एक ख़्वाब में था जब यह लिखा मैंने। माफ़ कीजिएगा अगर भटक जाऊँ। चार हमसफ़र का गीत शुरू होता है सहेल में फ़क़ीरों की मौजूदगी में। पैंडॉरा आती है उत्तर से। हार्मटन आता है और तूफ़ानों और युद्धों को बुलाता है, 1799, उमर राशिद (संयुक्त राज्य अमेरिका, यूएस), 2023.

प्यारे दोस्तो,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।

डॉनल्ड ट्रम्प ने वाइट हाउस में धमाकेदार वापसी की है। उसके स्टाफ़ ने उसके टेबल पर एक के बाद एक इग्ज़ेक्युटिव ऑर्डर रखे जिन पर उसने बड़े ज़ोरशोर से हस्ताक्षर किए। फिर डेनमार्क, पनामा और कोलम्बिया की सरकारों को फ़ोन लगा कर बड़ी-बड़ी माँगें रख डालीं जो उसके हिसाब से संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) का हक़ है।

ट्रम्प की इतिहास की समझ के मुताबिक़ यूएस एक बार फिर अपने स्वर्ण युग में प्रवेश कर चुका है। ट्रम्प यूएस की घबराहट का प्रतीक बन चुका है। उसका ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ का नारा देश की संभावित बर्बादी से जुड़ी चिंता को छिपा नहीं सकता: उसका कहना है ‘अमेरिका को फिर से महान बनाना होगा क्योंकि यह अब महान नहीं रहा और इसे महान तो होना ही चाहिए और मैं इसे महान बनाऊँगा’। उसके समर्थक जानते हैं कि वह कम-से-कम यूएस के पतन का विश्लेषण ईमानदारी से कर रहा है। इनमें से कईयों को यह पतन अपने बैंक अकाउंटों में महसूस हो रहा है जिनमें इतनी भी रक़म नहीं कि वे अपने परिवारों को सही से पाल सकें, इन्हें यह पतन अपने इर्द-गिर्द के ढहते हुए ढाँचे में नज़र आ रहा है। ड्रग्स में डूबकर शायद वे इस दर्द को महसूस करने से बच जाएँ लेकिन नेपथ्य में जो अनिश्चितता का गीत बज रहा है उसका क्या, अब तो इनके भी सपनों की चमक फीकी पड़ने लगी है। यात्रियों को ले जा रहा एक हवाई जहाज़ सेना के हेलिकॉप्टर से टकरा जाता है और ट्रम्प वाइट हाउस में प्रेस के सामने इस हादसे की ज़िम्मेदारी डिवर्सिटी हाइअरिंग (पूर्वाग्रहों के आधार पर भेदभाव किए बिना लोगों को नौकरी देने की प्रक्रिया) पर डाल दी। उसने कहा हवाई ट्रैफ़िक कंट्रोलर का काम प्रतिभाशाली लोगों को दिया जाना चाहिए। लेकिन हादसे की रात जो व्यक्ति ड्यूटी पर था वो दो लोगों का काम कर रहा था। वजह? दशकों पहले रानल्ड रेगन ने 1981 में प्रफ़ेशनल एयर ट्रैफ़िक कंट्रोलरज़ ऑर्गनायज़ेशन (PATCO) की यूनियन की प्रामाणिकता ख़त्म कर दी थी जिसके बाद से धड़ल्ले से छटनी शुरू हुईं। ट्रम्प का ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ का नारा सबसे पहले रेगन ने दुनिया को दिया था।

सच्चाई कड़वी होती है। इसलिए कल्पना में रहना आसान लगता है। ट्रम्प वो जादूगर है जो इस कल्पना का फ़ायदा उठाता है। सब बर्बादी की ओर जा रहा है – इसलिए नहीं कि मज़दूर संगठनों पर हमले किए गए जिसके चलते मितव्ययिता की नीतियाँ लागू हो पायीं, या इसलिए नहीं कि तकनीक की दुनिया में चंद लोग बादशाह हो गए जिनके पास हद से ज़्यादा सामाजिक अधिशेष है और जो दशकों से उचित कर न देने पर अड़े हुए हैं। ट्रम्प की कल्पना बेढंगी है। वरना ट्रम्प ईलान मस्क को कैसे एक नए स्वर्ण युग की ओर ले जाने वाले वाहक के पद पर बैठा सकता था जो ख़ुद इस बर्बादी का प्रतीक है?

Le chemin de l’exil (निर्वासन की राह) चेरी चेरिन (डेमक्रैटिक रिपब्लिक ऑफ़ द कांगो), 2004.

इस सब में पागलपन ज़रूर है। लेकिन साम्राज्यवाद में हमेशा ही इस तरह का पागलपन रहा है। दोनों अमेरिका से लेकर चीन तक करोड़ों लोगों को सिर्फ़ इसलिए मार दिया गया या ग़ुलाम बना लिया गया ताकि दुनिया का छोटा सा हिस्सा – उत्तरी अटलांटिक – ख़ुद को अमीर तरीन बना सके। यह पागलपन ही तो है और जो सफल भी हुआ। बल्कि अब भी कुछ हद तक सफल हो रहा है। पूँजीवाद का नवउपनिवेशवादी ढाँचा बरकरार है। जब अफ़्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका या पसिफ़िक द्वीपों का कोई देश अपनी संप्रभुता स्थापित करने की किसी भी तरह की कोशिश करता है तो वो बुरी तरह कुचल दिया जाता है। तख़्तापलट, हत्याएँ, प्रतिबंध, संपदा की लूट – ये सब संप्रभुता हासिल करने की कोशिश को बर्बाद कर देने के तमाम उपायों में से कुछ हैं। यह नवउपनिवेशवादी ढाँचा मानवता के अंतर्राष्ट्रीय विभाजन के आधार पर टिका हुआ है: कुछ लोगों को अब भी लगता है कि वे दूसरों से बेहतर हैं। ट्राईकॉन्टिनेंटल में हमने अति-साम्राज्यवाद पर अपने एक शोध में दिखाया है कि उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) और उसके सहयोगी देश दुनिया के सैन्य खर्च के 74% के लिए ज़िम्मेदार हैं। जबकि चीन का हिस्सा 10% और रूस का 3% है। फिर भी कहा जाता है कि चीन और रूस ख़तरा हैं, न कि नाटो जिसका नेतृत्व यूएस कर रहा है और यह दुनिया का सबसे ख़तरनाक संगठन है। नाटो ने पूरे के पूरे देश तबाह कर दिए हैं (उदाहरण के लिए युगोस्लाविया, अफ़ग़ानिस्तान और लीबिया) और अब बड़ी लापरवाही से ऐसे देशों को धमका रहा है जिनके पास परमाणु हथियार हैं (चीन और रूस)। ट्रम्प चिल्ला रहा है:

हमें पनामा कनाल चाहिए!
हमें ग्रीनलैंड चाहिए!
इसे हम गुल्फ ऑफ़ अमेरिका का नाम देना चाहते हैं!

इन दावों पर किसी को हैरानी क्यों हो? पनामा 1821 से ग्रैंड कोलंबिया गणराज्य का हिस्सा था जब यह क्षेत्र सिमोन बलीवार (1783-1830) के नेतृत्व में स्पेन की राजशाही से आज़ाद हुआ। बीसवीं सदी की शुरुआत में अटलांटिक और प्रशांत महासागर के बीच समुद्री यात्रा का समाय कम करने के लिए पनामा के जलडमरुमध्य से होकर एक कनाल बनाने की चर्चा शुरू हुई, इसके दशकों बाद ग्रैंड कोलंबिया टूटकर आज के पनामा, वेनेज़ुएला, कोलंबिया और एक्वडॉर बन गया। 1903 में फ़्रांस और यूएस के इच्छा और यूएस जल सेना के हस्तक्षेप के बाद पनामा कोलंबिया से टूटकर अलग हो गया। पनामा की नई सरकार ने यूएस को पनामा कनाल ज़ोन दे दिया जिसका मतलब था 1903 से 1999 के बीच पनामा के जलडमरुमध्य पर पूरा नियंत्रण। 1999 में यूएस ने इसे पनामा को ‘लौटा’ दिया। याद रखने की बात है कि 1989 में जब सीआईए के पुराने सहयोगी मैन्वेल नॉरीएगा उन्हें खुश न रख पाया तो यूएस ने पनामा में घुसकर नॉरीएगा को गिरफ़्तार कर लिया और उसे मायऐमी, फ़्लोरिडा में जेल में रखा, 2017 में उसे पनामा सिटी में मरने के लिए रिहा कर दिया गया। पनामा के मौजूदा राष्ट्रपति होज़े मलिनो पहली बार गीएर्मो एंडरा के काल में सरकार का हिस्सा बने। जब 1998 में नॉरीएगा को फ़्लोरिडा ले जाया जा रहा था उसी वक़्त एक यूएस सैन्य अड्डे पर एंडरा को राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाई जा रही थी। ये लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि यूएस इनके देश को अपनी जाग़ीर मानता है। सिर्फ़ ट्रम्प ही पनामा कनाल नहीं ‘चाहता’; मोनरो डॉक्ट्रिन से लेकर आज तक यूएस का लैटिन अमेरिका से जो बर्ताव रहा है उसका पूरा इतिहास इस एक वाक्य में है: हमें पनामा कनाल चाहिए।

याददाश्त बहुत नाज़ुक चीज़ है। यह लगातार अर्द्धसत्यों और छिपाए गए तथ्यों से बनती-बिगड़ती रहती है। घटनाओं की सतह के नीचे वे संरचनाएँ होतीं हैं जो हमारे चीज़ों को देखने के नज़रिए को प्रभावित करती हैं। पश्चिमी भलमनसाहत और मूलनिवासियों की बर्बरता के उपनिवेशवादी पुराने विचार विवेचना के समय सतह पर आ जाते हैं।

क्यूबाई कॉफ़ीहाउस, हफ़िद अल-दरूबी (इराक़), 1975

यूएस और इसके सहयोगी देशों के इराक़ पर जंग छेड़ने के एक साल बाद 2004 में बीबीसी के ओयन बेनेट-जोंज़ ने संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफ़ी आनन का इंटर्व्यू किया। इस बातचीत में इराक़ के ख़िलाफ़ छेड़े गए युद्ध की भी चर्चा हुई:

ओयन बेनेट-जोंज़ (OBJ): तो आपको नहीं लगता कि युद्ध करने का कोई क़ानूनी अधिकार था?
कोफ़ी आनन (KA):
मैंने स्पष्ट कहा है कि यह सुरक्षा परिषद, यूएन चार्टर के मुताबिक़ नहीं था।
OBJ:
क्या यह ग़ैर-क़ानूनी था?
KA:
हाँ, अगर आप कहना चाहें।
OBJ:
क्या यह ग़ैर-क़ानूनी था?
KA:
हाँ, मैंने बताया है कि यह यूएन चार्टर के मुताबिक़ नहीं है। हमारे नज़रिए और यूएन चार्टर के नज़रिए से यह ग़ैर-क़ानूनी था।

अगर युद्ध ग़ैर-क़ानूनी था, एक ऐसा युद्ध जिसमें आक्रमण शामिल था, तो इस पर कोई कार्रवाई होनी चाहिए थी। यही तो 1945-46 के नुरम्बर्ग ट्रायब्यूनल का पूरा मक़सद था। उस युद्ध की वजह से जो अतिरिक्त मौतें हुईं उनका आँकड़ा अब आसानी से दस लाख से ज़्यादा हो चुका है, इसके अलावा लाखों लोग युद्ध की वजह से हुई तबाही से प्रभावित भी हुए। अगर इस युद्ध को एक आक्रमण की तरह देखा गया होता तो क्या इसका बिगुल फूँकने वाले (जॉर्ज डबल्यू बुश और टोनी ब्लेयर) हँसते-मुस्कुराते बढ़िया कपड़े पहने दुनिया भर में घूम सकते थे? उनके ख़िलाफ़ कभी भी अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय ने वॉरंट जारी नहीं किए और न ही इनके देशों को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में सुनवाई के लिए घसीटा गया। 2008 में बग़दाद में बुश को मुंतधर अल-ज़ैदी के जूतों का सामना ज़रूर करना पड़ा और 2012 में इराक़ युद्ध की जाँच के दौरान ब्लेयर को डेविड लॉली-वेकलीन ने अचानक ये कहते हुए चौंका दिया कि ‘इस आदमी को युद्ध अपराधों के लिए गिरफ़्तार किया जाना चाहिए’। लेकिन न बुश को वह जूता लगा और न ही ब्लेयर को गिरफ़्तार किया गया। अब ब्लेयर ने ख़ुद को शांति के वाहक में तब्दील कर लिया है और बुश अब एक बुज़ुर्ग राजनेता हो गए हैं।

शीर्षकहीन (एक लाल वृत्त), टेटसूया फ़ूकूशीमा (जापान), 2015.

न्यायमूर्ति रॉबर्ट जैक्सन ने 1945 में नुरम्बर्ग ट्रायब्यूनल में तीन घंटे के अपने शुरुआती वक्तव्य में कहा:

सभ्यता पूछती है कि क्या क़ानून इतना शिथिल पड़ चुका है कि इतने ज़रूरी पदों पर बैठे अपराधियों के व्यापक स्तर के अपराधों से निपट पाने में असह्य है। सभ्यता आपसे यह उम्मीद नहीं करती कि आप युद्ध को एक नामुमकिन बना दें। लेकिन सभ्यता को आपसे इतनी तवक्को ज़रूर है कि आपके क़ानूनी कदम अंतर्राष्ट्रीय क़ानून की ताक़तों, इसके नियमों, इसके निषेधों और सबसे अहम, इसके प्रतिबंधों को शांति की तरफ़ ला खड़ा करेंगे ताकि सभी देशों के शुभेच्छा रखने वाले आदमी और औरतें के पास ‘क़ानून के साए में किसी भी शख़्स की अनुमति के बिना जीने की अनुमति हो’।

न्यायमूर्ति जैक्सन ने रड्यार्ड किप्लिंग की कविता द ओल्ड इशू  [पुराना मसला] (1899) की एक पंक्ति उद्धृत की, यह कविता 40 के दशक में बहुत पढ़ी जाती थी। जैक्सन के शुरुआती वक्तव्य से दो साल पहले ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल ने हॉर्वर्ड में दिए अपने भाषण में इसी कविता को उद्धृत करते हुए कहा कि ‘सही और उचित क्या है इसके बारे में सामान्य विचार’ मौजूद हैं जो इंसानों को देते हैं ‘निष्पक्ष न्याय की एक मज़बूत भावना… या जैसा कि किप्लिन ने कहा: “क़ानून के साए में किसी भी शख़्स की अनुमति के बिना जीने की अनुमति हो”। चर्चिल की ‘सही और उचित’ की अवधारणा उसके दो दशक पुराने विचारों में स्पष्ट है जब उत्तरी इराक़ में कुर्द विद्रोह का सामना करते हुए उसने लिखा था कि वह ‘असभ्य क़बीलों पर ज़हरीली गैस से हमला करने के पूरी तरह पक्ष में’ था।

शहरी परिदृश्य, ज़ुबैदा आग़ा (पाकिस्तान), 1982.

नुरम्बर्ग के बारे में तो कई लोग जानते हैं लेकिन टोक्यो में हुए युद्ध अपराधों की सुनवाई के बारे में लोगों को कम पता है और इस पर ध्यान देना भी अहम होगा। टोक्यो में ट्रायब्यूनल ने उन सैन्य टुकड़ियों के अधिकारियों को सज़ा दी जिन्होंने अत्याचार किए थे। जनरल टोमोयूकी यामाशिता जापान की इम्पीरीयल सेना के चौदहवें आर्मी ग्रूप का कमांडर था जो मुख्यतः फ़िलीपीन्स में तैनात रहती थी। जनरल टोमोयूकी यामाशिता के आत्मसमर्पण के बाद उस पर आरोप लगा कि उसने अपने सैनिकों को आम नागरिकों और युद्ध के क़ैदियों पर अत्याचार करने दिया। उसे 23 फ़रवरी 1946 को मौत की सज़ा दी गयी। किसी ने यह आरोप नहीं लगाया था कि जनरल टोमोयूकी यामाशिता ने ख़ुद उन पर अत्याचार किया था: ‘कमांड लायबिलिटी’ (उसके अधिकार क्षेत्र में हुए अपराध) का आरोप साबित हुआ था। 1970 में नुरम्बर्ग के मुख्य सैन्य वक़ील टेल्फ़र्ड टेलर ने कहा ‘जनरल यामाशिता के ख़िलाफ़ यह आरोप नहीं था कि उसने इस बर्बरता पर मुहर लगाई, और यह भी नहीं कि उसने इसके आदेश दिए थे तथा इस बात के भी कोई सबूत नहीं कि उसे इनके बारे में पता था, बस उसकी जानकारी इतनी ही रही होगी जब उसने इसकी भयावहता को जानकर हस्तक्षेप किया’। उसे फाँसी दी गई क्योंकि टोक्यो ट्रायब्यूनल ने माना कि जनरल यामाशिता ‘स्थिति के अनुरूप अपने सैनिकों पर उचित नियंत्रण रखने में असफल रहा’। टेलर ने अपनी किताब नुरम्बर्ग और वियतनाम: एन अमेरिकन ट्रैजेडी [नुरम्बर्ग और वियतनाम: एक अमरीकी त्रासदी], जिसे अब भुला दिया गया है, में लिखा कि उसने सिर्फ़ यूएस राजनेताओं और जनरलों पर मुक़दमा चलाने की ही माँग नहीं की थी बल्कि यह भी माँग की थी कि उन यूएस हवाई सैनिकों पर भी केस चले जिन्होंने उत्तरी वियतनाम में नागरिकों पर बमबारी की थी। क्योंकि उन्होंने नुरम्बर्ग दौर में ‘आक्रामक युद्ध’ में भागीदारी की थी।

शीर्षकहीन, Été au Gaza (ग़ज़ा में गर्मियाँ) शृंखला में से, मोहम्मद अल-हवजरी (ग़ज़ा, अधिकृत फ़िलिस्तीनी क्षेत्र), 2017.

जनवरी के मध्य में इज़राइली जनरल ओडेड बास्युक यूके के रक्षा मंत्रालय और रॉयल यूनाइटेड सर्विसेज़ इन्स्टिटूट में मुलाक़ात के लिए जा रहे थे और रास्ते में ही उसे Declassified UK के ऐलेक्स मोरिस का सामना करना पड़ा। जनरल बास्युक की देखरेख में ही फ़िलिस्तीनियों का जनसंहार हुआ है और अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय में इसके ख़िलाफ़ युद्ध अपराधों के लिए जाँच चल रही है। फिर भी वह लंदन की सड़कों पर घूम रहा था और यूके सेना के बड़े अधिकारियों से मिलने जा रहा था। इज़राएल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहु के ख़िलाफ़ ICC के वॉरंट को पोलैंड और यूएस ने दरकिनार कर दिया। ऐसा करके इन्होंने नुरम्बर्ग और टोक्यो ट्रायब्यूनल के काम को मिट्टी में मिला दिया। दुर्भाग्यवश यूनाइटेड नेशनस प्रिन्सिपलस टू कॉम्बैट इम्प्यूनिटी (2005) [दंड मुक्ति से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांत] क़ानूनन बाध्य नहीं हैं।

दुनिया के कुछ हिस्सों में सड़कों पर लहू बहेगा। और दूसरे हिस्सों में जश्न मनेंगे।

1965 में भारत और पाकिस्तान युद्ध के दौरान फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने ‘ब्लैकआउट’ नाम की नज़्म लिखी थी:

जब से बे-नूर हुई हैं शमएँ
ख़ाक में ढूँढता फिरता हूँ न जाने किस जा

खो गई हैं मिरी दोनों आँखें
तुम जो वाक़िफ़ हो बताओ कोई पहचान मिरी

इस तरह है कि हर इक रग में उतर आया है
मौज-दर-मौज किसी ज़हर का क़ातिल दरिया

तेरा अरमान, तिरी याद लिए जान मिरी
जाने किस मौज में ग़लताँ है कहाँ दिल मेरा

एक पल ठहरो कि उस पार किसी दुनिया से
बर्क़ आए मिरी जानिब यद-ए-बैज़ा ले कर

और मिरी आँखों के गुम-गश्ता गुहर
जाम-ए-ज़ुल्मत से सियह-मस्त

नई आँखों के शब-ताब गुहर
लौटा दे।

आओ हम अपने खोए हुए मोती ढूँढ लाएँ।

सस्नेह,

विजय प्रसाद