आईएमएफ ने रोका अफ्रीका के विकास का रास्ता : इक्कीसवाँ न्यूज़लेटर (2025)
पहले अफ्रीका को औपनिवेशिक ताक़तों ने लूटा और अब यह आईएमएफ द्वारा सरकारी ख़र्च में कटौती का दबाव, भारी क़र्ज़ और अल्पविकास का दंश झेल रहा है।

इस न्यूज़लेटर में प्रस्तुत चित्र ट्राईकॉन्टिनेंटल के कला विभाग ने मई के डोसियर Africa’s Faustian Bargain with the International Monetary Fund के लिए तैयार किए हैं।
प्यारे दोस्तो,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
साल 2025 की शुरुआत में सूडान का ऋण-जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) अनुपात 252% के स्तर पर काफ़ी चिंताजनक था। सरल शब्दों में इसका मतलब है कि सूडान का कुल ऋण उसके पूरे सालाना आर्थिक उत्पादन से ढाई गुना था। सूडान की इतनी ख़राब आर्थिक स्थिति का कारण समझ पाना मुश्किल नहीं है: जैसा कि हमने अपने पिछले न्यूज़लेटर में बताया था सूडान दशकों से लड़ाई व टकराव झेल रहा है, जिसकी वजह से यहाँ किसी भी तरह का आर्थिक विकास या वित्तीय स्थिरता नहीं आ पाई है। संसाधनों के नज़रिए से दुनिया के सबसे अमीर देशों में से एक होने के बावजूद सूडान घरेलू आय और संपत्ति के हिसाब से दुनिया के सबसे ग़रीब देशों में आता है। अफ्रीकी महाद्वीप में जो कुछ चल रहा है, सूडान उसका एक प्रतीक है। 2022 तक उप-सहारा क्षेत्र के देशों का ऋण-जीडीपी औसत अनुपात 60% था, 2013 के 30% के आँकड़े से यह दोगुना हो चुका था। ऋण में इतना उछाल अपने-आप में चौंका देने वाली घटना है।
अफ्रीकी महाद्वीप का कुल ऋण एक खरब डॉलर से ज़्यादा है, जिसे चुकाने का सालाना ख़र्च है 163 अरब डॉलर। 2023 में विकासशील देशों का कुल ऋण 11.4 खरब डॉलर पहुँच गया था, जबकि 2004 में यह 2.6 खरब डॉलर था। ऋण में आए इस उछाल ने दुनिया के अड़सठ कम आय वाले देशों में से छत्तीस देशों में ऋण संकट पैदा कर दिया। यह निरंतर बढ़ता ऋण मुख्यतः दो तरह से विकास पर असर डालता है:
- ऋण न चुका पाने का ख़तरा बढ़ने की वजह से और क़र्ज़ लेना ज़्यादा महँगा हो जाता है और अधिकतर कमर्शियल उधार देने वालों के ज़रिए ही ऋण मिल माता है। अफ्रीका के कुल विदेशी ऋण का 43% अब कमर्शियल क़र्ज़ है – यह आँकड़ा साल 2000 के आँकड़े के दोगुने से ज़्यादा है।
- चूँकि क़र्ज़ चुकाने में बहुत ख़र्च होता है इसलिए राजकोषीय लचीलापन सीमित हो जाता है जिसकी वजह से शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, औद्योगिक विकास और इंफ़्रास्ट्रक्चर पर सरकारी ख़र्च में कटौती करनी पड़ती है। कई अफ्रीकी देशों में इस वजह से बहुत बड़े स्तर पर सरकारी ख़र्च में कटौती हुई है: 2022 में बाईस देशों ने स्वास्थ्य सेवाओं से ज़्यादा ख़र्च क़र्ज़ चुकाने पर किया और छह देशों ने शिक्षा पर खर्च से ज़्यादा ऋण चुकाया। अगर किसी देश पर ऋण का बोझ ज़्यादा होगा तो ज़ाहिर है कि उस देश में जन सेवाओं पर सरकारी ख़र्च में कमी आएगी और नतीजतन अर्थव्यवस्था में संकुचन होगा।
कुछ ही अफ्रीकी देश ख़ुद को इस संकट से बचा पाए हैं, इसकी बड़ी वजह है इन देशों की कम आबादी और क़ीमती चीज़ों का निर्यात। ऐसा ही एक देश है गिनी, जिसकी आबादी है 18 लाख, इसकी सालाना आय है 5.3 अरब डॉलर (इसका अधिकांश भाग कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के निर्यात से आता है) और इसका ऋण-जीडीपी अनुपात है 31.3%। एक और देश है बोत्स्वाना जिसकी आबादी है 25 लाख, हीरों के निर्यात से होने वाली प्रतिवर्ष आय है 5.33 अरब डॉलर और ऋण-जीडीपी अनुपात है 27.4%।

अफ्रीका के आर्थिक संकट पर डोसियर की शृंखला में Africa’s Faustian Bargain with the International Monetary Fund (मई 2025) [अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से अपनी आत्मा का सौदा करता अफ्रीका] तीसरा डोसियर है (पहला था अप्रैल 2023 में आया Life or Debt: The Stranglehold of Neocolonialism and Africa’s Search for Alternatives और उसके बाद दूसरा नवंबर 2024 में आया How Neoliberalism Has Wielded ‘Corruption’ to Privatise Life in Africa)। तीन भाग वाली यह शृंखला वरिष्ठ फेलो ग्रीव चेलवा और मैंने मिलकर लिखी है। इस साल Inkani Books इस शृंखला को विस्तृत रूप में प्रकाशित करेगा।
यह शृंखला निम्न मत पेश करती है:
- औपनिवेशिक युग ने अफ्रीकी महाद्वीप को उसकी संपत्ति और उसके लोगों — दोनों से वंचित कर दिया। यहाँ से लाखों लोगों को बंदी बनाकर अमेरिका ले जाया गया और क्रूरतापूर्वक उन्हें ग़ुलाम बनाया गया। 1960 और 1970 के दशक में जब अफ्रीकी देशों ने अपनी स्वतंत्रता प्राप्त की, तब तक उनके पास न तो राजकीय संसाधन थे और न ही निजी क्षेत्र के पास वह संचित पूंजी थी जो बड़े स्तर के बुनियादी ढांचे के निर्माण और औद्योगीकरण के लिए आवश्यक होती।
- जो अफ्रीकी देश घरेलू बचत इकट्ठा करने और समाजवादी गुट से बड़े बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं — जैसे बांध और बिजली प्रणाली, जिन्हें औपनिवेशिक शासकों द्वारा जानबूझकर उपेक्षित किया गया था — के लिए ऋण लेने का प्रयास कर रहे थे, उन्हें हत्याओं (कांगो के पैट्रिस लुमुम्बा की जनवरी 1961 में और बुरुंडी के लुई र्वागासोरे की अक्टूबर 1961 में हत्या) और तख्तापलट (घाना के क्वामे एनक्रूमा का फरवरी 1966 में तख्तापलट) का सामना करना पड़ा।
- नवउपनिवेशवादी व्यवस्था ने विश्व अर्थव्यवस्था का ऐसा ढाँचा गढ़ा कि अफ्रीकी देश अपना कच्चा माल कम क़ीमतों पर बेचने को मजबूर हो गए; पश्चिमी बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेशनों से उन्हें न्यूनतम रॉयल्टी मिली; उन्हें ऊँचे दामों पर तैयार माल (अधिकतर ऊर्जा के स्रोत) आयात करना पड़ा; अपने बजटीय घाटे को पूरा करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और पश्चिमी वाणिज्यिक ऋणदाताओं से क़र्ज़ लेने पड़े; भारी दरों पर ऋण चुकाने पड़े; आईएमएफ़ के कहने पर जन योजनाओं पर सरकारी ख़र्च में काफ़ी कटौती करनी पड़ी; और ऋण के एक अनंत कुचक्र में फँस गए।
- आईएमएफ और इससे जुड़े संस्थान (जैसे ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल) अफ्रीकी देशों की कमज़ोर सरकारों पर दबाव डालते हैं कि वे विनियामक विभागों को बंद कर दें ताकि पश्चिमी करदाताओं और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मोल-भाव करने की राज्य की क्षमता अपने आप ही कम हो जाए। एक संकुचित राज्य का मतलब है कि उस देश की जनता – और इस पूरे महाद्वीप की जनता – नवउपनिवेशवादी ढाँचे से सौदा करने की अपनी ताक़त काफ़ी हद तक गवां देती है।
अपने नवीनतम डोसियर में हमने दिखाया है कि कैसे अफ्रीकी महाद्वीप के मामले में आईएमएफ की नई नीति भी काफ़ी कुछ इसकी पुरानी नीति जैसी ही है (और बाक़ी दुनिया के लिए इसकी नीतियों की असलियत भी यही है जैसा कि हमने अक्टूबर 2023 के अपने डोसियर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के शिकंजे में लहूलुहान पाकिस्तान में बताया था)। इस डोसियर में हमने संक्षेप में बताया है कि कैसे एक अफ्रीकी सेंट्रल बैंक, एक अफ्रीकी इन्वेस्टमेंट बैंक, समस्त अफ्रीका के लिए एक स्टॉक एक्सचेंज और एक अफ्रीकी मुद्राकोष जैसे संस्थानों के ज़रिए अफ्रीका में वित्तीय ढाँचा खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। इनके गठन की समय सीमा पार हो चुकी है, लेकिन अफ्रीकी यूनियन के 2063 के अजेंडे (2013 में तय) में अब भी इनकी आवश्यकता पर बल दिया जा रहा है। हमने अफ्रीकन कॉन्टिनेंटल फ्री ट्रेड एरिया के मसले के हवाले से महाद्वीप में क्षेत्रीय अस्मिता का भी सवाल उठाया है। इन सब समस्याओं का कोई रामबाण इलाज नहीं है। डोसियर के अंत में हमने सेनेगल के बारे में चर्चा करते हुए समझने की कोशिश की है कि इन देशों को अपनी संप्रभुता स्थापित करने में किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। सेनेगल में डियोमाये फेय के नेतृत्व वाली नई प्रगतिशील सरकार ने जब आईएमएफ के आंकड़ों का ऑडिट किया और दिखाया कि इसमें गड़बड़ियाँ हैं तो आईएमएफ ने जवाब में सेनेगल की 1.8 अरब डॉलर की क्रेडिट सुविधा को निलंबित कर दिया। अब सेनेगल क्या कर सकता है? फेय की सरकार जून में एक बार फिर आईएमएफ़ के पास जाएगी। डोसियर के अंत में हमने सवाल किया है: ‘क्या सेनेगल के लिए दूसरे रास्ते खुलेंगे या इसकी यही नियति है कि यह आईएमएफ़ की ऋण-सरकारी ख़र्च में कटौती के अजेंडे पर ही मजबूरन घिसटता चला जाए, इसी अजेंडे ने वैश्विक दक्षिण के देशों को दशकों तक अपने शिकंजे में फँसाए रखा है?’।

वैश्विक महामारी फैलने के पिछले साल मैंने यूगांडा के एंटेबे हवाईअड्डे से किसोरो शहर तक यात्रा की थी। ये शहर कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य (डीआरसी) की सीमा के पास बसा हुआ है। कटेंडे नाम का एक व्यक्ति मेरा गाइड था, हम दोनों सड़क के रास्ते सरहद तक गए थे जो बुनागाना शहर से होकर गुज़रती है। यहाँ एम23 विद्रोही गुट (रवांडा का समर्थन प्राप्त मार्च 23 आंदोलन) ने सरहद के डीआरसी वाले हिस्से में बसेरा बना रखा है। इस सफ़र के दौरान दक्षिण-पश्चिमी यूगांडा के हरे-भरे पहाड़ पार करते हुए हम आख़िर लगभग वीरान शहर और सीमा चौकी पर पहुँचे। सीमा चौकी को बेहतर करने के बारे में बातचीत चल रही थी क्योंकि यहाँ से दोनों देशों में बड़े पैमाने पर वस्तुओं की आवाजाही होती है। लेकिन अब, जारी युद्ध के परिणामस्वरूप, जो कुछ भी दिखाई देता है वह केवल कुछ साइकिलें हैं, जिन्हें अक्सर लापरवाह पहरेदारों और सीमा शुल्क अधिकारियों द्वारा यूं ही जाने दिया जाता है।

कटेंडे के माध्यम से मैंने एक दूका (हिंदी के दुकान शब्द से निकला, पुराने दिनों में यूगांडा के इस हिस्से में भारतीय व्यापारी आते थे जिन्हें दुकवाला कहा जाता था) पर खड़े कुछ लोगों से बात की थी। इस दुकान पर मैं एक बुज़ुर्ग व्यापारी से मिला जो डीआरसी से सामान लेकर अक्सर सीमा पार जाया करती थीं। वे क्या सामान ले जाती थीं? सब तरह का सामान, कभी-कभी तो हीरे भी। उनका नाम था सूबी और वे लुगांडा भाषा बोलती थीं। उन्होंने कुछ ऐसा कहा जिससे कटेंडे को हँसी आ गई। मैंने पूछा कि उन्होंने क्या कहा। उसने मेरी नोटबुक ली और महिला की बात उसमें लिख दी: Akakonge ak’omu kkubo. Bwe katakukuba magenda, kakukuba amadda। मेरी नोटबुक में उसने लिखा था: ‘अगर रास्ते में पड़ा हुआ छोटे पेड़ का ठूंठ जाते समय तुम्हें नहीं गिराता, तो लौटते समय ज़रूर गिराएगा।’ मुझे लगता है कि सूबी तस्करी और कस्टम अधिकारियों के बारे में बात कर रही थीं। लेकिन यह तो सिर्फ़ ज़िंदगी के बारे में उनकी सोच भर थी, यह शायद उनकी नियति ही थी कि वे हीरों की तस्करी करने के बावजूद ग़रीब ही रहें। हीरे यहाँ इतने सस्ते हैं लेकिन खड़ी देशों और एंटवर्प और आख़िर दुनिया भर की बड़ी दुकानों तक पहुँचते-पहुँचते बेशक़ीमती हो जाते हैं।
सूबी दूका पर ही रुकी रहेगी — जूस खरीदेगी, पैक किया हुआ खाना खाएगी, धूप में खड़ी रहेगी, यह देखने के लिए कि सीमा पार करना सुरक्षित है या नहीं, फिर दूसरी ओर एम23 के बंदूकधारियों से निपटेगी, अपने हीरे और अन्य चीज़ें बेचने के लिए किसी को ढूंढेगी, वापस पैदल चलेगी, कोशिश करेगी कि कहीं ठोकर न लगे, और अंत में, उन हीरों को लगभग मुफ़्त में एक दलाल को बेच देगी जो उन्हें केन्या के मोंबासा बंदरगाह तक ले जाएगा, जहां से उन्हें अफ्रीका से बाहर भेज दिया जाएगा। इस पूरी प्रक्रिया में शामिल किसी भी व्यक्ति — वह जिसने ज़मीन में हीरे खोजे, जिसने उन्हें सूबी को बेचा, सूबी ख़ुद, या वह जो उनसे हीरे खरीदकर मोंबासा ले जाता है — को असली संपत्ति नहीं मिलती। जब जहाज़ खाड़ी देशों या एंटवर्प में बंदरगाह पर पहुंचता है और हीरों को पॉलिश करने वाले व्यक्ति तक पहुंचता है, तब इसमें मोटा पैसा आना शुरू होता है। उससे पहले, इन बेशक़ीमती पत्थरों के साथ एक हाथ से दूसरे हाथ तक ग़रीबी ही चलती है, क्योंकि ये सभी लोग रोज़ की ज़रूरतें पूरी करने में ही जूझते रहते हैं। यही है अफ्रीकी संपदा की हक़ीक़त और उसकी चोरी। यही सच्चाई छिपी है क़र्ज़ के बोझ और आईएमएफ की सख़्त आर्थिक नीतियों के पीछे।
सस्नेह,
विजय