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Ryuki Yamamoto (Japan), Chaos - Spin, 2019.

रयुकी यामामोटो (जापान), अस्थिर-घुमाव, 2019.

 

प्यारे दोस्तों,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।

नये साल की शुरुआत के साथ, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा 11 मार्च 2020 को कोविड-19 -जिससे आधिकारिक तौर पर लगभग 55 लाख लोगों की मृत्यु हो चुकी है- को एक महामारी घोषित किए हुए दो साल होने वाले हैं। डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक डॉ. टेड्रोस अदनोम घेब्रेयसस ने कहा है कि नये वेरीयंट की वजह से ‘नये मामलों की सुनामी’ आ गई है। सबसे ज़्यादा मृत्यु दर वाला देश है संयुक्त राज्य अमेरिका, जहाँ पर अभी तक 8,47,000 से अधिक लोगों की इस बीमारी के कारण मौत हो गई है; इसके बाद ब्राज़ील और भारत में लगभग क्रमशः 6,20,000 और 4,82,000 मौतें हुई हैं। ये तीनों देश इस बीमारी से तबाह हो चुके हैं। इन तीनों देशों का राजनीतिक नेतृत्व संक्रमण चक्र को तोड़ने के पर्याप्त उपाय करने में विफल रहा और इसके बजाय जनता को वैज्ञानिक-विरोधी सलाह देता रहा, जिसके कारण इन देशों की जनता को सूचना के अभाव और अपेक्षाकृत जर्जर स्वास्थ्य देखभाल सिस्टम दोनों की मार झेलनी पड़ी। 

फ़रवरी और मार्च 2020 में जब चीन के रोग नियंत्रण केंद्र द्वारा उनके संयुक्त राज्य अमेरिकी समकक्ष को वायरस के फैलने की ख़बर दे दी गई थी, तब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने वाशिंगटन पोस्ट के रिपोर्टर बॉब वुडवर्ड के सामने कहा था कि ‘मैं इसे कम करके दिखाना चाहता था। मैं अभी भी इसे कम करके दिखाना चाहता हूँ, क्योंकि मैं कोई दहशत पैदा नहीं करना चाहता’। चेतावनियों के बावजूद ट्रम्प और उनके स्वास्थ्य सचिव एलेक्स अज़ार क्रूज जहाज़ और विमान के ज़रिये अमेरिकी धरती पर कोविड-19 को आने से रोकने की तैयारी करने में पूरी तरह से विफल रहे। 

ऐसा नहीं है कि जो बाइडेन, जो कि ट्रम्प के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति बने, ने वैश्विक महामारी का प्रबंधन बहुत बेहतर ढंग से किया है। जब अमेरिका के फ़ूड एंड ड्रग अड्मिनिस्ट्रेशन ने अप्रैल 2021 में जॉनसन एंड जॉनसन द्वारा निर्मित वैक्सिन के उपयोग पर रोक लगाई तो इससे देश में वैक्सीन विरोधी भावना बढ़ी; बाइडेन के व्हाइट हाउस और रोग नियंत्रण केंद्र के बीच मास्क के उपयोग को लेकर भ्रम होने के कारण भी देश में अराजकता फैली। ट्रम्प के समर्थकों और उदारवादियों के बीच गहरी राजनीतिक दुश्मनी और रोज़ कमाने-खाने वालों के प्रति सामान्य उपेक्षा और सामाजिक सुरक्षा तंत्र की कमी ने अमेरिका के सांस्कृतिक विभाजन को और गहरा कर दिया।

 

Carlos Amorales (Mexico), The Cursed Village (still), 2017.

कार्लोस अमोरालेस (मेक्सिको), अभिशप्त गाँव (स्थिर चित्र), 2017.

 

संयुक्त राज्य अमेरिका की नीति उसके क़रीबी सहयोगियों ब्राज़ील और भारत ने भी अपनाई। ब्राज़ील के राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो ने वायरस की गंभीरता का मखौल किया, डब्ल्यूएचओ के साधारण दिशानिर्देशों (जैसे मास्क लगाना, कॉंट्रैक्ट ट्रेसिंग, और फिर टीकाकरण) को मानने से इंकार किया, और नरसंहार की नीति अपनाई और देश के कुछ हिस्सों -विशेष रूप से अमेज़न में- स्वच्छ जल वितरण, जो कि इस बीमारी के प्रसार को रोकने के लिए आवश्यक था, के लिए फ़ंड देने से मना कर दिया। यहाँ ‘नरसंहार’ शब्द का प्रयोग ऐसे ही नहीं किया गया है। ब्राज़ील के सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस गिलमार मेंडेस दो बार इस शब्द का इस्तेमाल कर बोल्सोनारो को फटकार लगा चुके हैं। एक बार मई 2020 में और फिर जुलाई 2020 में; मई 2020 में, न्यायमूर्ति मेंडेस ने बोल्सोनारो पर ‘स्वास्थ्य देखभाल के प्रबंधन में नरसंहार की नीति’ लागू करने का आरोप लगाया था।

भारत में, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने डब्ल्यूएचओ की सलाह को नज़रअंदाज़ कर बिना तैयारी के लॉकडाउन लगा दिया, और फिर बुनियादी चिकित्सा आपूर्ति (और ऑक्सीजन) का प्रावधान करने में चिकित्सा कर्मियों -विशेष रूप से सार्वजनिक स्वास्थ्य (आशा) वर्करों- की ठीक से मदद करने में विफल रहे। इसके बजाय, उन्होंने रोग की गम्भीरता पर अवैज्ञानिक दृष्टिकोण फैलाते हुए जनता से थालियाँ बजाने और प्रार्थना करने को कहा ताकि इनकी आवाज़ से वायरस भ्रमित होकर चला जाएगा। इस दौरान, प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने चुनाव प्रचार की जनसभाएँ की, और कुम्भ जैसे बड़े धार्मिक त्योहारों को मनाने की अनुमति भी दी गई, जिसकी वजह से भी वायरस को फैलने में मदद मिली।

बोल्सोनारो और मोदी जैसे नेताओं पर हुए अध्ययन दिखाते हैं कि वे केवल वैज्ञानिक तरीक़े से संकट का प्रबंधन करने में विफल नहीं रहे, बल्कि उन्होंने ‘सांस्कृतिक विभाजनों को भड़काया और आपदा को अपनी शक्तियों के विस्तार और/या सरकार के विरोधियों के प्रति असहिष्णु दृष्टिकोण अपनाने के अवसर की तरह इस्तेमाल किया’।

 

Tarsila do Amaral (Brazil), Carnival in Madureira, 1924.

तरसिला दो अमरल (ब्राज़ील), मदुरैरा में त्योहार, 1924.

 

संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत जैसे देश -और कुछ हद तक ब्राज़ील भी- इसलिए बुरी तरह प्रभावित हुए क्योंकि उनके सार्वजनिक स्वास्थ्य के बुनियादी ढाँचे कमज़ोर हो गए हैं और उनकी निजी स्वास्थ्य व्यवस्था इस प्रकार के संकट का प्रबंधन करने में सक्षम नहीं थी। हाल में, ओमिक्रॉन वेरीयंट के प्रसार के दौरान अमेरिका का रोग नियंत्रण केंद्र जनता को यह कहकर टीकाकरण करवाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है कि टीका मुफ़्त है लेकिन, ‘अस्पताल में रहना महँगा पड़ सकता है’। नेशनल नर्स यूनाइटेड की प्रमुख बोनी कैस्टिलो ने कहा कि ‘कल्पना कीजिए एक ऐसे नर्क की जहाँ स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के बारे में लोगों को धमकाना ही अपने आप में सार्वजनिक स्वास्थ्य रणनीति है। ओह रुकिए, हमें कल्पना करने की ज़रूरत नहीं है…’।

2009 में, डब्ल्यूएचओ के तत्कालीन महानिदेशक डॉ. मार्गरेट चान ने कहा था कि ‘स्वास्थ्य देखभाल के लिए उपयोग शुल्क इसलिए रखा गया था ताकि लागत ख़र्च वसूल किया जा सके और स्वास्थ्य सेवाओं के अत्यधिक उपयोग व देखभाल की अधिक खपत को हतोत्साहित किया जा सके। ऐसा नहीं हुआ। इसके बजाय, उपयोग शुल्क ने ग़रीबों को दंडित किया’। उपयोग शुल्क, या सह-भुगतान, और सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल की कमी के कारण निजी स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र को किए जाने वाले भुगतान ग़रीबों को ‘दंडित’ करने के तरीक़े हैं। जेब से किए जाने वाले चिकित्सीय ख़र्च में भारत -जो कि वर्तमान में कोविड-19 से मरने वालों की संख्या में तीसरे स्थान पर है- का स्थान सबसे पहला है।

अमेरिका की नर्सेस यूनियन की प्रमुख के शब्द दुनिया भर के डॉक्टर और नर्सों के शब्दों से मेल खाते हैं। पिछले साल, जुंडिया, ब्राज़ील के साओ विसेंट हॉस्पिटल की एक नर्स, जुलियाना रोड्रिग्स ने मुझे बताया था कि वे ‘डर के साथ काम करते हैं’, यह बताते हुए कि काम की शर्तें भयावह हैं, उपकरण अपर्याप्त हैं, और काम के घंटे लंबे। उन्होंने कहा कि स्वास्थ्यकर्मी ‘अपना काम प्यार, समर्पण, इंसानों की देखभाल की भावना के साथ करते हैं’। ‘एस्सेंशीयल वर्कर्स’ की तमाम शुरुआती बातों के बावजूद, स्वास्थ्य कर्मियों ने देखा कि उनके काम करने की परिस्थितियों में कोई बदलाव नहीं हुआ है। यही कारण है कि पूरी दुनिया में हड़तालें की जा रही हैं, जैसे कि हाल ही में दिल्ली में डॉक्टरों ने हड़ताल किया।

 

Valery Shchekoldin (USSR), Workplace Gymnastics, 1981.

वैलेरी शेकोल्डिन (यूएसएसआर), कार्यस्थल जिम्नास्टिक, 1981.

 

संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्राज़ील, और भारत जैसे देशों द्वारा कोविड महामारी का ग़लत प्रबंधन उन सभी संधियों के मानवाधिकार उल्लंघन का मामला है जिन संधियों के ये सभी देश हस्ताक्षरकर्ता हैं। ये सभी देश डब्ल्यूएचओ के सदस्य हैं, जिसका 1946 में लिखा गया संविधान कहता है कि ‘स्वास्थ्य का उच्चतम प्राप्य मानक प्रत्येक मनुष्य का मौलिक अधिकार है’। इसके दो साल बाद, मानवाधिकार पर अंतर्राष्ट्रीय घोषणा (1948) के अनुच्छेद 25, ने ज़ोर देकर कहा कि ‘भोजन, कपड़े, आवास, चिकित्सा देखभाल और आवश्यक सामाजिक सेवाओं, तथा बेरोज़गारी, बीमारी, विकलांगता, विधवा होने, बुढ़ापे, या व्यक्ति के नियंत्रण से बाहर की अन्य परिस्थितियों में आजीविका न कमा सकने के हालत में सुरक्षा के अधिकार के सहित हर व्यक्ति को ऐसे जीवन स्तर का अधिकार है जो कि उस व्यक्ति और उसके परिवार के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए पर्याप्त हो’। घोषणा में लिखी हुई अंग्रेज़ी की भाषा भले ही पुरानी है, जिसमें ‘हिम्सेल्फ़’, ‘हिज़ फ़ैमिली’, ‘हिज़’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, लेकिन घोषणा की बात एकदम स्पष्ट है। भले ही घोषणा एक ग़ैर-बाध्यकारी संधि है, लेकिन यह एक महत्वपूर्ण मानक निर्धारित करती है, जिसका विश्व की प्रमुख शक्तियाँ नियमित रूप से उल्लंघन करती हैं।

1978 में, अल्मा-अता (यूएसएसआर) में, इनमें से प्रत्येक देश ने अपनी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के बुनियादी ढाँचे को मज़बूत करने का संकल्प लिया था, जो वे न केवल करने में विफल रहे, बल्कि जिसे उन्होंने स्वास्थ्य देखभाल का व्यापक निजीकरण कर व्यवस्थित रूप कमज़ोर किया है। कमज़ोर सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणालिययाँ ही वे कारण थीं कि ये पूँजीवादी देश मौजूदा सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट को संभालने में चूक गए -जबकि इसके विपरीत इन देशों से कम संसाधनों वाले क्यूबा, ​​केरल और वेनेज़ुएला संक्रमण चक्र को तोड़ने में बहुत अधिक सफल रहे।

अंत में, साल 2000 में, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र समिति में, संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों ने एक दस्तावेज़ अपनाया था, जिसके अनुसार ‘स्वास्थ्य एक मौलिक मानवाधिकार है, जो कि अन्य मानवाधिकारों के प्रयोग के लिए अपरिहार्य है। हर इंसान गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए ज़रूरी स्वास्थ्य के उच्चतम प्राप्य मानक का आनंद लेने का हक़दार है’।

दुनिया के सबसे बड़े देशों में ज़हरीली संस्कृति उभरी है, जहाँ आम लोगों की सामान्य रूप से अवहेलना की जाती है, और अंतर्राष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन किया जाता है। ‘लोकतंत्र’ और ‘मानवाधिकार’ जैसे शब्दों पर फिर से पुनर्विचार करने की ज़रूरत है; ये शब्द इनके संकीर्ण उपयोग के साथ खोखले हो गए हैं।

न्यू फ़्रेम में हमारे सहयोगियों ने नये साल की शुरुआत पर एक अहम सम्पादकीय लेख लिखा, जिसमें उन्होंने आहवान किया कि हम इन बदनाम सरकारों के ख़िलाफ़ मज़बूती से आवाज़ उठाएँ और उम्मीद को फिर से क़ायम करने के लिए एक नयी परियोजना शुरू करें। इसके बाद उन्होंने लिखा है कि: ‘इसमें कुछ भी यूटोपिया नहीं है। प्रगतिशील सरकारों के तहत तेज़ सामाजिक प्रगति के बहुत से उदाहरण हैं -हाँ, सभी की अपनी सीमाएँ और विरोधाभास हैं। लेकिन इसके लिए हमेशा जन संगठन और लामबंदी की आवश्यकता होती है, ताकि बदलाव का राजनीतिक साधन बनाया जा सके, ज़मीन से राजनीति को नवीनीकृत और अनुशासित करते हुए, और घरेलू अभिजात वर्ग और साम्राज्यवाद -विशेष रूप से अमेरिकी विदेश नीति के गुप्त और प्रत्यक्ष हमलों- से इसका बचाव किया जा सके’।

स्नेह सहित,

विजय।

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