे सभी संकट की संरचनात्मक प्रकृति को पहचान रहे हैं, लेकिन वे ईमानदारी से इस संकट की अंतर्निहित आर्थिक प्रक्रियाओं के बारे में बताना या इस स्थिति को पर्याप्त रूप से कोई नाम देना नहीं चाहते। वैश्विक निवेश फ़र्म द कार्लाइल ग्रुप के प्रमुख डेविड एम. रूबेनस्टीन ने कहा है कि जब वे अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर के प्रशासन का हिस्सा थे, तो उनके मुद्रास्फीति सलाहकार अल्फ्रेड कान ने उन्हें ‘आर’ शब्द – रिसेशन – का उपयोग नहीं करने की चेतावनी दी क्योंकि यह ‘लोगों को डराता है’। इसके बजाय, कान ने ‘बनाना (केला)’ शब्द का प्रयोग करने की सलाह दी थी। इन पंक्तियों के साथ, रूबेनस्टीन ने वर्तमान स्थिति के बारे में कहा कि, ‘मैं यह नहीं कहना चाहता कि हम बनाना [स्थिति] में हैं, लेकिन मैं यह कहूँगा कि जहाँ हम आज हैं वहाँ से बनाना [स्थिति] बहुत दूर नहीं है’।

मार्क्सवादी अर्थशास्त्री माइकल रॉबर्ट्स अपने आकलन को ‘बनाना’ जैसे शब्दों के पीछे नहीं छिपाते। रॉबर्ट्स ने ‘पूँजी पर लाभ’ की वैश्विक औसत दर का अध्ययन करते हुए यह पाया है कि 1997 से कभी-कभी मामूली चढ़ाव के साथ यह लगातार गिर रहा है। यह प्रवृत्ति 2008 के ग्रेट रिसेशन का कारण बने 2007-08 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद से बढ़ गई है। रॉबर्ट्स का तर्क है, तब से विश्व अर्थव्यवस्था एक ‘लंबी मंदी‘ की चपेट में है, जिसका कारण है कि 2019 में (महामारी से ठीक पहले) लाभ की दर ऐतिहासिक रूप से कम थी।

 

Yildiz Moran (Turkey), Mother, 1956.

यिल्डिज़ मोरन (तुर्की), माँ, 1956.

 

रॉबर्ट्स लिखते हैं कि, ‘लाभ से पूँजीवाद में निवेश होता है, और इसलिए गिरती हुई और कम लाभप्रदता के कारण उत्पादक निवेश में धीमी वृद्धि हुई है’। रॉबर्ट्स कहते हैं कि, पूँजीवादी संस्थाएँ उत्पादक गतिविधियों में निवेश से ध्यान हटाकर, ‘स्टॉक और बॉन्ड मार्केट्स और क्रिप्टोकरेंसी की काल्पनिक दुनिया’ में लीन हो गई हैं। वैसे, क्रिप्टोक्यूरेंसी बाज़ार इस साल 60% से भी अधिक नीचे आ चुका है। उत्तरी गोलार्ध के देशों में घटते मुनाफ़ों ने पूँजीपतियों को दक्षिणी गोलार्ध के देशों में मुनाफ़े की तलाश करने और उनके वित्तीय और राजनीतिक आधिपत्य के लिए ख़तरनाक किसी भी देश (विशेषकर चीन और रूस) को, ज़रूरत पड़ने पर सैन्य बल के सहारे, पछाड़ देने के लिए प्रेरित किया है।

भयावह मुद्रास्फीति है, लेकिन मुद्रास्फीति इससे कहीं गहरी समस्या का केवल एक लक्षण है, उसका कारण नहीं। वह समस्या केवल यूक्रेन युद्ध या महामारी नहीं है, बल्कि कुछ ऐसी है जिसकी पुष्टि आँकड़े तो करते हैं लेकिन प्रेस कॉन्फ़्रेंसों में इससे इनकार किया जाता है: समस्या यह है कि, एक दीर्घकालिक अवसाद में डूबी हुई पूँजीवादी व्यवस्था, ख़ुद को ठीक नहीं कर सकती है। इस साल के अंत में ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से जारी होने वाली नोटबुक नं. 4, जिसे अर्थशास्त्री सुंगुर सावरन और ई. अहमत तोनक ने लिखा है, इन बिंदुओं को बहुत स्पष्ट रूप से स्थापित करेगी।

 

Aboudia (Côte d’Ivoire), Untitled, 2013.

अबौडिया (कोटे डी आइवर), शीर्षक रहित, 2013.

 

 

अभी के लिए, पूँजीवादी आर्थिक सिद्धांत इस धारणा से शुरू होता है कि आर्थिक संकट, जैसे कि मुद्रास्फीति संकट, से निपटने का कोई भी प्रयास ऐसा नहीं होना चाहिए कि वह, जैसा कि जॉन मेनार्ड कीन्स ने 1923 में लिखा था, ‘किराएदार को निराश करे’। धनवान बॉन्डधारक और प्रमुख पूँजीवादी संस्थान उत्तरी गोलार्ध के देशों की नीति को नियंत्रित करते हैं ताकि उनके धन का मूल्य -चंद लोगों के क़ब्ज़े में पड़े खरबों डॉलर – सुरक्षित रहे। जैसा कि कीन्स ने लगभग सौ साल पहले लिखा था, उन्हें निराश नहीं किया जा सकता।

अमेरिका और यूरोज़ोन द्वारा संचालित मुद्रास्फीति विरोधी नीतियाँ उनके अपने देशों में, और क़र्ज़ में डूबे दक्षिणी गोलार्ध के देशों में तो निश्चित रूप से, श्रमिक वर्ग के बोझ को कम नहीं करने वालीं। अमेरिकी फ़ेडरल रिज़र्व के अध्यक्ष जेरोम पॉवेल ने स्वीकार किया कि उनकी मौद्रिक नीति ‘कुछ दर्द देगी’, लेकिन पूरी आबादी को नहीं। इससे भी ज़्यादा खुलकर, अमेज़ॅन के जेफ़ बेजोस ने ट्वीट किया कि ‘मुद्रास्फीति एक प्रतिगामी कर (टैक्स) है जो सबसे कम संपन्न [वर्ग] को सबसे ज़्यादा नुकसान पहुँचाता है’। उत्तरी अटलांटिक में बढ़ती ब्याज दरें न केवल उस क्षेत्र के आम लोगों के लिए धन को और अधिक महंगा बना रही हैं, बल्कि दक्षिणी गोलार्ध के देशों के लिए ऋण भुगतान हेतु डॉलर में उधार लेना लगभग असंभव बना रही हैं। ब्याज दरें बढ़ाना और श्रम बाज़ार को कड़ा (टाइट) करना श्रमिक वर्ग और विकासशील देशों पर सीधा हमला है।

ऐसा नहीं है कि उत्तरी गोलार्ध की देशों की सरकारों द्वारा छेड़े गए वर्ग युद्ध का हल नहीं किया जा सकता। मौजूदा नीतियों के बजाए दूसरी नीतियाँ संभव हैं; उनमें से कुछ नीचे सूचीबद्ध हैं:

1) वैश्विक अमीरों पर टैक्स लगाओ। दुनिया में 2,668 अरबपति हैं जिनकी कुल धन राशि 12.7 ट्रिलियन डॉलर है; अवैध टैक्स स्वर्गों में जो पैसा उन्होंने छिपा रखा है, वह लगभग 40 ट्रिलियन डॉलर है। इस धन को उत्पादक सामाजिक उपयोग में लाया जा सकता है। जैसा कि ऑक्सफ़ैम ने बताया है कि, सबसे अमीर दस लोगों के पास 3.1 अरब लोगों (दुनिया की 40% आबादी) से अधिक संपत्ति है।

2) बड़े निगम, जिनका मुनाफ़ा कल्पना से परे जा चुका है, उनपर टैक्स लगाओ। अमेरिकी कॉर्पोरेट मुनाफ़े में 37% की वृद्धि हुई है, यानी मुद्रास्फीति और मुआवज़े में हो रही वृद्धि से बहुत ज़्यादा। प्रमुख वित्तीय सेवा कंपनी मॉर्गन स्टेनली की मुख्य अमेरिकी अर्थशास्त्री एलेन ज़ेंटनर का तर्क है कि, लंबे समय के डिप्रेशन के दौरान, संयुक्त राज्य अमेरिका में मज़दूर वर्ग द्वारा अर्जित सकल घरेलू उत्पाद के हिस्से में ‘अभूतपूर्व’ गिरावट आई है। उन्होंने न्यायसंगत लाभ-मज़दूरी संतुलन पर लौटने का आह्वान किया है।

3) इस सामाजिक धन का उपयोग सामाजिक ख़र्च बढ़ाने के लिए करें, जैसे कि भुखमरी और निरक्षरता को समाप्त करने के लिए और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों के साथ-साथ सार्वजनिक परिवहन के ग़ैर-कार्बन रूपों का निर्माण करने के लिए।

4) उन वस्तुओं के लिए मूल्य नियंत्रण के तरीक़े स्थापित करें, जो विशेष रूप से मुद्रास्फीति को बढ़ाती हैं – जैसे कि भोजन, उर्वरक, ईंधन और दवाओं की क़ीमतें।

 

 

महान बेजन लेखक जॉर्ज लैमिंग (1927–2022) हाल ही में हमें छोड़ कर चले गए। अपने 1966 के एक निबंध, ‘द वेस्ट इंडियन पीपल’ में, लैमिंग ने कहा था कि, ‘हमारे भविष्य का ढाँचा न केवल अधूरा है; [बल्कि अभी तो] मचान ही मुश्किल से ऊपर गया है’। यह एक ऐसे प्रतिभावान दार्शनिक का शक्तिशाली विचार था, जिन्होंने यह उम्मीद की थी कि कैरिबियन, वेस्ट इंडीज़ में उनका घर एक संप्रभु क्षेत्र में बदला जाएगा जो कि अपने लोगों को बड़ी समस्याओं से छुटकारा दिला सकेगा। पर ऐसा नहीं हुआ। अजीब है कि, आईएमएफ़ की जॉर्जीवा-किनोवा ने हाल के अपने एक लेख में उनकी इस पंक्ति को उद्धृत किया, जहाँ वो इस क्षेत्र को आईएमएफ़ के साथ हाथ मिलाने का मामला पेश कर रही हैं। ऐसा हो सकता है कि जॉर्जीवा-किनोवा और उनके स्टाफ़ ने लैमिंग के पूरे भाषण को नहीं पढ़ा होगा, क्योंकि यह पैराग्राफ़ आज भी उतना ही शिक्षाप्रद है जितना कि 1966 में रहा होगा:

यहाँ, मेरा मानना ​​है, इस हॉल में अर्थशास्त्रियों की एक दुर्जेय रेजीमेंट [उपस्थित] है। वे जीवित रहने के आँकड़े सिखाते हैं। वे स्वतंत्रता की सापेक्ष क़ीमत के बारे में अनुमान लगाते हैं और चेतावनी देते हैं … [मैं] बस यही चाहूँगा कि आप एक साधारण बारबेडियन कामकाजी व्यक्ति की कहानी को याद रखें। जब उससे एक अन्य वेस्ट इंडियन ने पूछा, जिसे उसने लगभग दस सालों से नहीं देखा था, ‘और चीज़ें कैसी हैं?’, तो उसने जवाब दिया: ‘चारागाह हरा है, लेकिन उन्होंने मुझे एक छोटी रस्सी पर बाँध दिया है’।

स्नेह-सहित,

विजय।