जन अस्पताल : तेलुगू कम्युनिस्ट आंदोलन की एक पहल 

डोसियर संख्या 25 ( फरवरी 2020 )

A volunteer taking a blood pressure test before a doctor's consultation at a CPI(M)-run camp in Wyra, Khammam District, Telangana.

सीपीआई(एम) द्वारा चलाए जा रहे एक कैंप में चिकित्सकीय प्रामर्श से पहले रक्तचाप की जाँच करता एक वॉलंटियर (वाइरा, खम्मम जनपद, तेलंगाना)
छवि साभार: ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान

संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र (1945) और मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (1948) के तहत सभी देशों का यह दायित्व है कि वे अपनी जनता के लिए स्वास्थ्य के अधिकार की गारंटी सुनिश्चित करें। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का 1946  का संविधान स्वास्थ्य को ‘सिर्फ किसी बीमारी और दुर्बलता के अभाव की स्थिति ही नहीं बल्कि शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से पूरी तरह से ठीक होने की अवस्था’ के रूप में परिभाषित करता है। ये आधुनिक मापदंड सभी लोगों के स्वस्थ रहने की गारंटी नहीं देते। लेकिन यह सुनिश्चित करते हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं के अलावा पर्याप्त मात्रा में भोजन, कपड़ा, मकान और जरूरी सामाजिक सेवाएं सबकी पहुँच के भीतर हों। विश्व बैंक और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने हालिया अध्ययनों में पाया है कि कम से कम 80 करोड़ लोगों को अपने घर के बजट का 10 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य पर ख़र्च करना पड़ा। महँगी चिकित्सा पर ख़र्च करने के कारण कम से कम 10 करोड़ लोग भीषण ग़रीबी का शिकार हो गए। इस अध्ययन में यह तथ्य भी सामने आया कि ज़रूरी स्वास्थ्य सेवाएं दुनिया की आधी आबादी की पहुँच से बाहर हैं।

भारत सरकार के आँकड़ों के अनुसार, भारत में लोगों द्वारा अपनी जेब से स्वास्थ्य सेवा पर किया जाने वाला ख़र्च दुनिया में सबसे ज़्यादा है। एक औसत भारतीय स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले ख़र्च का 67.78% हिस्सा अपनी जेब से अदा करता है, जो कि 18.2% के वैश्विक औसत की तुलना में कई गुना ज़्यादा है। ऐसी महँगी स्वास्थ्य सेवाओं पर भारी व्यय करने के लिए मजबूर होने के कारण हर साल करीब 5.7 करोड़ भारतीय भीषण ग़रीबी की दलदल में फँस जाते हैं। सबसे ज्यादा ख़र्चीली दवाइयाँ होती हैं। बीते दशकों में महँगी स्वास्थ्य सेवा की समस्या से निजात पाने के लिए जरूरी संसाधन मुहैया कराने को लेकर सरकार ने उदासीनता ही दिखाई है। पिछले एक दशक में भारत में स्वास्थ्य सेवा पर होने वाला प्रति व्यक्ति ख़र्च दूसरे देशों की तुलना में काफ़ी कम रहा है।

2019 में सौ सालों का पड़ाव पार कर चुके भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन ने जन अस्पताल स्थापित करने के लिए कई तरह के प्रयोग किए हैं। जन अस्पताल मुफ़्त या रियायती दरों पर सबको स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराते हैं। इस प्रयोग के केंद्रबिंदु भारत के तेलुगूभाषी क्षेत्र रहे हैं। वर्तमान समय में इस क्षेत्र में करीब 8.5 करोड़ की आबादी वाले आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्य शामिल हैं। हमारा ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान का डोसियर नं. 25 इस क्षेत्र में जन अस्पतालों के इतिहास पर प्रकाश डालता है।     

      

Comrade P. Sundarayya and comrade Leela

कॉमरेड पी. सुंदरैया, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के प्रथम महासचिव, तथा कॉमरेड लीला, पार्टी की एक सदस्या तथा पार्टी कार्यालयों की प्रशासक
छवि साभार: नेल्लोर जन अस्पताल

कम्युनिस्ट और स्वास्थ्य 

सदियों की ज़मींदारी प्रथा और औपनिवेशिक शासन ने दक्षिण एशिया में रहने वाली आबादी के बहुसंख्यक हिस्से की ज़िन्दगी को नारकीय बना दिया। ऐसा दावा किया जाता है औपनिवेशिक शासक यहाँ के लोगों को ‘सभ्य’ बनाने के लिए आए थे। लेकिन सच्चाई यह है कि जब 1947 में अंग्रेज भारत छोड़कर गए, तब यहाँ के लोग भुखमरी, बीमारी और निरक्षरता से जूझ रहे थे। सौ सालों पहले जब यहाँ पर कम्युनिस्ट आंदोलन ने जड़ें जमानी शुरू की तो उसे दो मुद्दों पर काम करना था। पहला  सदियों के औपनिवेशिक शासन की वजह से विकराल हो चुकी बीमारी, भुखमरी और निरक्षरता की समस्या से लोगों को तत्काल राहत प्रदान करना। दूसरा राजनीतिक शक्ति पैदा करना जिसके लिए खेतिहर मज़दूरों, किसान यूनियनों, कामगार वर्ग की यूनियनों और राजनीतिक दलों को संगठित करना था। अकाल और महामारी के मुद्दों के साथसाथ भूमि सुधार और ज्यादा मज़दूरी की माँगों को भी प्रमुखता से उठाया गया। 

दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान देश के कई भागों को भयंकर अकाल का सामना करना पड़ा था। इस भयंकर अकाल का कारण कुछ हद तक तो यह था कि अंग्रेज़ों को खेती की परवाह ही न थी। लेकिन इसका मुख्य कारण यह था कि यूरोपीय फ़ौज़ों को खिलाने के लिए उपमहाद्वीप का अनाज बाहर भेजा जा रहा था। 1943 के अकाल में लाखों लोग मारे गए। इनमें ज़्यादातर बंगाल और तेलुगूभाषी क्षेत्र के लोग शामिल थे। इस क्षेत्र में कम्युनिस्टों ने दलिया केंद्र खोलने के लिए धन इकठ्ठा किया। पी. सुंदरैया के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (CPI) ने औपनिवेशिक शासन की अनदेखी की वजह से बदहाल नहरों की मरम्मत करने के लिए कार्यकर्ताओं और वॉलंटियरों को लामबंद किया। अनाज की कमी का एक कारण यह भी था कि नहरों की बदहाली की वजह से ज़मीन के बहुत बड़े हिस्से पर खेती नहीं हो पा रही थी। कम्युनिस्टों ने अपने हाथों से कृष्णा नदी की नहरों की तलछट को साफ़ किया और उनकी मरम्मत करके खेतों की सिंचाई को संभव बनाया। इसके साथ ही सीपीआई ने गाँवों में स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराना शुरू किया, जहाँ लोग आसानी से ठीक हो जाने वाली मामूली बीमारियों से ही दम तोड़ रहे थे। 1930 के दशक में सुंदरैया ने अपने गाँव में एक दवाख़ाना खोला। इस दवाख़ाने में प्राथमिक उपचार जैसे कि घावों को धोकर मरहमपट्टी करने के अलावा सामान्य बीमारियों के लिए दवाइयाँ भी दी जाती थीं। जिन मरीज़ों को विस्तृत उपचार की ज़रूरत होती थी उनको क्वालीफाइड डॉक्टरों वाले अस्पतालों में भेजा जाता था। सुंदरैया ने अपने निजी अनुभवों से महसूस किया कि कम्युनिस्ट आंदोलन को डॉक्टरों को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित ग्रामीण इलाक़ों में कार्य करने के लिए प्रोत्साहितप्रेरित करना चाहिए। उन्होंने अपने छोटे भाई रामचंद्र रेड्डी को चिकित्साशास्त्र की पढ़ाई करने के लिए कहा ताकि किसानों और कामगार वर्ग को ज़रूरी स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराई जा सकें।  


 

शुरुआती दौर 

डॉक्टर राम के नाम से मशहूर डॉक्टर रामचंद्र रेड्डी ने पीपल्स पॉलीक्लिनिक या जन अस्पताल (प्रजा वैद्यशाला) का विचार सामने रखा। ऐसे अस्पताल का मकसद सभी ज़रूरतमंदों को स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराना था, भले ही मरीज़ इलाज़ या दवाइयों का खर्च उठा पाए या नहीं। (हालाँकि यह भी तय किया गया कि जिन लोगों की हैसियत अस्पताल का खर्च उठा पाने की होगी उनको खर्च देने के लिए कहा जाएगा।) 1940 के दशक में डॉक्टर राम ने नेल्लोर में अपना काम शुरू किया। अपने बड़े भाई सुंदरैया की ही तरह अपना सारा धन कम्युनिस्ट पार्टी को दे देने के कारण इनके पास अस्पताल शुरू करने के लिए आवश्यक पैसे नहीं थे। इन दोनों के बड़े भाई वेंकट रमन रेड्डी ने अस्पताल शुरू करने के लिए 5000 रुपये दिए। इस पहले जन अस्पताल में डॉक्टर राम ने डॉ. सुगुना और डॉ. सोमैया के अलावा कम्पाउंडर (अस्पताल सहायक) रहीम के साथ काम करना शुरू किया। अगर डॉ. राम किसी गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति से मिलते तो वह उनको साइकिल रिक्शा से अस्पताल ले आते और फिर उनका इलाज करते। यह अस्पताल ठीकठाक काम कर रहा था। लेकिन जब डॉक्टरों को सेना में भर्ती होने के लिए बुला लिया गया तब इसे बंद करना पड़ा।

दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेज़ सरकार ने भारत में सभी डॉक्टरों के लिए जंग के मोर्चे पर जाने हेतु अपना नाम दर्ज कराना अनिवार्य कर दिया। डॉ. राम, सुगुना और सोमैया सैन्य सेवा के लिए अपना नाम दर्ज कराने मद्रास (आज का चेन्नई) गए। 1942 में ब्रिटिश सरकार ने डॉ. सुगुना और डॉ. सोमैया को सैन्य सेवा के लिए बुलावा भेजा। उन्होंने डॉ. राम को सैन्य सेवा के लिए नहीं बुलाया। इसका कारण शायद यह था कि वह एक कम्युनिस्ट थे और उनके भाई सुंदरैया तो देश के अग्रणी कम्युनिस्टों में से एक थे। डॉ. राम ने स्टैनली अस्पताल (मद्रास) में काम करना शुरू किया और वहीं से शल्यचिकित्सा में विशेषज्ञता का प्रशिक्षण लेने लगे। वहाँ उन्होंने स्वतन्त्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। डॉ. राम ने 1943 में अकाल पीड़ित बंगाल में जाकर राहत के प्रयासों में अपना सहयोग दिया। 

दूसरे विश्वयुद्ध के ख़त्म होते ही कम्युनिस्टों के नेतृत्व में तेलंगाना का सशस्त्र संघर्ष शुरू हो गया। यह संघर्ष 1946 से 1951 तक चला। तेलंगाना पहले ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का हिस्सा नहीं था। इस पर निज़ामों का शासन था जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों के अधीन थे और उनको नज़राना दिया करते थे। (गोलकुंडा की हीरे की खदानों की वजह से निज़ामों का नाम दुनिया के सबसे दौलतमंद लोगों की फ़ेहरिस्त में शुमार हो गया था।) तेलंगाना में किसान, खेतिहर मज़दूर और ग्रामीण ग़रीब ज़मींदारों के शोषण से त्रस्त थे। कम्युनिस्ट पार्टी की अगुआई में इन्होंने निज़ामों और ज़मींदारों के ख़िलाफ़ हथियार उठा लिए। 

डॉ. राम 1946 में इस सशस्त्र संघर्ष से जुड़े। चूँकि एक डॉक्टर के तौर पर ली हुई शपथ उनको हथियार उठाने और किसी इंसान की जान लेने की इजाज़त नहीं देती थी, इसलिए उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के लिए प्रबंधन और देखरेख का काम किया। उन्होंने भूमिगत कार्यकर्ताओं को ज़रूरी चिकित्सकीय सहायता प्रदान की। डॉ. राम को कम्युनिस्ट डॉक्टर के नाम से जाना जाने लगा। उन्होंने अपने दोस्तों के साथ, जिनमें डॉ. रामदास भी शामिल थे, जंगलों में जाकर घायल लड़ाकों का इलाज किया। इस दौरान नेल्लोर के जन अस्पताल को कई बार अस्थायी रूप से बंद करना पड़ा क्योंकि डॉक्टर सशस्त्र संघर्ष में अपनी सेवाएँ दे रहे होते थे। 

Dr.PUCHALAPALLI RAMACHANDRA REDDY2

डॉ. रामचंद्र रेड्डी (डॉ. राम), इन्होंने प्रजा वैद्यशाला अथवा जन अस्पताल के सिद्धांतों को प्रतिपादित किया, जो जन अस्पताल आंदोलन का आधार बने

 

प्राथमिक उपचारक  

ब्रिटिश उपनिवेशवाद अपने पीछे एक जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था छोड़कर गया। 1951 में डॉक्टरजनसंख्या अनुपात बहुत ही कम था। 36 करोड़ की आबादी वाले देश में सिर्फ 50,000 डॉक्टर मौजूद थे। यानी कि 7,000 लोगों के लिए एक ही डॉक्टर उपलब्ध था। आज हालात पहले से थोड़े बेहतर हैं। 1,457 लोगों पर एक डॉक्टर मौजूद है। लेकिन यह संख्या भी विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफ़ारिशों की तुलना में कम है। मौजूदा अनुपात में क्षेत्रीय और वर्गीय आधार पर व्याप्त अंतर दिखाई नहीं देते। इस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार है हमारी बुर्ज़ुआज़मींदार राज्य प्रणाली, जो देश के लिए स्वास्थ्य सेवा को प्राथमिक मुद्दा नहीं मानती। हालाँकि, देश में सार्वजनिक ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधा को मूर्त्त रूप देने के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (Primary Health Centres, PHC) की स्थापना का अभियान चलाया गया, लेकिन 1955 तक सिर्फ़ 77 PHC थे। 130 करोड़ लोगों की सेवा को समर्पित PHC की संख्या साल 2011 तक बढ़कर केवल 23,887 ही पहुँची । इन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों की भारी कमी है। बहुत सारे डॉक्टर ग्रामीण क्षेत्रों में (जहाँ देश की 68% आबादी रहती है) काम नहीं करना चाहते हैं। भारत जैसे देश में, जहाँ देहातों में रहने वाले ग़रीबों की माली हालत सफ़र करके शहरी इलाकों में जाकर इलाज़ कराने लायक नहीं है, ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं का प्रावधान बहुत ज़रूरी है। 2013 में भारत सरकार द्वारा शुरू किया गया राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन ऐसी ही एक पहल है। 

1950 के दशक में डॉ. राम की मदद लेकर स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वाले वॉलंटियरों को प्रशिक्षित करने के लिए एक कार्यक्रम तैयार किया गया। सिर्फ प्राथमिक चिकित्सा सेवा देकर हज़ारों लोगों को लील चुकी हैजा जैसी महामारियों को रोका जा सकता है। ऐसी महामारियों से सबसे ज्यादा ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले ग़रीब ही पीड़ित होते हैं। उनकी पीड़ा और भी ज़्यादा बढ़ जाती है जब राज्य उनको भाग्य भरोसे छोड़ देता है। जब हैजा या हैजे जैसी बीमारियाँ दलित बस्तियों को अपनी चपेट में ले लेती हैं तो दूसरे समुदाय वाले उनका बहिष्कार कर देते हैं। उन पर गाँव के उनके इलाक़े से बाहर निकलने पर रोक लगा दी जाती है (गाँव के साप्ताहिक बाज़ार में जाने पर भी रोक लगा दी जाती है)। इसकी वजह से सिर्फ़ मरने वाले लोगों की संख्या ही नहीं बढ़ती है बल्कि आर्थिक बर्बादी भी होती है। इसलिए समस्याएँ सिर्फ चिकित्सकीय ही नहीं बल्कि सामाजिक भी हैं। डॉ. राम ने यह देखा कि जिन बीमारियों का सामना ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले ग़रीबों को करना पड़ता था उनमें से 90% बीमारियों के लिए चिकित्सकीय डॉक्टर की ज़रूरत ही नहीं थी। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा और कुछ मामलों में जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ सामाजिक अभियान का चलाया जाना ही पर्याप्त था। इस नज़रिये से देखते हुए डॉ. राम ने प्राथमिक उपचारक आंदोलन चलाने के लिए काम शुरू किया। 

कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता, गाँवों के नौज़वान और शिक्षक इस प्राथमिक उपचारक आंदोलन से जुड़े। डॉ. राम ने पंद्रह से बीस वॉलंटियरों के जत्थों को चार सप्ताह तक नेल्लोर के अस्पताल में प्रशिक्षण दिया। दिन के समय में प्रशिक्षु अस्पताल में काम करके चिकित्सिकीय समस्याओं जैसे कि बीमारियों के लक्षण की पहचान करना, दवाइयाँ देना, टीका लगाना जैसी चीज़ों की व्यावहारिक जानकारी हासिल करते। रात में प्रशिक्षुओं को चिकित्सा के बुनियादी सिद्धांतों और बीमारियों के बारे में पढ़ाया जाता था। प्रशिक्षुओं के लिए रहने और खाने की व्यवस्था भी की गई थी।

डॉ. राम और उनकी टीम ने करीब तीन हज़ार प्राथमिक उपचारकों को प्रशिक्षण दिया। उनमें से बहुत सारे प्राथमिक उपचारक गाँवों में गए और प्राथमिक उपचार देना शुरू कर दिया। उन दिनों शहरी क्षेत्रों में एक सूई की कीमत एक रूपया हुआ करती थी। गाँवों में रहने वाले बहुत से लोगों के लिए यह ज़्यादा थी। प्राथमिक उपचारकों ने गाँव के लोगों को 25 पैसे में सूइयाँ देनी शुरू कीं। यह कीमत शहरी इलाकों में उपलब्ध सूइयों की कीमत से चार गुना सस्ती थी। अगर स्वास्थ्य समस्या गंभीर किस्म की हुआ करती थी तो प्राथमिक उपचारक मरीज़ों को विशेषज्ञों के पास भेज दिया करते थे। नेल्लोर ज़िले में हैजा फैलने से रोकने में प्राथमिक उपचारकों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।    

अस्पताल के वर्तमान मुख्य प्रशासक डॉ. राजेश्वर राव ने ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान को कुछ समय पहले बताया था कि प्राथमिक उपचारक प्रक्षिशण प्रोग्राम का विस्तार कर इसे आंध्र प्रदेश के आदिवासी इलाक़ों में लागू किया गया है। इन इलाक़ों में महामारियों के फैलने की वजह से स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ पैदा होती रहती हैं। प्रोग्राम के तहत छात्रों को आदिवासी इलाक़ों में काम करने भेजा गया ताकि वे लोगों का उपचार कर सकें।


 

स्थायी बंदोबस्त 

डॉ. राम अस्पताल को 1953 तक ख़ुद ही चलाते रहे। उसी साल अस्पताल के मार्गदर्शन के लिए एक ट्रस्ट बनाया गया और डॉ. राम के भतीजे डॉ. शेषा रेड्डी नेल्लोर के जन अस्पताल से जुड़ गए। अपनी मेडिकल पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉ. रेड्डी कम्युनिस्ट पार्टी से पूर्णकालिक सदस्य के रूप में जुड़े। 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (CPI) से टूटकर बनी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) यानी सीपीआई(एम)ने एक डॉक्टर के रूप में उनके काम के महत्त्व को समझा। पार्टी ने उनको सुझाव दिया कि चिकित्सक के अपने काम को छोड़कर पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनने के बजाय चिकित्सकीय कामों के माध्यम से ही वे अपनी राजनीतिक गतिविधि जारी रखें। सुंदरैया ने उनसे कहा कि जन का डॉक्टर होना एक क्रांतिकारी काम है। 

नेल्लोर के जन अस्पताल को सांस्थानिक रूप डॉ. रेड्डी ने ही दिया। 1980 के दशक में नेल्लोर के जन अस्पताल में प्रशिक्षण पाए डॉ. गेयानन्द इस अस्पताल को एक अनूठा प्रयोग बताते हैं। उनके मुताबिक ऐसा अस्पताल पूरे देश में कहीं नहीं है। यह नेल्लोर की सामाजिक समस्याओं में हस्तक्षेप करने वाली एक राजनीतिक रूप से सक्रिय संस्था है। नेल्लोर के लोगों के दिलों में इस अस्पताल के लिए काफ़ी सम्मान है। ऊँचे नैतिक कद की वजह से नेल्लोर का जन अस्पताल सामाजिक तनाव की परिस्थितियों में हस्तक्षेप भी कर पाता है। नेल्लोर का यह अस्पताल सामाजिक सौहार्द बनाए रखने के लिए किए गए अपने कामों के लिए भी जाना जाता है। डॉ. राम हिन्दू और उनके अस्पताल सहायक रहीम मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखते थे। इनकी जोड़ी को ‘रामरहीम की जोड़ी’ के रूप में जाना जाता था। 

Comrade EMS inaugurating the new building of Nellore PPC (1984)

कॉमरेड ई. एम. एस. नम्बूदरीपाद – भारत में लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई पहली कम्युनिस्ट सरकार, केरल के भूतपूर्व मुख्यमंत्री – 1984 में नेल्लोर जन अस्पताल के नये भवन का उद्घाटन करते हुए
छवि साभार: नेल्लोर जन अस्पताल

सिर्फ़ एक बुनियादी मेडिकल डिग्री

नेल्लोर के अस्पताल की शुरुआत तीन डॉक्टरों के साथ एक फूस वाले छप्पर के मकान में एक छोटे क्लीनिक के तौर हुई थी। आज यह पच्चीस सदस्यों वाले ट्रस्ट के अधीन साठ डॉक्टरों और दो सौ पचास बिस्तरों वाला अस्पताल बन गया है। डॉ. राम की मौत के बाद उनको सम्मानित करने के लिए 1967 में अस्पताल को एक नया नाम दिया गया। 1984 में अस्पताल का पहला भवनसमूह बनाया गया जिसका उद्घाटन सीपीआई(एम) नेता हरकिशन सिंह सुरजीत के हाथों हुआ। 

अस्तित्व में आने के बाद से ही नेल्लोर के जन अस्पताल का उद्देश्य ग़रीबों को सस्ती कीमत पर आधुनिक दवाइयां मुहैया कराना रहा है। यह निर्णय लिया गया कि भारत जैसे देश में ज़्यादातर लोगों को प्रभावित करने वाली बीमारियों और समस्याओं के निदान के लिए पाँच साल की चिकित्सकीय डिग्री (MBBS) ही काफ़ी है। जिन लोगों ने MBBS की डिग्री पूरी कर ली थी उनके लिए नेल्लोर के जन अस्पताल ने तीन साल का प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया ताकि ये प्रशिक्षण लेकर सामान्य चिकित्सक के तौर पर काम शुरू कर सकें। अस्पताल इन डॉक्टरों को चिकित्सा के हर क्षेत्र के बुनियादी तौरतरीकों का प्रशिक्षण देता है ताकि वे उस तरह की चिकित्सकीय सेवाएं भी प्रदान कर पाएँ जो केवल विशेषज्ञ डॉक्टर की दे पाते हैं (जैसे प्रसव कराना)। तीन साल के इस कोर्स को मेडिकल स्कूलों ने तैयार नहीं किया था। यह नेल्लोर की पॉलीक्लिनिक के ज़मीनी कामों से उपजा था। 

यह प्रशिक्षण कार्यक्रम डाक्टरों को दूरदराज़ के देहाती इलाक़ों में काम करने के लिए तैयार करता है। यहाँ डॉक्टरों को बहुत से विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों में अपनी सेवा देनी होती है। बहुत बार इनको सब कुछ अकेले ही करना पड़ता है। ये डॉक्टर बेहोश करना, आपातकालीन चिकित्सा, ह्रदय सम्बन्धी रोगों की देखभाल और विभिन्न तरह की सर्जरी तथा दांतों के रोगों के इलाज के लिए प्रशिक्षण लेते हैं। इन डॉक्टरों के पास MBBS के अलावा और कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं होता है। लेकिन ये लगभग हर तरह की चिकित्सकीय समस्याओं का इलाज कर सकते हैं। यह पहल उन इलाकों के लिए ख़ासी महत्त्वपूर्ण है जहाँ पर विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी है। नेल्लोर का जन अस्पताल डॉक्टरों की मदद करने वाले स्वास्थ्य वॉलंटियरों को भी प्रशिक्षण देता है। ये वॉलंटियर अधिकतर वामपंथी आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ता हैं। ये दोतीन महीने का कोर्स पूरा करते हैं, जिसमें उनको ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर प्राथमिक उपचार देना सिखाया जाता है। 

अपनी स्थापना के बाद से नेल्लोर के जन अस्पताल ने करीब पाँच सौ डॉक्टरों को प्रशिक्षण दिया है, जो तेलुगूभाषी क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवा प्रदान कर रहे हैं। इन्होंने पिछले कई दशकों के दौरान प्राकृतिक आपदाओं (जैसे कि चक्रवात) और महामारियों से प्रभावित लोगों को स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने में अहम भूमिका निभाई है। प्रभावित इलाक़ों में जाकर चिकित्सा केंद्र शुरू करने वाले लोगों में नेल्लोर के डॉक्टर पहली कतार में मौजूद रहते हैं। लोगों के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली समस्याओं का स्वरूप व्यापक है। इसमें मनोवैज्ञानिक समस्याएं भी शामिल है। लोगों को भ्रमित करके गैरचिकित्सकीय उत्पादों का सेवन कराने वाले अंधविश्वासों और फ़र्ज़ी धार्मिक गुरुओं को रोकने का काम भी यहाँ के डॉक्टर करते हैं। इन्हीं अनुभवों के आधार पर जन विज्ञान वेदिका (JVV) 1989 में अस्तित्व में आई। यह आंदोलन लोगों में वैज्ञानिक सोच का प्रसार करता है और लोगों के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले अंधविश्वासों के ख़िलाफ़ लड़ता है। 

Jana Vigna Vedika (People's Science Movment) rally in the 1990s for communal harmony

1999 में ऑस्ट्रेलियाई ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस तथा उनके दो पुत्रों की हत्या के पश्चात सांप्रदायिक एवं धार्मिक सौहार्द के लिए लामबंद जन विज्ञान वेदिका (जन विज्ञान आंदोलन)
छवि साभार: जे. वी. वी अनंतपुर

1980 के दशक के आख़िर में इस विचार ने ज़ोर पकड़ा कि उपचार को सिर्फ इंसान के शरीर तक ही सीमित नहीं रखा जाना चाहिए बल्कि मरीज़ के आसपास के वातावरण का भी मूल्यांकन किया जाना चाहिए। यह पूरी तरह साफ़ हो गया था कि बेरोज़गारी और ग़रीबी जैसी सामाजिक समस्याओं की मौजूदगी के साथसाथ सस्ती शराब की उपलब्धता ने नशाखोरी की प्रवृत्ति को बढ़ाया। बढ़ती नशाखोरी के भयंकर सामाजिक और स्वास्थ्यजनित परिणाम होते हैं। इसकी वजह से घरेलू हिंसा और शराब से जुड़ी बीमारियाँ बढ़ती हैं। ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाली महिलाएँ राज्य में शराब पर पाबंदी लगाने की माँग को लेकर सड़क पर उतरीं। इससे शराब विरोधी आंदोलन की शुरूआत हुई। नेल्लोर का जन अस्पताल शराब की लत और घरेलू हिंसा से प्रभावित लोगों का इलाज करता रहा है। इसने शराब विरोधी आंदोलन में आगे बढ़कर भाग लिया। शराब विरोधी आंदोलन में इस अस्पताल की सहभागिता दिखाती है कि डॉक्टरों को सिर्फ बीमारी के लक्षणों (शराबखोरी) के विरुद्ध ही नहीं बल्कि बीमारी को पैदा करने वाले कारणों बेरोज़गारी, ग़रीबी और शराब की मुनाफ़ाखोरी के विरोध में चलने वाले सार्वजनिक अभियानों का भी हिस्सा बनना चाहिए। 


 

हर रोज़ हज़ार मरीज़ 

नेल्लोर का जन अस्पताल आज साल में 3,12,000 मरीज़ों का इलाज करता है। यानी रोज़ तक़रीबन एक हज़ार मरीज़ यहाँ इलाज कराते हैं। यहाँ ओपीडी प्रातः 8 बजे से लेकर शाम 5 बजे तक खुला रहता है। आपातकालीन वार्ड सप्ताह के छह दिन चौबीसों घंटों के लिए खुला रहता है। (अस्पताल सिर्फ रविवार को बंद रहता है।) जिन मरीज़ों को इलाज की आवश्यकता होती है वे 20 रुपये का शुल्क देकर जीवनपर्यंत सदस्य बन सकते हैं। 50 रुपये का परामर्श शुल्क अलग से देय होता है जो एक महीने तक के लिए मान्य होता है। यहाँ कुल तेरह ओपीडी, पाँच स्त्रीरोग विभाग और एक शल्य चिकित्सा विभाग हैं। इन सभी विभागों को वरिष्ठ डॉक्टर चलाते हैं। मरीज़ों को भर्ती करके इलाज करने वाली अट्ठारह इकाइयाँ हैं, जिन्हें एक वरिष्ठ डॉक्टर दो कनिष्ठ डॉक्टरों की मदद से सँभालते हैं। 

नेल्लोर का जन अस्पताल हर दो महीने में एक बार चलताफिरता चिकित्सा कैम्प लगाता है ताकि दूरदराज़ की जगहों पर भी स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराई जा सके। इन कैम्पों को रविवार के दिन लगाकर अस्पताल तक नहीं पहुँच सकने वाले लोगों को मुफ़्त में परामर्श दिया जाता है। इन मरीज़ों को डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर और मिर्गी जैसी बीमारियों की दवाइयाँ भी सिर्फ़ 200 रुपये में दी जाती हैं जो कि बाज़ार की कीमत से काफ़ी कम है। खून में शुगर की जाँच सिर्फ 10 रुपये के नाममात्र शुल्क में की जाती है।  

अस्पताल ने नेल्लोर के आसपास के चार गाँवों में चलने वाले तीन साल के ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यक्रम को हाल ही में पूरा किया है। इन गाँवों और इनके आसपास के भीतरी इलाक़ों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं हैं। इन तीन सालों के दौरान अस्पताल से एक डॉक्टर और एक नर्स का एक दल इन चारों गाँवों में हर रोज़ जाकर उन सबका इलाज करता था, जो उनके पास इसके लिए आते थे। शाम को यह दल एक बैठक आयोजित करता था। इन बैठकों में दृश्य और श्रव्य माध्यमों से प्रस्तुतीकरण देकर लोगों को साँप और बिच्छू का काटना, जठरांत्र शोथ जैसी सामान्य स्वास्थ्य समस्याओं और तम्बाकू तथा शराब के सामाजिक प्रभावों के बारे में जानकारी दी जाती थी। लोगों को पोषण के बारे में जानकारी दी जाती थी और हरी सब्ज़ियों को उगाने के लिए बीज भी बाँटा जाता था।  

अस्पताल के पास एक प्रयोगशाला भी है जहाँ जाँच करके उसी दिन नतीजा भी दे दिया जाता है। अस्पताल के पास चार इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम मशीनें, दो ऑपरेशन कक्ष और एक डिजिटल एक्सरे मशीन भी है, जिन्हें भारतीय जीवन बीमा निगम (सरकारी कंपनी) ने दान में दिया था। जब मरीज़ों को जाँच के नतीजे मिल जाते हैं तो उनसे उम्मीद की जाती है कि वे डॉक्टर से जाकर बात करें। इससे मरीज़ को आधुनिक चिकित्सा के बारे में जानकारी मिलती है। 

अस्पताल को मुख्यतः डॉक्टर ही चलाते हैं। यहाँ कुल साठ डॉक्टर और चार सौ चौवालीस सहायक कर्मचारी हैं। मरीज़ों के दिए हुए पैसों से यह अस्पताल चलता है। निजी अस्पतालों से 40% कम पैसा लेने का बाद भी यह अस्पताल अच्छे से चल रहा है। पॉलीक्लिनिक की एक अनूठी ख़ूबी यह भी है कि यहाँ के कर्मचारियों की तनख़्वाह बड़े कारपॉरेट अस्पतालों के कर्मचारियों के बराबर होती है। (कर्मचारियों को एक महीने का बोनस वेतन भी मिलता है।) अस्पताल आम जन को स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने के अलावा प्रशिक्षण देने का भी केंद्र भी बन गया है। 

नेल्लोर जन अस्पताल के वर्तमान मुख्य प्रशासक डॉ. बी. नागेश्वर राव इस अस्पताल से 1989 में जुड़े थे। उन्होंने अपनी MBBS की पढ़ाई प्रगतिशील डॉक्टर आंदोलन का केंद्र माने जाने वाले कुर्नूल मेडिकल कॉलेज से पूरी की थी। इस दौरान वह वामपंथी छात्र आंदोलन में सक्रिय रहे। साल 2000 में नेल्लोर जन अस्पताल ने डॉ. पी. वी. रामचंद्र रेड्डी जन नर्सिंग स्कूल खोला। इसमें तीन साल के कोर्स में एक सौ बीस विद्यार्थियों को दाख़िला दिया गया है। औद्योगिक क्षेत्र के मज़दूरों, खेतिहर मज़दूरों, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के ग़रीबों, सामाजिक रूप से शोषित परिवारों के बच्चों को निःशुल्क पढ़ाया जाता है। इनकी शिक्षा का ख़र्च उठाने के लिए अस्पताल सरकारी योजनाओं का सहारा लेता है।

Dr. D. Rajeshwar Rao, Superintendent of the Nellore People’s Polyclinic

नेल्लोर जन अस्पताल के अधीक्षक डॉ. डी. राजेश्वर राव और उनके सहकर्मी जनवरी 2020 में आयोजित एक मेडिकल कैंप में मरीजों को दवाईयाँ लिखते हुए
छवि साभार: के. मस्तनैया

अस्पतालों का विस्तार 

नेल्लोर के जन अस्पताल से प्रशिक्षण पाकर डॉक्टरों ने अपने ज़िलों में जाकर ख़ुद के अस्पताल शुरू किए। एक वक़्त ऐसा भी था कि इस तरह के एक सौ से भी ज़्यादा अस्पताल चल रहे थे। निजी रूप से चलाए जाने के बावजूद ये लोगों को सस्ती स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) ने इस क्षेत्र में और भी जन अस्पताल खोले। 


 

जन अस्पताल (अनंतपुर)    

डॉ. पी. प्रसूना और एम. गेयानन्द ने 1990 में नेल्लोर का जन अस्पताल छोड़क अपने प्रदेश अनंतपुर में एक नए जन अस्पताल की शुरूआत की। दोनों डॉक्टरों ने अपनी MBBS की पढ़ाई कुर्नूल मेडिकल कॉलेज से की थी, जहाँ वे वामपंथी छात्र आंदोलन में सक्रिय रहे। वामपंथी आंदोलन से सम्बद्ध डॉ. प्रसूना के पिता नेल्लोर के जन अस्पताल में कम्पाउंडर के पद पर काम करते थे। इनके पिता ने इनको मेडिकल डिग्री प्राप्त करके जन अस्पताल से जुड़ने के लिए प्रेरित किया ताकि लोगों के लिए समर्पित चिकित्सा के प्रति इनकी प्रतिबद्धता और मज़बूत हो सके। डॉ. गेयानन्द अपने विद्यार्थी जीवन में ही वामपंथी आंदोलन से जुड़ गए थे। 

इस दंपति ने अपना अस्पताल एक पत्थर के मकान में शुरू किया जहां पहले तेल की मिल हुआ करती थी। उनके पास सिर्फ MBBS की डिग्री होने की वजह से लोगों ने उनको अपना अस्पताल खोलने से हतोत्साहित किया। लेकिन नेल्लोर के जन अस्पताल में तीन साल प्रशिक्षण प्राप्त करके वो चिकित्सकीय तौर पर और राजनीतिक तौर पर भी पूरी तरह तैयार थे। उन्होंने स्वास्थ्य सेवा कार्ड व्यवस्था की शुरूआत की जिसके तहत एक महीने तक का परामर्श शुल्क एक बार देना होता है। जब अस्पताल खुला तब एक महीने का परामर्श शुल्क सिर्फ 5 रुपये था। यह शुल्क पिछले तीस सालों के दौरान बढ़कर 50 रुपये हो गया है जो कि आज के हिसाब से बहुत सस्ता है। अगर मरीज़ की क्षमता इतनी रकम दे पाने की नहीं है तो वह 10 रुपये भी दे सकता है। छात्रावासों में रहने वाले विद्यार्थी अगर परामर्श शुल्क अदा कर पाने की स्थिति में नहीं हैं तो वे मुफ़्त में डॉक्टर से मिल सकते हैं। यह अस्पताल प्रवासी मज़दूरों की स्थिति को लेकर बहुत सजग रहता है क्योंकि निजी अस्पतालों में इनके साथ भेदभाव होने की आशंका ज़्यादा होती है। 

नेल्लोर के जन अस्पताल के अनुभव से सीख लेकर अनंतपुर का अस्पताल भी प्राथमिक उपचारकों को प्रशिक्षण देता है। करीब एक सौ लोगों ने तीन साल के प्राथमिक उपचार का प्रशिक्षण पूरा किया है। डॉक्टरों का कहना है कि यह प्रशिक्षण कार्यक्रम सिर्फ़ प्रशिक्षुओं के लिए ही नहीं बल्कि अस्पताल के लिए भी काफ़ी महत्त्व का है, क्योंकि अस्पताल को भी इस प्रशिक्षण के बाद प्रशिक्षित कर्मचारी आसानी से मिल जाते हैं। ये प्राथमिक उपचारक ग्रामीण सामान्य चिकित्सक बन जाते हैं। ये उन इलाक़ों में जाकर बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएँ मुहैया कराते हैं, जहाँ स्वास्थ्य सुविधाएँ मौजूद नहीं हैं। 

निजी और कॉरपोरेट अस्पतालों के बढ़ने की वजह से इन ग्रामीण पंजीकृत चिकित्सा प्रैक्टिशनर्स (आरएमपी) को व्यावहारिक विकल्प के रूप में नहीं देखा जाता क्योंकि इनके प्रशिक्षण का स्तर विशेषज्ञ डॉक्टरों की तुलना में कम होता है। ज्यादा महँगा होने के बावजूद लोग निजी अस्पतालों में जाना पसंद करते हैं। कॉरपोरेट अस्पताल अपने पास मरीज़ लाने के लिए पंजीकृत चिकित्सा प्रैक्टिशनर्स का इस्तेमाल करते हैं। डॉ. प्रसूना और गेयानन्द के अनुसार निजी और कॉरपोरेट अस्पतालों की बढ़ती संख्या की वजह से ग़रीबों के सिर पर स्वास्थ्य के ख़र्च का बोझ भारी होता जा रहा है जिसकी वजह से उनके लिए जन अस्पताल और भी ज्यादा प्रासंगिक हैं। निजी अस्पताल मरीज़ों को बहुत सी गैरज़रूरी मेडिकल जाँच कराने के लिए मज़बूर करते हैं। यह कॉरपोरेट अस्पतालों का पैसा कमाने का हथकंडा है।  

Running Gruel Centre in Anantapur District any years back

2002 में भीषण अकाल से प्रभावित अनंतपुर जनपद में जन विज्ञान वेदिका (जन विज्ञान आंदोलन) द्वारा चलाए जा रहे दलिया वितरण केंद्र पर डॉ. गेयानन्द तथा डॉ प्रसूना
छवि साभार: जे. वी. वी अनंतपुर

लोग जन अस्पताल में इस संस्था और यहाँ के डॉक्टरों के ऊपर कायम भरोसे की वजह से आते हैं। वे जानते हैं कि ये अस्पताल उनको ग़ैरज़रूरी ख़र्च करने के लिए मजबूर नहीं करेगा। यहाँ कीमतों को भी जितना हो सके उतना कम रखा जाता है। कॉरपोरेट अस्पतालों और इमेजिंग केंद्रों में एक अल्ट्रासाउंड की कीमत 700 रुपये होती है जिसमें से 300 रुपये इस अल्ट्रासाउंड की सिफ़ारिश करने वाले डॉक्टर की जेब में जाते हैं। डॉक्टर इन तीन सौ रुपयों के कमीशन के अलावा अपनी जाँच के लिए अलग से पैसे वसूलता है। चूँकि अनंतपुर के जन अस्पताल के डॉक्टर कमीशन नहीं लेते, इसलिए यहाँ पर अल्ट्रासाउंड के लिए मरीज़ों को सिर्फ चार सौ रुपये ही देने होते हैं। अस्पताल के पास अपना अल्ट्रासाउंड स्कैनर आने के बाद से मरीज़ों को सिर्फ 300 रुपये देने होते हैं जो कि निजी अस्पतालों में दी जाने वाली रकम की तुलना में आधे से भी कम है। अनंतपुर के भारतीय मेडिकल संगठन ने डॉ. प्रसूना और गेयानन्द के जनकल्याण के लिए समर्पित दृष्टिकोण को एक मॉडल के तौर पर प्रशंसनीय और अनुकरणीय बताया। 

हालाँकि डॉ. प्रसूना और गेयानन्द का मानना है कि भविष्य में जन अस्पताल जैसे नए अस्पतालों को शुरू करना आसान काम नहीं होगा। लोग बड़े कॉरपोरेट अस्पतालों के विशेषज्ञ डॉक्टरों के पास जाना पसंद करने लगे हैं। वे अस्पताल अपने विज्ञापन अभियानों के ज़रिए लोगों की लालसाओं को हवा देकर उन्हें अपनी तरफ खींचते हैं। चूँकि निजी अस्पतालों के पास सरकारी योजनाओं के तहत पैसा आता है इसलिए ग़रीब मरीज़ भी इनकी तरफ आकर्षित होते हैं। डॉ. प्रसूना और गेयानन्द के अनुसार जन अस्पताल भविष्य के लिए व्यावहारिक विकल्प नहीं हैं। उनके अनुसार एक सहकारी मॉडल की ज़रुरत है जो नेल्लोर के जन अस्पताल से प्रशिक्षण पाकर निकले डॉक्टरों के अलगअलग अस्पतालों को एक साथ जोड़ पाए। इस तरह से बनाया गया तंत्र अस्पतालों में चिकित्सकीय और राजनीतिक गतिविधियों के मार्गदर्शन के लिए ज़रूरी नियमों की रूपरेखा विकसित कर पाएगा। जन अस्पतालों को विशेषज्ञों के साथ संपर्क बनाने की ज़रुरत है ताकि ज़रूरत पड़ने पर ये विशेषज्ञ इन अस्पतालों के माध्यम से मरीज़ों को सस्ती सेवाएँ दे पाएँ। 

जन अस्पताल मॉडल का एक महत्त्वपूर्ण भाग इसकी राजनीति है। इस तरह के अस्पतालों में काम करने वाले डॉक्टरों का मक़सद पैसा कमाना नहीं होता है। समाज की राजनीतिक समझ तथा बीमारी और इलाज के वर्ग चरित्र की असलियत इनको काम करने के लिए प्रेरित करती है। डॉ. प्रसूना और गेयानन्द, दोनों वामपंथी आंदोलन से जुड़े हुए हैं। वामपंथी आंदोलन से जुड़ाव ही उनको जन अस्पताल आंदोलन को चलाने और आगे बढ़ाने की ढृढ़ता देता है। 2011 में डॉ. प्रसूना ने सीपीआई(एम) के उम्मीदवार के तौर पर स्थानीय निकाय चुनाव लड़ा और विजयी रहीं। अनंतपुर स्नातक निर्वाचक क्षेत्र से सीपीआई(एम) और सीपीआई समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर डॉ. गेयानन्द विधान परिषद् सदस्य चुने गए थे। ये दोनों ही जन विज्ञान वेदिका (JVV) के सदस्य हैं। 

JVV ने दूसरे संगठनों के साथ मिलकर कस्बे में एक मेडिकल कॉलेज खोलने के लिए भारी संख्या में लोगों को लामबंद करने में विशेष भूमिका निभाई है। इन संघर्षों की बदौलत साल 2000 में मेडिकल कॉलेज खुला। जब सरकार ने कॉलेज को दिए जाने वाले पैसे में कटौती करके फीस बढ़ानी चाही तो जवाब में विद्रोहप्रदर्शन शुरू हो गए। JVV की भागीदारी वाले इन विरोधप्रदर्शनों की वजह से सरकार को पीछे हटना पड़ा और कॉलेज को सरकार से मिलने वाली रकम में कटौती नहीं हुई। इस संघर्ष में शामिल होने से मना कर देने वाले दूसरे ज़िलों के मेडिकल कॉलेजों को पैसों की कमी का सामना करना पड़ा और इन कॉलेजों को चलाना मुश्किल हो गया। जन अस्पतालों की लोककल्याण को समर्पित राजनीति और सामाजिक संघर्ष ने अनंतपुर के मेडिकल कॉलेज को बचा लिया। यही वह राजनीति है जो अस्पताल को काम करने के लिए प्रेरणा देती है और अस्पताल का मार्गदर्शन करती है। 

 

प्रगति नर्सिंग होम (ज़हीराबाद)

2004 में डॉ. के. शिवा बाबू ने प्रगति नर्सिंग होम की शुरूआत की। 1990 के दशक में डॉ. बाबू वामपंथ की अगुआई वाले गुंटूर मेडिकल कॉलेज के छात्र आंदोलन में सक्रिय थे। वह मेडिकल कालेजों द्वारा माँगे जा रहे प्रति व्यक्ति शुल्क के ख़िलाफ़ लड़ रही संयुक्त समिति के संयोजक थे। MBBS की डिग्री मिलने के बाद उन्होंने नेल्लोर के जन अस्पताल में 1996 से 1999 तक प्रशिक्षण लिया। राज्य की राजधानी से सौ किलोमीटर दूर बसे ज़हीराबाद में मज़दूर यूनियन आंदोलन ज़ोर पकड़ने लगा था। ज़हीराबाद में सीपीआई (एम) को मज़दूरों की सहायता करने के लिए डॉक्टरों की कमी महसूस हुई। डॉ. बाबू और डॉ. विजयालक्ष्मी ने ज़हीराबाद में अपना अस्पताल खोलने का फैसला किया। वे दिन भर में करीब 80 मरीज़ों को देखते हैं। ज्योंज्यों कस्बा बड़ा होता जा रहा है त्योंत्यों इनके पास आने वाले मरीज़ों की संख्या भी बढ़ रही है।     

डॉ. बाबू ने ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान को बताया कि चुनौतियों के बावजूद जन अस्पताल का मॉडल प्रासंगिक है। सस्ती और अच्छी स्वास्थ्य सेवा ग्रामीण और अर्द्ध शहरी इलाक़ों में रहने वाले लाखों भारतीयों की पहुँच से बाहर है। परंपरागत मेडिकल कॉलेजों में प्रशिक्षित डॉक्टरों के पास स्वास्थ्य का व्यापक नज़रिया नहीं होता है और उनका मकसद विशेषज्ञता हासिल करना तथा मुनाफ़ा कमाना होता है। उनको मरीज़ों को बंधीबंधाई जाँचें करने के लिए बोलने का प्रशिक्षण मिला होता है। वो नतीजों के आधार पर बीमारी की पहचान करते हैं और अक्सर दूसरे महत्त्वपूर्ण कारकों जैसे कि मरीज़ की बीमारियों का इतिहास, पोषण, मनोवैज्ञानिक स्थिति को नज़रअंदाज़ करते हैं। लेकिन नेल्लोर के जन अस्पताल में प्रशिक्षण पाए डॉक्टरों को सामाजिकजैविक कारकों और बीमारियों के बीच के सम्बन्ध के बारे में जानकारी होती है। इन डॉक्टरों को इन पैटर्नों को खोजने और खोजकर इनकी मदद से गैरज़रूरी महँगी जाँच कराए बिना बीमारियों की पहचान करने का प्रशिक्षण मिला होता है। डॉक्टर नेल्लोर के जन अस्पताल में किए गए चिकित्सकीय काम और अनुभवों की वजह से इन पैटर्नों को खोज पाते हैं। प्रशिक्षु डॉक्टर अपने वरिष्ठों से बीमारियों के सामाजिक पहलू के बारे में सीखते हैं। इस तरह का व्यापक नज़रिया संभवतः स्वास्थ्य और कल्याण के उनके राजनीतिक विचारों की वजह से ही विकसित होता है। ये अलगथलग बिखरे हुए सिद्धांत नहीं हैं। ये वर्ग और समाज के ग़ैरबराबरी के ढांचे में धँसे हुए हैं। डॉक्टर स्वास्थ्य समस्याओं को लेकर ज़हीराबाद में चलाए जाने वाले सार्वजनिक अभियानों में नियमित रूप से हिस्सा लेते हैं। इससे उनको ज़िन्दगी के सामाजिक पहलू और उससे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में जानकारी हासिल होती है। JVV भी इस तरह के सामाजिक अभियान चलाकर लोगों को संक्रामक बीमारियों के ख़तरों और साफ़सफाई तथा पोषण के फायदों के बारे में जागरूक करती है। 

 

जन अस्पताल (प्रगति नगर, हैदराबाद)

1990 के दशक में बस और मतदान पेटी बनाने वाली सरकारी कंपनी हैदराबाद एल्विन लिमिटेड के कर्मचारी सीपीआई(एम) से सम्बद्धित भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र (CITU) के सदस्य थे। यूनियन के सदस्यों ने एक सामुदायिक घर खोलने और जन प्रगति ट्रस्ट (People’s Progress Trust) शुरू करने का फैसला किया। ट्रस्ट ने प्रगति नगर नाम की एक रिहाइशी कॉलोनी की शुरूआत की। उन्होंने एक गैरलाभकारी स्कूल भी खोला। वे एक अस्पताल भी खोलना चाहते थे। एल्विन कंपनी 1999 में बंद हो गई। लेकिन रिहाइशी कॉलोनी अभी भी मौजूद है। 

2011 में ट्रस्ट ने चन्दा इकट्ठा किया और बैंक से ऋण लेकर जन अस्पताल नाम से एक सुविधासंपन्न अस्पताल की शुरूआत की। यह अस्पताल एक दानशील संगठन है। इसके ट्रस्टी राज्य के कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़े हुए हैं। अस्पताल के कार्यकारी निदेशक और सीपीआई (एम) के सदस्य आर. श्री रामुलु ने हमें बताया कि बारह पूर्णकालिक डॉक्टरों और एक सौ बिस्तरों वाला यह अस्पताल चिकित्सा सेवा के एवज में मरीज़ों से मिलने वाले पैसे से चलता है। आमदनी का एकमात्र ज़रिया चिकित्सा शुल्क होने के बाद भी अस्पताल सस्ता उपचार उपलब्ध कराता है। औसतन दो सौ पचास मरीज़ रोज़ाना ओपीडी में इलाज करवाने आते हैं। जन अस्पताल विशेष किस्म के उपचार कॉरपोरेट अस्पतालों की तुलना में आधी कीमत पर मुहैया कराता है। विशेषज्ञ डॉक्टर से परामर्श लेने के लिए ओपीडी रोगी को सिर्फ़ 200 रुपये देने होते हैं। दूसरे कॉरपोरेट अस्पतालों में यही शुल्क लगभग 500 रुपये है। अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती हुए लोगों को कॉरपोरेट अस्पतालों की तुलना में 60% कम शुल्क का वहन करना पड़ता है।

 

प्रजा वैद्यशाला  

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) प्रगतिशील डॉक्टरों की देखरेख में प्रजा वैद्यशाला के नाम से तेलंगाना राज्य में बहुत से जन अस्पताल चलाती है। इन अस्पतालों के ख़र्च वहन करने के लिए पार्टी विभिन्न ट्रस्टों के माध्यम से धन इकट्ठा करती है। पार्टी और जन विज्ञान वेदिका सस्ता उपचार और सस्ती दवाइयां मुहैया कराने हेतु मिलकर काम करते हैं। यह तरीका JVV के डॉ. गोपालम शिवन्नारायणा ने विकसित किया था। 

तेलंगाना के खम्मम ज़िले में सीपीआई(एम) का आंदोलन मज़बूत है। यहाँ पार्टी हर महीने चार मेडिकल कैम्प आयोजित करती है। इन कैम्पों में डॉक्टर परामर्श देते हैं और दवाइयां वितरित करते हैं। कई बार गाँवों में पनप रहीं दीर्घकालीन बीमारियों जैसे डायबिटीज और हाई ब्लड प्रेशर के लिए भी दवाइयाँ बाँटी जाती हैं। एक महीने की दवाइयों के लिए सिर्फ़ 100 रुपये देना होता है। बाज़ार में इन्हीं दवाओं की कीमत 1500 से लेकर 3000 रुपये के बीच होती है। सीपीआई(एम) सस्ती जेनेरिक दवाइयों की व्यवस्था करती है। हर महीने करीब दो हज़ार लोग इन कैम्पों में आते हैं। एक साल के दौरान निजी अस्पतालों को इलाज के लिए 27,000 रुपये देने के बजाय इन कैम्पों में साल भर के इलाज के लिए 1,200 रुपये देने होते हैं। ये कैम्प लोगों पर पड़ने वाले इलाज व दवाइयों पर होने वाले व्यय के बोझ को 97% कम कर देते हैं।     

इस इलाके के सीपीआई(एम) नेता बोंथू राममोहन कहते हैं कि लोगों के स्वास्थ्य का ख़्याल रखा जाना बहुत ज़रूरी है। पार्टी को पता चला कि गाँवों में लोगों को मधुमेह के हानिकारक प्रभावों के बारे में पता नहीं था जिसकी वजह से बहुतों को अपने शरीर के अंगों और आँख की रोशनी से हाथ धोना पड़ा और कइयों के गुर्दे ख़राब हो गए। पार्टी ने कैम्प लगाकर मधुमेह के हानिकारक प्रभावों और उसके रोकथाम के बारे में लोगों को बताने के लिए पर्चा बाँटना शुरू किया। कैम्प लगाकर स्वास्थ्य के दूसरे मुद्दों को लेकर भी काम करना शुरू किया गया। खम्मम में किए गए कामों की तर्ज़ पर नालगोंडा में भी काम शुरू किया गया। नालगोंडा में सीपीआई(एम)ने एक ओपीडी स्थापित किया और मासिक कैम्प भी शुरू किया गया। 

पार्टी ने फैसला किया कि वह दवाइयों की महँगाई से सीधे ही निपटेगी। सीपीआई(एम)के तेलंगाना राज्य समिति में स्वास्थ्य के मुद्दों को सँभालने वाले नंदयाला नरसिम्हा रेड्डी ने बताया कि पार्टी ने राज्य के हर ज़िले में एक जेनेरिक दवाई की दुकान खोलने का निर्णय किया है। पार्टी ने हैदराबाद में दवाइयों की एक थोक दुकान खोली। यह ज़िले की दवाइयों की दुकानों को दवाइयाँ देती है जो बिक्री से मिलने वाले पैसों का एक हिस्सा दुकान चलाने के लिए रख सकते हैं। नालगोंडा ज़िले में जेनेरिक दवाइयों की चार दुकानें हैं। 

People waiting for their turn to receive medicines at CPI(M) run camp in Vyra Khammam

वाइरा, खम्मम जनपद, तेलंगाना में सीपीआई(एम) द्वारा चलाए जा रहे एक कैंप में दवाईयाँ प्राप्र करने के लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा करते लोग
छवि साभार: ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान

विकल्प मौजूद हैं

नेल्लोर का जन अस्पताल पिछले 75 सालों से काम कर रहा है। इस दौरान इसके डॉक्टरों और कर्मचारियों ने महसूस किया है कि इस अस्पताल की ज़रूरत अब भी उतनी ही है जितनी कि इसको शुरू करने के वक़्त थी। इन दशकों के दौरान आबादी के बहुसंख्यक हिस्से के फ़ायदे के लिए न ही भारत सरकार और न ही आंध्र प्रदेश सरकार और अब न ही तेलंगाना सरकार ने पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था के पुनर्निर्माण को ज़रूरी समझा है। सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था कमज़ोर है। सरकारी अस्पतालों में काम करने वाले लोगों की कमी है। तमाम उपकरण खराब पड़े हैं। सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की ख़राब हालत का बहाना बनाकर शासक वर्ग स्वास्थ्य सेवा के निजीकरण को बढ़ावा देना चाहता है। सरकार अपने अस्पतालों को दिए जाने वाले पैसे में कमी करके उनकी हालत को खस्ता करती है और कहती है कि सरकारी अस्पताल ठीक ढंग से काम नहीं करते, इसलिए जनता के पैसों के ज़रिए निजी स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। यह एजेण्डा जन अस्पताल के एजेण्डे के ठीक उलट है। 

जनता के पैसों से निजी अस्पतालों की मदद करना स्वास्थ्य व्यवस्था के निजीकरण का मुख्य हथकंडा है। राज्य सरकार जिसमें आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की सरकारें भी शामिल हैं का यह फ़र्ज़ बनता है कि वह ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों के इलाज का ख़र्च वहन करे। ऐसी योजनाओं में हर तरह के इलाज के लिए सरकारी सहायता का प्रावधान होता है। लेकिन इन योजनाओं का पैसा मरीज़ के अस्पताल में भर्ती होकर ज्यादातर शल्यचिकित्सा और दूसरे तरह के ख़ास इलाज करवाने के लिए ही उपलब्ध कराया जा रहा है। ग़रीब मरीज़ इलाज के लिए निजी अस्पतालों में भर्ती होते हैं। इनके ख़र्च का पैसा निजी अस्पताल सरकार से वसूलते हैं। लेकिन सरकार इन अस्पतालों को पैसा तभी देती है जब मरीज़ अस्पताल में भर्ती होकर इलाज कराते हैं। ओपीडी में इलाज कराने की स्थिति में सरकार पैसा नहीं देती। सरकारी बीमा के पैसों को पाने के लिए निजी अस्पताल मरीज़ों को उन स्वास्थ्य समस्याओं के लिए भी भर्ती कर लेते हैं जिनके लिए भर्ती होने और शल्यचिकित्सा कराने की ज़रूरत नहीं होती है। 

इसकी वजह से सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के कीमती सरकारी संसाधन निजी अस्पतालों के पास चले जाते हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था सस्ती प्राथमिक और माध्यमिक सेवा प्रदान करती है। सिर्फ 10 से 20 प्रतिशत मामलों में ही शल्यचिकित्सा और किसी विशिष्ट (टर्शियरी) सेवा की ज़रूरत पड़ती है। ज़्यादातर स्वास्थ्य समस्याओं का निदान करने वाली प्राथमिक और माध्यमिक सेवाओं को पैसों की कमी का सामना करना पड़ता है। आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे इलाक़ों विशेषकर आदिवासी इलाकों में यह समस्या काफी गंभीर है क्योंकि यहाँ निजी अस्पताल हैं ही नहीं। इससे स्वास्थ्य सेवा के लिए मिलने वाला सरकारी पैसा लोगों तक पहुँच नहीं पाता है। लोग या तो अपनी बीमारियों को चुपचाप बर्दाश्त करते हैं या फिर इलाज के लिए दूरदराज़ की जगहों पर पैसे ख़र्च करते हैं। बीमा योजना के माध्यम से निजी अस्पतालों को दिए जाने वाले पैसों से सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था कमज़ोर होती है। सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को मिलने वाले पैसों में हो रही कटौती के कारण महामारियों और अन्य आसानी से रोकी जा सकने वाली बीमारियों का प्रकोप बढ़ सकता है। 

प्राथमिक और माध्यमिक सेवा देने को प्रतिबद्ध जन अस्पताल निजी अस्पतालों के अच्छे विकल्प हैं। ये दर्शाते हैं कि मुनाफ़े वाली शल्यचिकित्सा और विशिष्ट (टर्शियरी) सेवा को पैसा देने की बजाय इसका उपयोग सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को मज़बूत करने के लिए किया जाना चाहिए। जन अस्पतालों को चलाने का मकसद लोगों के लिए परोपकार का काम करना नहीं है। इसका मकसद यह दिखाना है कि मुनाफ़ा की बजाय लोगों की भलाई को महत्त्व देने वाली स्वास्थ्य सेवा भी मौजूद है। आसपास के इलाक़ों के लोगों को स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने वाले नेल्लोर शहर में जन अस्पतालों की वजह से निजी अस्पतालों के ऊपर काफ़ी दबाव बना रहता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जन अस्पताल की वजह से इलाज के ख़र्च में कमी सिर्फ़ उसके दवाख़ानों, अस्पतालों और कैम्पों तक ही सीमित नहीं रहती है। जन अस्पतालों से मुकाबला करने की कोशिश के चलते निजी अस्पतालों को भी अपने यहाँ होने वाले इलाज की कीमत कम रखनी पड़ती है। कम कीमत और अच्छे इलाज की वजह से लोग बहुत बड़ी संख्या में जन अस्पताल में इलाज कराने आते हैं। इसकी वजह से मरीज़ों से ज्यादा पैसा लेने का लक्ष्य होने के बावजूद निजी (कॉरपोरेट) अस्पताल ऐसा करने में असफल रहते हैं। लोगों को भी जन अस्पताल और कॉरपोरेट स्वास्थ्य संस्थानों के बीच मौजूद फ़र्क़ के बारे में अच्छी तरह पता है। जन अस्पतालों की मौजूदगी और सफलता लोगों को सोचने का अवसर देती है कि पूँजीवादी स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था का विकल्प सिर्फ़ संभव ही नहीं बल्कि वास्तविक और ज़रूरी भी है। 

जन अस्पतालों में काम करने वाले डॉक्टर जानते हैं कि उनका काम राजनीतिक है। वे अपने काम के माध्यम से लोगों को वामपंथी आंदोलन और समाजवादी स्वास्थ्य सेवा की संभावना के प्रति जागरूक करते हैं। वे लोगों को आंदोलनों से जोड़ते हैं। अडिग कम्युनिस्ट मूल्य इन अस्पतालों के काम करने का आधार बन जाते हैं।

May Day at Nellore PPC

नेल्लोर जन अस्पताल में मई दिवस का जश्न (सन् 2007)
छवि साभार: के. मस्तनैया