आख़िर कब तक अफ्रीकी महिलाओं को पानी लाने के लिए मीलों चलना पड़ेगा: ग्यारहवाँ न्यूज़लेटर (2025)
अंतर्राष्ट्रीय कामकाजी महिला दिवस के महीने में आइए जानते हैं कि क़र्ज़-कटौती के राज और जलवायु परिवर्तन का वैश्विक दक्षिण की महिला किसानों पर क्या दुष्प्रभाव पड़ता है।

पौधों को पानी देने का दिन, रोकीयो नवारो (मेक्सिको), 2024
प्यारे दोस्तो,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
मार्च के महीने में मनाया जाता है अंतर्राष्ट्रीय कामकाजी महिला दिवस। इस दिन का इतिहास समाजवादी आंदोलन से गहराई से जुड़ा है। आजकल ज़्यादातर लोग 8 मार्च को सिर्फ़ ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ कहने लगे हैं, उन्होंने ‘कामकाजी’ शब्द इसमें से निकाल दिया है। लेकिन काम तो महिलाओं की ज़िंदगी का एक अभिन्न अंग है। संयुक्त राष्ट्र की सतत विकास के लक्ष्यों का प्रगतिकार्य: द जेंडर स्नैपशॉट 2024 सालाना रिपोर्ट के मुताबिक़ 2022 में दुनियभर में महिलाओं की श्रम शक्ति भागीदारी 63.3% थी। लेकिन सामाजिक सुरक्षा और श्रम क़ानूनों की बदतर होती जा रही स्थिति की वजह से 2024 तक 10% महिलाएँ पूर्ण निर्धनता में जीने को मजबूर हो गयीं। इसी रिपोर्ट में यह चेतावनी भी दी गयी है कि अगर स्थिति ऐसी ही रही तो महिलाओं को पूर्ण ग़रीबी से उबार पाने में 137 साल लग जाएँगे। हमारा उद्देश्य सिर्फ़ पूर्ण ग़रीबी को ख़त्म करना ही नहीं होना चाहिए बल्कि लोगों को अपनी ज़रूरतों के बोझ से भी छुटकारा दिलाया जाना चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र के विकास कार्यक्रम (UNDP) की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि उप-सहारा के देशों की महिलाओं के सालाना चालीस अरब घंटे पानी लाने में लगते हैं, यह फ्रांस के पूरे श्रम बल के एक साल के काम के घंटों के बराबर है। पूरे उप-सहारा क्षेत्र में पानी की सुविधाओं के लिए इंफ़्रास्ट्रक्चर तैयार करने में जितने धन की ज़रूरत है और जितना धन इस काम के लिए उपलब्ध है, उसमें अन्दाज़तन 11 अरब अमेरिकी डॉलर का फ़र्क़ है। ऑक्सफैम के अनुसार यह दुनिया के अरबपतियों की दो दिन की आमदनी के बराबर है। उप-सहारा के देश अपना क़र्ज़ अदा करने के लिए प्रतिदिन 447 लाख डॉलर चुकाते हैं, अगर वे 25 दिन यह धन पीने के पानी की सुविधाओं के लिए लगाएँ तो इस क्षेत्र के हर घर तक पाइप द्वारा पीने का पानी पहुँचाया जा सकता है। लेकिन दुनिया को फ़र्क़ नहीं पड़ता कि अफ्रीकी महिलाएँ मीलोंमील चलकर पीने का पानी लाने को मजबूर हैं जबकि इस धरती पर जो सामाजिक संसाधन पैदा किए जा रहे हैं उनके छोटे से हिस्से को ख़र्च करके ही इन्हें इस काम से आज़ाद कराया जा सकता है। इस काम के लिए पाइप बनाने और अन्य यंत्रों के निर्माण से उद्योगों का विकास होगा जिससे रोज़गार उत्पन्न होगा और लोगों को उस ग़रीबी से उबारा जा सकेगा जो दुनिया भर की औरतों को दबोचे हुए है।

शीर्षकहीन, साउद अल-अत्तर (इराक़), 1966
पीने का पानी लाने के लिए मीलों चलने को मजबूर इन महिलाओं में से ज़्यादातर ग्रामीण इलाक़ों में रहती हैं और खेतिहर मज़दूर या छोटे किसान के तौर पर काम करती हैं। इनके लिए पानी लाने के काम और मातृत्व, पालन-पोषण इत्यादि जैसे अन्य कामों पर घंटों लगाने का मतलब है कि खेतों में उनकी उत्पादकता कम हो जाना। पहले ही पुरुषों के मुक़ाबले उनकी औसत उत्पादकता की दर 24% कम है (यह तथ्य संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन की 2023 की द स्टेटस ऑफ़ विमन इन एग्रीफ़ूड सिस्टम्स में सामने आया)। कृषि क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति पर प्रामाणिक आँकड़े कम मिलते हैं। इसकी मुख्य वजह है कि दुनिया के कई हिस्सों में महिलाओं को किसानों के रूप में नहीं बल्कि खेतों में उनके सहायकों के रूप में देखा जाता है। इस रवैये की वजह से महिलाओं और पुरुषों की मज़दूरी में भारी असमानता है; महिला खेतिहर मज़दूरों को औसतन पुरुषों के मुक़ाबले 18.4% कम मज़दूरी मिलती है।
इस पितृसत्तात्मक नज़रिए को बदलने के लिए संयुक्त राष्ट्र की आमसभा ने एक प्रस्ताव पारित करते हुए 2026 को महिला किसानों को समर्पित अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है। उम्मीद है कि इस दौरान कृषि खाद्य प्रणालियों में महिलाओं की भूमिका को उजागर करने वाले कार्यक्रम ही नहीं आयोजित किए जाएँगे बल्कि उन प्रगतिशील सरकारों की भूमिका को भी सामने लाया जाएगा जो कृषि क्षेत्र में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव को ख़त्म करने के एजेंडे आगे बढ़ा रही हैं और यह भी सुनिश्चित कर रही हैं कि किसान यूनियनों में महिलाओं को नेतृत्वकारी भूमिका मिले।

ए कैपिरिन्हा (ब्राज़ील का एक प्रसिद्ध पेय) तरसिला डो अमराल (ब्राज़ील), 1923
‘कृषि खाद्य प्रणालियाँ’ कहकर कृषि के विचार को विस्तार दिया जाता है। संयुक्त राष्ट्र का खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) कृषि खाद्य प्रणाली की यह परिभाषा देता है कि इसमें ‘उन सभी हितधारकों और उनकी परस्पर संबद्ध गतिविधियों की पूरी श्रृंखला शामिल है जो खाद्य और गैर-खाद्य कृषि उत्पादन और कृषि संबंधित गतिविधियों जैसे कि खाद्य भंडारण, एकत्रीकरण, कटाई के बाद की देखभाल, ढुलाई, प्रसंस्करण, वितरण, विपणन, निपटान और उपभोग में मूल्यवर्धन करती हैं।’ इस परिभाषा से ही जेंडर आधारित भेदभाव स्पष्ट हो जाता है: चूँकि महिलाओं को ऐसे कामों से दूर रखा जाता है जो मूल्यवर्धन चेन के शीर्ष पर हैं (जैसे ढुलाई, प्रॉसेसिंग, वितरण, भंडारण और मार्केटिंग) इसलिए इस उद्योग क्षेत्र में वे पुरुषों से कम कमाती हैं।
वैश्विक दक्षिण के कई हिस्सों में महिलाएँ कृषि खाद्य प्रणालियों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और कृषि उनकी आय का एक बड़ा साधन है (अफ़्रीका के सब-सहारा क्षेत्र में 66% महिलाएँ कृषि क्षेत्र में काम करती हैं जबकि पुरुषों में यह आँकड़ा 60% है, दक्षिण एशिया में तो 71% महिलाएँ कृषि क्षेत्र में काम करती हैं और पुरुष सिर्फ़ 47%)। दुनिया के इन हिस्सों में महिलाएँ अपने परिवार और अपने भरण पोषण के लिए कृषि क्षेत्र में अपने कम आय वाले काम पर ही निर्भर हैं। जब उनका रोज़गार गिरता है तो महिलाएँ अपने परिवार का पेट भरने की जद्दोजहद में लग जाती हैं और ख़ुद भूखी तक रह जाती हैं। बहुपक्षीय संस्थानों को जो देश आँकड़े देते हैं उनसे पता चलता है कि दुनिया में महिलाएँ पुरुषों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा भुखमरी का शिकार हैं। इसकी वजह है कृषि क्षेत्र में वे असंगठित मज़दूर के तौर पर काम करती हैं और पितृसत्तात्मक पारिवारिक संरचनाओं में खाना खाने या मिलने में भी वे भेदभाव झेलती हैं।

आदि-अंत, रॉकेल फ़ोरनेर (अर्जेंटीना), 1980
जलवायु परिवर्तन का सबसे पहला प्रभाव भी कृषि व्यवस्था पर पड़ता है और यह कोई अचंभे की बात नहीं कि अपने खेतों और परिवारों को इसके कुप्रभाव से बचाने की ज़िम्मेदारी आमतौर पर महिलाओं पर आ जाती है। FAO की 2024 की दि अंजस्ट क्लाइमेट रिपोर्ट में जो आँकड़ा दिया गया है उसे पचा पाना बहुत मुश्किल है। पहला तथ्य, जब कोई प्राकृतिक आपदा (भीषण गर्मी या बाढ़ आदि) आती है तो तो महिलाओं के काम के घंटे ‘ पुरुषों के मुक़ाबले लगभग चार, तीन और एक मिनट के हिसाब से प्रतिदिन अत्यधिक बारिश, तापमान और सूखे की स्थिति में क्रमश: बढ़ते जाते हैं’। काम के घंटे में इस इज़ाफ़े का औसत लगाएँ तो पता चलता है कि प्राकृतिक आपदाओं की वजह से होने वाले नुक़सान की भरपाई के लिए महिलाएँ पुरुषों से 55 मिनट ज़्यादा काम करने को मजबूर हैं। दूसरा तथ्य, तापमान में 1°C (33.8 °F) की दीर्घकालिक बढ़ोतरी ‘खेती से होने वाली आय में 23.6% और पुरुष-प्रधान परिवारों के मुक़ाबले स्त्री-प्रधान परिवारों की कुल आय में 34% गिरावट से जुड़ी है’। जब भीषण गर्मी पड़ती है तो महिलाएँ अपने खेतों में काम करने की बजाय अपना श्रम काम दामों पर खेतिहर मज़दूर या घरेलू कामगार के तौर पर बेचने को मजबूर होती हैं, जिससे उनकी आय और भी कम हो जाती है।
तीसरा तथ्य, यह पता चलता है कि भीषण गर्मी के दौरान पुरुषों के मुक़ाबले महिलाएँ अपने मवेशी ज़्यादा बेचती हैं जिससे पशुपालन से होने वाली आय तो कम होती ही है बल्कि कृषि में इनके प्रयोग से होने वाली उत्पादकता भी घटती है। अंतिम तथ्य, FAO की रिपोर्ट बताती है कि बाढ़ के दौरान अमीर परिवारों के मुक़ाबले ग़रीब परिवारों की कुल आय 4.4% कम हो जाती है (बाढ़ की वजह से वैश्विक दक्षिण के ग़रीब परिवारों को 21 अरब डॉलर का कुल नुक़सान होता है)। FAO के शोध का मुख्य निष्कर्ष यह है कि प्राकृतिक आपदाओं का सभी ग़रीब परिवारों पर असर पड़ता है लेकिन इस प्रभाव का जेंडर आधारित पहलू है जो महिला और पुरुष किसानों के बीच की निरंतर बढ़ती खाई को और गहरा करता है।

फ़ैमिली पोट्रेट, ज़िना अमॉर (अल्जीरिया), 1967
ऐसी परिस्थितियों में क्या किया जा सकता है? संयुक्त राष्ट्र जैसे संस्थानों के पास रामबाण के तौर पर एक शब्द है: सशक्तीकरण। लेकिन महिलाओं का सशक्तीकरण होगा कैसे? कितने ही प्रस्ताव पारित हो चुके हैं जो ‘सरकारों को जवाबदेह बनाने’ और ‘महिलाओं को अथॉरिटी वाले पदों पर पहुँचाया जाए’ जैसी बातें करते हैं। लेकिन ये सब इस समस्या की जड़ तक नहीं पहुँचते: ग्रामीण इलाक़ों में क़ानूनी दांवपेच या हिंसा के ज़रिए सभी खेतिहर मज़दूरों को यूनियन बनाने से अमूमन रोका जाता है। 1975 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने ग्रामीण श्रमिक संगठन कन्वेंशन पारित किया जिसके अनुच्छेद 3 में कहा गया: ग्रामीण श्रमिकों की सभी श्रेणियों को, चाहे वे वेतनभोगी हों या स्वरोजगार वाले, बिना किसी पूर्व अनुमति के अपनी पसंद के संगठन स्थापित करने और संबंधित संगठन के नियमों के अधीन रहते हुए, उसमें शामिल होने का अधिकार है’। इस कन्वेन्शन पर ख़ास ध्यान नहीं दिया गया। जिन ग्रामीण श्रमिक संगठनों के नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्याएँ की गयीं हैं अगर उनकी लिस्ट बनाई जाए तो पूरी अलमारी भर जाएगी, इनमें 2023 में ग्वाटेमाला की डोरिस लिस्सेथ ऐल्डाना कैल्डरोन से लेकर 2024 में भारत के शुभकरन सिंह तक कइयों के नाम शामिल होंगे।

责任均匀的解释 (बराबर ज़िम्मेदारी की समझ) लीयंग़ बाएबो (चीन), 1938
खेतिहर मज़दूरों को संगठित कर उनकी यूनियनें बनाए बिना उन्हें उनके अधिकार नहीं दिलाए जा सकते है। 2022 में ब्राज़ील के भूमिहीन मज़दूर आंदोलन (Movimento dos Trabalhadores Rurais Sem Terra, MST) से जुड़ी महिलाओं ने एक बेहतरीन खुला पत्र जारी किया। इसका शीर्षक था ‘Open Letter of Love and Struggle from Landless Women’ (भूमिहीन महिलाओं की ओर से प्रेम और संघर्ष का खुला पत्र)। MST पर हमने एक डोसियर निकाला था जिसे यहाँ पढ़ा जा सकता है। इसका कुछ अंश नीचे दिया जा रहा है:
हमने कितनी बार पानी उबाला है, बच्चों की देखभाल की है, अपनी पुश्तैनी ज़मीनों को अगली पीढ़ियों के लिए तैयार किया है, नामुमकिन हालात में घर बनाए और इससे पहले कि कोई सुन पाए तनाव भरे सन्नाटे तोड़े हैं। हम तड़के अपने घरों से निकलती हैं और मौत की रेलगाड़ी रोकती हैं, ज़हर से भरे ट्रक रोकती हैं और कृत्रिम बीजों की बुआई रोकती हैं। मिट्टी में सने हुए हमने आँसू बहाए हैं, अपने मृतक परिजनों को दफ़नाया है। संघर्ष और प्रार्थना से हमने ख़ुद को और अपनी ज़मीनों को बचाए रखने की ताक़त पाई है। अपनी आत्मा से हम मरहम बनाती हैं। हम प्रतिरोध की अपने पुरखों की परंपरा को आगे बढ़ाती हैं जो हमें अपने संघर्ष के रास्ते पर बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। चिता (ब्राज़ील का एक क़िस्म का कपड़ा) के कपड़े में क्रोध, भय और ख़ुशी सभी रंगों में लिपटी हम अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। दुनिया को पता चलने दो कि अब धरती हिलाने का समय आ गया है क्योंकि संघर्षरत महिलाएँ हार मानने वाली नहीं! मार्च का महीना हमें जीवन की नई संभावनाएँ गढ़ने, और उस विचार से लड़ने के लिए प्रेरित करता है जो हर दिन हमारी ज़िंदगी बर्बाद कर रहा है और हमारे शरीर और प्रकृति को नष्ट कर रहा है।…
ताक़तवर वर्ग को इसलिए लगता है कि हम घुटने टेक देंगी क्योंकि उन्हें अब तक समझ नहीं आया कि हम सृजनकर्ता हैं, हम इंसान और बीज दोनों बनाती हैं। जहाँ कहीं भी महिलाएँ हैं वहाँ उम्मीद भी होगी, संगठन भी, संघर्ष भी, साहस भी और विद्रोह भी। हमारे सामने कई चुनौतियाँ हैं लेकिन हम संघर्ष की पहली पंक्ति में खड़ी लड़ती रहेंगी क्योंकि इतिहास हमारा भी है और हम इसे गढ़ेंगी सड़कों पर, संघर्ष में और खेतों में। हमसे पहले संघर्ष में शहीद हुई अपनी साथियों से हमें हिम्मत मिलती है। वे भले ही दुनिया में नहीं हैं लेकिन हमारे भीतर अब भी ज़िंदा हैं। वे सूरज की उन किरणों जैसी हैं जो युद्ध के दौर में भी रोशनी फैलाती हैं, एक ऐसा सूरज जो हमें झकझोरता है, उद्वेलित करता है।
सस्नेह,
विजय