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बौद्धिक संपदा पर एकाधिकार वैश्विक उत्तर की मुनाफ़ाख़ोरी का हथियार है: छब्बीसवाँ न्यूज़लेटर (2025)

वैश्विक दक्षिण के देश बौद्धिक संपदा कानूनों के जाल में फँसे हुए है, इसलिए तकनीकी विकास के बावजूद उन्हें प्रौद्योगिकी पर काफ़ी ख़र्च करना पड़ता है।

प्यारे दोस्तो,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।

ऊपर ग्राफ़ में जो आँकड़े हैं वे अतिरेकपूर्ण नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के डाटा पर आधारित हैं। वैश्विक दक्षिण के देशों में हो रही प्रौद्योगिकी और औद्योगिक प्रगति के बावजूद महत्त्वपूर्ण उत्पादों से जुड़ी बौद्धिक संपदा पर पेटेंट राज के द्वारा वैश्विक उत्तर अपना एकाधिकार बनाए हुए है। जिसकी वजह से वैश्विक दक्षिण बौद्धिक संपदा के इस्तेमाल के लिए पेटेंट पेमेंट करते रहने पर मजबूर हैं। इन उत्पादों में शामिल हैं दवाइयों, डिजिटल तकनीक (जैसे सॉफ़्टवेयर और टेलीकम्यूनिकेशन इंफ़्रास्ट्रक्चर के लाइसेंस) और कृषि से जुड़े उत्पाद (जैसे जेनेटिकली मॉडिफ़ायड बीज, उर्वरक, कीटनाशक और यंत्र)। वैश्विक दक्षिण में वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी प्रगति ज़रूर हुई है, ख़ासतौर से एशिया के कई देशों में तेज़ गति की बेहतरीन रेल विकसित हुई, ग्रीन टेक्नॉलजी और टेलीकम्यूनिकेशन का इंफ़्रास्ट्रक्चर तैयार हुआ है। इसके बावजूद इन क्षेत्रों में कुछ ख़ास पुर्ज़ों/अवयवों के लिए अधिकांश देशों को वैश्विक उत्तर की उन कंपनियों को भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है जिनके पास इनके पेटेंट होते हैं।

हम औरतों के पास ओका शीकी नाम का पौधा है जिससे उग्र होने वाले पुरुषों को कमज़ोर किया जा सकता है, अवौना येरा (यानोमामी जनजातीय क्षेत्र, ब्राज़ील), 2023

पाँच ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें पेटेंट की क़ीमत से जुड़ा असंतुलन सबसे ज़्यादा नज़र आता है (दूसरे शब्दों में जिनमें वैश्विक दक्षिण को रॉयल्टी और लाइसेंस फ़ीस तो बहुत अधिक चुकानी पड़ती है लेकिन उसके बदले उन्हें ज़्यादा कुछ नहीं मिलता):

  1. दवाइयाँ: दवाओं के पेटेंट ज़्यादातर यूरोप, जापान और यूएस की कंपनियों के पास हैं। ज़रूरी दवाओं का आयात कितना महँगा होता है उसका एक हालिया उदाहरण है कोविड-19 वैश्विक महामारी के दौरान mRNA वैक्सीन की ऊँची क़ीमत। वैश्विक दक्षिण के कई देशों, जैसे दक्षिण अफ़्रीका और भारत, को पेटेंट की वजह से निषेध और तकनीक साझा करने की सीमाओं के कारण इसके आयात में देरी और बहुत ऊँची क़ीमतें झेलनी पड़ी। (अंतत: दक्षिण अफ़्रीका ने फ़ैसला किया कि वह भारत के जेनेरिक दावा निर्माताओं – जैसे Cipla और Serum Institute – से वैक्सीन ख़रीदेगा जिससे उसने तीन सालों में लगभग 13.3 करोड़ अमेरिकी डॉलर की बचत की।)

  2. सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी): आईसीटी के सॉफ़्टवेयर और हार्डवेयर से लेकर सेमीकंडक्टर और मोबाइल नेट्वर्क तक लगभग हर घटक की वैश्विक दक्षिण को बहुत भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है। यह सिर्फ़ इन उत्पादों की अपनी क़ीमत की वजह से नहीं है बल्कि इनसे जुड़ी प्रौद्योगिकी की भारी लाइसेंस फ़ीस की वजह से भी है जिसका नियंत्रण अमूमन विशेष पेटेंट पूल (कंपनियों का एक संघ जो संयुक्त रूप से आवश्यक पेटेंट का प्रबंधन करता है और लाइसेंस देता है) के पास है।

  3. औद्योगिक मशीनरी और विनिर्माण प्रौद्योगिकियाँ: कंप्यूटर न्यूमेरिकल कंट्रोल (सीएनसी) मशीनों (सटीक विनिर्माण में उपयोग की जाने वाली स्वचालित मशीनें), रोबोटिक्स और अन्य प्रिसिज़न उपकरणों (जो ऑटोमोटिव, खनन और कपड़ा उद्योग क्षेत्रों के लिए अहम हैं) के पेटेंट ज़्यादातर वैश्विक उत्तर की कंपनियों के पास हैं। नतीजतन, औद्योगीकरण की चाह रखने वाले वैश्विक दक्षिण के देशों को इन प्रौद्योगिकियों को अपने देश में विकसित करने या उत्पादन करने के बजाय इन्हें आयात करना पड़ता है और निरंतर लाइसेंसिंग शुल्क चुकाना पड़ता है।

  4. कृषि जैव प्रौद्योगिकी: DuPont, Monsato (Bayer) और Syngenta जैसी कुछ कंपनियाँ प्रमुख कृषि जैव प्रौद्योगिकियों, जैसे उर्वरक, जेनेटिकली मॉडिफ़ायड बीज और कीटनाशकों पर नियंत्रण रखती हैं, जिन्हें महंगे लाइसेंसिंग समझौतों के तहत वितरित किया जाता है। यह एकाधिकार न केवल वैश्विक दक्षिण के किसानों के लिए विकल्प तैयार करने या विकास को सीमित करता है जिससे विदेशी कंपनियों पर निर्भरता बढ़ती है और उत्पादन लागत बढ़ती है बल्कि यह बीज संप्रभुता को भी कमजोर करता है और मोनोकल्चर खेती, रासायनिक उत्पादों के अत्यधिक उपयोग और जैव विविधता को नुक़सान पहुँचाकर पर्यावरणीय क्षति को बढ़ावा देता है।

  5. ग्रीन प्रौद्योगिकी: बैटरी सिस्टम, सोलर पैनल और विंड टर्बाइनों में महत्त्वपूर्ण नए आविष्कारों के पेटेंट वैश्विक उत्तर की कंपनियों के पास ही हैं, जिससे प्रौद्योगिकी की साझेदारी असंभव हो जाती है। नतीजतन, वैश्विक दक्षिण के देशों को इन प्रौद्योगिकियों को अपनाने के लिए अत्यधिक लाइसेंसिंग शुल्क चुकाना पड़ता है, जिससे उनकी स्वतंत्र रूप से स्थायी ऊर्जा प्रणालियाँ विकसित करने की क्षमता सीमित हो जाती है।

ये असमानताएँ मुख्य रूप से वैश्विक उत्तर की कंपनियों के नए आविष्कारों और बौद्धिक संपदा पर एकाधिकारिक नियंत्रण के कारण हैं, जो वैश्विक दक्षिण के देशों को इस आविष्कारों की प्रक्रिया का हिस्सा बनने से रोकती हैं। मध्यम और छोटी अर्थव्यवस्थाओं वाले वैश्विक दक्षिण के देशों में अनुसंधान एवं विकास (R&D) क्षमता की कमी भी इस ग़ैरबराबरी को बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाती है।

R&D क्षमता की इस कमी की जड़ें औपनिवेशिक विरासत में हैं जिसने कई वैश्विक दक्षिण के देशों के शैक्षणिक संस्थानों को अल्पविकसित रहने दिया, ख़ासतौर से उन्नत विज्ञान के क्षेत्र में। यह नव-औपनिवेशिक प्रवास के पैटर्न की वजह से और बढ़ गया, जिसमें प्रतिभाशाली छात्र बेहतर अवसरों की तलाश में वैश्विक उत्तर की ओर पलायन कर जाते हैं। अंत में वैश्विक दक्षिण के देश ऐसा राजनीतिक प्रभाव बनाने में विफल रहे हैं जो अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक संपदा पर नियंत्रण की उस मौजूदा व्यवस्था को चुनौती देने के लिए ज़रूरी है जिसकी वजह से वैश्विक उत्तर के देशों और कंपनियों द्वारा पहले के दौर में हासिल किए अनुचित लाभ अब भी सुरक्षित हैं।

शीर्षकहीन, मोज़ेज़ जोहुमा (ज़िम्बाब्वे), n.d.

1986 में संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में वैश्विक उत्तर ने जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड टैरिफ्स (गैट) के आठवें दौर की शुरुआत की, इसे उरुग्वे राउंड के नाम से भी जाना जाता है। गैट के पिछले सात दौर मुख्य रूप से अटलांटिक देशों और जापान के बीच टैरिफ कम करने पर केंद्रित थे जिसमें पहले उपनिवेश बनाए गए देशों की भागीदारी नगण्य थी। लेकिन उरुग्वे राउंड ने एजेंडा बदल दिया: उत्तरी बाज़ारों तक पहुँच के बदले में, दक्षिणी देशों पर उत्तरी निवेश, प्रौद्योगिकी और सेवाओं के लिए बाधाओं को ख़त्म करने और अपने बौद्धिक संपदा कानूनों को संशोधित करने का दबाव डाला गया। इस दौर में ही उत्तरी एकाधिकार वाली कंपनियों ने बौद्धिक संपदा अधिकारों और सेवा क्षेत्र में काफ़ी बढ़त हासिल कर ली। 

मूलनिवासियों का बाज़ार, जूलिया कोडसिडो (पेरू), 1931

गौर करने की बात यह है कि उरुग्वे राउंड वार्ताओं का मसौदा तैयार करने वालों में कोई देश नहीं बल्कि इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी कोएलिशन और मल्टीलेटरल ट्रेड नेगोशिएशन्स कोएलिशन जैसे रहस्यमय समूह थे। पता चला कि ये समूह देशों के नहीं, बल्कि DuPont, Monsanto और Pfizer जैसी वैश्विक उत्तर की प्रमुख एकाधिकार कंपनियों के लिए लॉबी करने वाले लोग थे जिन्होंने बौद्धिक संपदा की अवधारणा को संशोधित करने पर ज़ोर दिया। उरुग्वे राउंड से पहले, पेटेंट केवल उस प्रक्रिया  के लिए लिए जा सकते थे जिसके द्वारा कोई आविष्कार विकसित किया गया था, जिससे अन्य व्यक्ति, कंपनियाँ और देश अलग प्रक्रिया से वही अंतिम उत्पाद विकसित कर सकते थे और रिवर्स-इंजीनियर्ड आधारित आविष्कार संभव थे। उरुग्वे राउंड ने इस सिद्धांत को बदल दिया, यह दावा करते हुए कि अंतिम उत्पाद स्वयं पेटेंट योग्य होना चाहिए, जिससे अंतिम उत्पाद प्राप्त करने के लिए इस्तेमाल की गई प्रक्रिया की परवाह किए बिना पेटेंट धारक को रॉयल्टी मिले। इसे ट्रेड-रिलेटेड एस्पेक्ट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (ट्रिप्स) समझौते के नाम से जाना जाएगा।

ब्राजील और भारत के नेतृत्व में दस वैश्विक दक्षिण देशों (अर्जेंटीना, ब्राजील, क्यूबा, मिस्र, भारत, निकारागुआ, नाइजीरिया, पेरू, तंजानिया और यूगोस्लाविया) ने उरुग्वे राउंड के ख़तरों पर चर्चा करने के लिए आपसी बातचीत शुरू की। इस ग्रुप ऑफ टेन (जी10) ने तर्क दिया कि नया दृष्टिकोण वैश्विक दक्षिण में तकनीकी अकाल लाएगा, जहाँ उच्च लागत के बदले न्यूनतम प्रौद्योगिकी साझा की जाएगी और इन देशों में अपना तकनीकी विकास लगभग ख़त्म हो जाएगा। कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि जी10 को कुछ रियायतें मिल सकती हैं, लेकिन अमेरिका ने दबाव डाला और समूह टूटने लगा। 1989 तक ब्राजील और भारत ने हार मान ली और समूह विघटित हो गया।

फिर बहस अमेरिका और यूरोपीय संघ के बीच कृषि सब्सिडी को लेकर मतभेदों पर केंद्रित हो गई। जब 1994 में उरुग्वे राउंड पूरा हुआ तो वैश्विक दक्षिण ने इस नई घातक बौद्धिक संपदा व्यवस्था और इससे तैयार हुए नियमों को स्वीकार कर लिया। ट्रिप्स समझौता विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) का केंद्र बन गया, जिसकी स्थापना इसके अगले वर्ष हुई।

नौ साल बाद, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका ने आईबीएसए नामक एक ब्लॉक बनाया, जिसने आवश्यक दवाओं विशेष रूप से एचआईवी/एड्स के लिए एंटीरेट्रोवायरल दवाओं के लिए बौद्धिक संपदा अधिकारों पर छूट और अनिवार्य लाइसेंसिंग की मांग की। उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप, डब्ल्यूटीओ ने 30 अगस्त 2003 को एक निर्णय लिया जिसमें कुछ ट्रिप्स समझौता दायित्वों को अस्थायी रूप से शिथिल कर दिया गया, जिससे विनिर्माण क्षमता न रखने वाले देशों को अनिवार्य लाइसेंस के तहत जेनेरिक दवाओं का आयात करने की अनुमति मिली। हालाँकि इसने ट्रिप्स समझौते (जिसे ट्रिप्स सिद्धांत भी कहा जाता है) के मूल तर्क को पलटा नहीं, लेकिन इसने कुछ दवाओं के लिए सीमित राहत सुनिश्चित की। (दूसरी ओर, गेट्स और क्लिंटन फाउंडेशनों ने 2003 में एचआईवी/एड्स दवाओं की लागत कम करने का जो वादा किया वह व्यापक ट्रिप्स ढांचे को बरक़रार रखने का एक षड्यंत्र ही था।) ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका के बीच यह प्रारंभिक गठबंधन 2007 में अटलांटिक दुनिया की तीसरी महामंदी की शुरुआत के बाद 2009 में ब्रिक्स ब्लॉक में विकसित हुआ। हालाँकि ब्रिक्स ने स्वास्थ्य और प्रौद्योगिकी में महत्वपूर्ण पहल की हैं, लेकिन यह ट्रिप्स सिद्धांत को कमज़ोर नहीं कर पाया है।

फ़िदायीन, इंजी अफ़लातून (मिस्र), 1970

1980 के दशक में वैश्विक दक्षिण के देशों की सरकारों ने उस मुद्दे को उठाना शुरू किया जिसे बाद में बायोपाइरेसी कहा गया। उनका तर्क था कि कई तथाकथित आधुनिक आविष्कारों विशेष रूप से कृषि और दवाइयों के क्षेत्र में का मूल अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के किसानों और चिकित्सकों द्वारा विकसित पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों में था। यह तर्क आम तौर पर ज्यादा प्रभावी नहीं रहा हालाँकि कुछ मामलों में जैसे डब्ल्यू. आर. ग्रेस द्वारा दक्षिण एशिया के नीम के पत्ते को पेटेंट करने का प्रयास और फाइटोफार्म द्वारा दक्षिण अफ्रीका के सान लोगों द्वारा पारंपरिक रूप से उपयोग किए जाने वाले हूडिया को विकसित करने का प्रयास बायोपाइरेसी के आरोपों ने कंपनियों को या तो अपने पेटेंट छोड़ने या अपने मुनाफ़े को साझा करने के लिए मजबूर किया। बायोपाइरेसी पर बहस ने विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (डब्लूआईपीओ) की एक संधि को जन्म दिया, जिसमें कंपनियों को अपने उत्पादों में उपयोग किए गए आनुवंशिक संसाधनों और पारंपरिक ज्ञान के मूल का ख़ुलासा करना अनिवार्य था। हालाँकि इस संधि का अमूमन पालन नहीं किया जाता। इसका सिर्फ़ यह ही फ़ायदा हुआ है कि इसने यह ख़ुलासा किया कि पहले ऐसा नहीं होता था, इसके अलावा उन समुदायों को और कोई फ़ायदा नहीं हुआ जो इस ज्ञान के सर्जक थे। वास्तव में, ट्रिप्स समझौता वाइपो प्रावधानों को ओवरराइड करता है, जिससे कंपनियों को पारंपरिक ज्ञान के दोहन की छूट मिलती है।

बायोपाइरेसी और ग्रीन प्रौद्योगिकी के प्रसार पर बौद्धिक संपदा नियमों के बारे में सोचते हुए मुझे मेक्सिको के कवि और पूर्व राजदूत होमरो अरिद्जिस की याद आती हैं, जिनकी कविता सेल्वा अर्डिएंडो‘ (जलता हुआ जंगल) दुनिया को दमनकारी नियमों के ख़िलाफ़ एक चेतावनी देती है:

केसरिया आसमान टर्नर के चित्रों के 

उष्णकटिबंधीय आकाश की तरह लगता है 

नाचते हुए ताड़ के पेड़ों को लालची जिह्वाएँ चूम रही हैं। 

चीखते हुए बंदर चोटी से चोटी तक छलांग लगाते हैं।

धुएँ के गुबारों के बीच, तोतों के झुंड 

झुलसी हुई पूँछों के साथ सूरज की तलाश में निकलते हैं,

जो उन्हें छिपकर देखता है, एक सदी हुई आंख की तरह।

सस्नेह,

विजय