नरक में फँसे हुओं की तड़प: छियालिसवाँ न्यूज़लेटर (2024)
उदारवाद से अटूट रूप से जुड़ा हुआ ‘ख़ास क़िस्म का चरम दक्षिणपंथ’ बहुसंख्यकों की समस्याओं को सुलझाने की बजाय नफ़रत की राजनीति फैलाता है।

Le petit camp à Buchenwald (बुचेनवाल्ड का छोटा सा कैम्प), बोरिस तास्लिस्की (फ़्रांस), 1945
प्यारे दोस्तो,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
जब Inferno (नरक) के Canto VII (खंड सात) में दांते अलीघिएरी और उसका मार्गदर्शक नरक के पाँचवें सोपान में पहुँचते हैं तो उनका सामना होता है स्टाइक्स नदी से, जिसकी अशांत और गंदले पानी की सतह पर वे लोग लोटते और एक-दूसरे से लड़ते हैं जो ज़िंदगी में अपने क्रोध पर काबू नहीं रख सके। और इस सतह के नीच रहते हैं वे लोग जो जीवन में निराश रहे और उनकी कुंठाएँ अब बुलबुलों के रूप में सतह पर आ रही हैं:
और मैं, जो यह सब देखने का इच्छुक हूँ,
देख रहा हूँ उस जज़ीरे में कीचड़ से लथपथ लोग।
सब निर्वस्त्र और आँखों में लिए क्रोध का भाव।
वे एक-दूसरे पर वार कर रहे हैं सिर्फ हाथों से नहीं,
बल्कि सिर से और छाती से और पैरों से भी,
एक-दूसरे के चिथड़े कर रहे है अपने दाँतों से।
हर संस्कृति में नरक के एक ऐसे रूप का वर्णन मिलता ही है जहाँ मृत्यु के बाद वे लोग प्रताड़ना झेलते हैं जिन्होंने जीवन में उन नियमों का उल्लंघन किया हो जो सामाजिक सद्भाव के लिए बनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए भारत में गंगा के मैदानी इलाके में दांते से सदियों पहले किन्हीं अज्ञात रचनाकारों ने गरुड़ पुराण में अट्ठाइस तरह के नरकों का विवरण दिया था। दांते के इन्फर्नो और गरुड़ पुराण की समानताओं को इंसानों द्वारा अनुभव किए जाने वाले सामान्य भय और आशंकाओं के आधार पर समझा जा सकता है: ज़िंदा निगल लिया जाना, डूब जाना या शारीरिक रूप से विकृत हो जाना। मानो अधिकतर लोगों के लिए धरती पर मिलने वाला न्याय काफी नहीं और उनकी आशा होती है कि कोई अलौकिक न्याय ही अंतत: किसी को वो सज़ा देगा जो अब तक नहीं मिली थी।

Bima Swarga, वायन केटिग (इंडोनेशिया), c. 1970
जनवरी 2025 में डॉनल्ड ट्रम्प दूसरी बार संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) के राष्ट्रपति बनेंगे। ट्रम्प ने क्रोध की उस राजनीति का सहारा लिया है जो हमारी दुनिया के लिए कोई नई चीज़ नहीं। ऐसी क्रोध या गुस्से पर आधारित राजनीति दुनिया के कई देशों में देखी जा सकती है, इनमें यूरोप के देश भी शामिल हैं जो आमतौर पर खुद को इस पाश्विक भाव से ऊपर और तर्क का महाद्वीप मानता है। उदारवादियों का आग्रह रहता है कि क्रोध की इस राजनीति को फ़ासीवाद करार दे दिया जाए, लेकिन यह सही नहीं। ट्रम्प और दुनियाभर में उस जैसे दूसरे नेता (इटली की जियॉर्जिया मेलोनी से लेकर अर्जेन्टीना के हावियर मिलेइ तक) खुद को फ़ासीवादी के तौर पर पेश नहीं करते और न ही उसके प्रतीक ओड़ते हैं या वैसे शब्दाडंबर का इस्तेमाल करते हैं। हालांकि इनके कुछ अनुयायी ज़रूर स्वास्तिक और दूसरे फ़ासीवादी प्रतीकों का प्रयोग करते हैं लेकिन ज़्यादातर इस बात को लेकर बहुत सावधान रहते हैं। वे सैन्य वर्दी नहीं पहनते और न ही वे सेना का आह्वान करते हैं अपना साथ देने के लिए। इनकी राजनीति विकास और व्यापार के आधुनिक रेटरिक पर टिकी होती है जो नागरिकों से नौकरियों और सामाजिक कल्याण के वादे भी करती है। ये पारंपरिक उदारवादी और रूढ़िवादी दलों के आपसी नवउदारवादी समझौते की ओर इशारा कर, उनके अभिजात्यवादी व्यवहार के लिए उनका मज़ाक उड़ाते हैं। वे अभिजात्य वर्ग के बाहर के व्यक्तियों को सामान्य की श्रेणी से ऊपर लाकर उन्हें मसीहा बना देते हैं, ऐसे पुरुष और औरतें जिनका दावा है कि वे ही भुला दिए गए मज़दूरों और पतनशील मध्यवर्ग की आवाज़ बनेंगे। ये खुद को पारंपरिक उदारवादी और रूढ़िवादी दलों से अलग दिखाने के लिए गुस्से में बोलते हैं। क्योंकि ये पारंपरिक दल लगभग पूरी दुनिया में मौजूद भयानक सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के बारे में बहुत भावहीनता से बात करते हैं।
इन सबसे एक सवाल उठता है: क्या इस ‘खास किस्म के चरम दक्षिणपंथ’ के नेता – एक ऐसा दक्षिणपंथ जो उदारवाद से अंतरंग रूप से जुड़ा हुआ है – कोई खास काम कर रहे हैं? इनको गौर से देखने से पता चलता है कि ये सिर्फ उस आधार पर ही अपनी राजनीति बना रहे हैं जो पारंपरिक उदारवादी और रूढ़िवादी दलों के बेरंग नेतृत्व ने तैयार किया था। उदाहरण के लिए, पारंपरिक दलों ने पहले से ही:
- निजीकरण और अविनियमन के ज़रिए सामाजिक तानेबाने को बर्बाद कर दिया है, उबराइजेशन [उबर की तर्ज़ पर मौजूदा सेवाओं के क्रय-विक्रय का नया तरीका] के ज़रिए मज़दूर संगठनों को कमज़ोर कर दिया है और समाज को बाँट-बाँट कर उसमें असुरक्षा तथा अकेलापन पैदा कर दिया है।
- ऐसी नीतियाँ लागू की हैं जिनसे महँगाई बढ़ी है और आय कम हुई है जबकि कुछ चुनिंदा लोगों की संपत्ति शिथिल कर व्यवस्था और स्टॉक मार्केट के आए उछालों के ज़रिए बढ़ती गई है।
- राज्य के दमनकारी तंत्र को मज़बूत करने और असहमति की आवाज़ को दबाने का काम किया है, इनमें वे आवाज़ें भी शामिल हैं जो मज़दूर-वर्ग के आंदोलन को फिर से खड़ा करना चाहती हैं।
- युद्ध और तबाही को बढ़ावा दिया है, उदाहरण के लिए यूक्रेन में शांति वार्ता में अड़चन पैदा करके और यूएस-इज़राइल द्वारा फिलिस्तीनियों के नरसंहार को प्रोत्साहन देकर।
इस तरह का क्रोध समाज में पहले से ही मौजूद है हालांकि नए किस्म के चरम दक्षिणपंथ ने इसे जन्म नहीं दिया है। क्रोध की यह दुनिया पारंपरिक उदारवादी और रूढ़िवादी दलों के नवउदारवादी समझौते की देन है। ये दुनिया न जर्मनी के लिए विकल्प (Alternative für Deutschland, AfD), न फ़्रांस की राष्ट्रीय रैली (Rassemblement national) और न ही ट्रम्प के पहले कार्यकाल में बनी थीं, भले ही इनकी नीतियाँ जितनी भी घृणास्पद रही हों। नवउदारवादी समझौतों से उपजे एक क्रोधित समाज का फ़ायदा उठाकर ये शक्तियाँ राज्य की सत्ता पर क़ाबिज़ होती हैं।

Yanagikaze Fukiya no Itosuji, टोयोहारा कुनीचिका (जापान), 1864
ट्रम्प और उनके राजनीतिक सहयोगियों की भाषा बेशक खतरनाक है। वे बहुत सामान्य तौर से क्रोध ज़ाहिर करते हैं और इस क्रोध का निशाना वंचितों (खासतौर से प्रवासियों और खुद से असहमति रखने वालों) को बनाते हैं। उदाहरण के लिए ट्रम्प शरणार्थियों के बारे में इस तरह बात करता है जैसे वे कीड़े-मकोड़े हों जिन्हें खत्म किया जाना चाहिए। खास किस्म के चरम दक्षिणपंथ के रेटरिक में पुरानी पतनशील भाषा सुनाई देती है, मृत्यु और अव्यवस्था की भाषा। लेकिन यह उनका स्वर है उनकी नीति नहीं। पारंपरिक दलों के उदारवादी समझौते ने तो पहले ही सरहदों पर सेनाएँ भेज दी थीं, झुग्गियों-बस्तियों में घुसपैठ की है, अपने देशों की सामाजिक सहायता और कल्याण की नीतियों में बजट कटौतियाँ की हैं और देश के भीतर और बाहर दमनकारी कर्रवाइयों पर खर्च बढ़ाया है। नवउदारवादी समझौतों के पुराने नेता कहते आए हैं कि ‘अर्थव्यवस्था’ फलफूल रही है। इससे उनका मतलब है कि स्टॉक बाज़ार वालों की पाँचों उँगलियाँ घी और सिर कढ़ाई में है; वे कहते हैं कि वे महिलाओं के उनके स्वास्थ्य पर अधिकार की रक्षा करेंगे लेकिन इस दिशा में कोई कानून पारित नहीं करते; वे कहते हैं कि वे युद्धविराम चाहते हैं लेकिन फिर युद्ध और नरसंहार जारी रखने के लिए और हथियार दे देते हैं। नवउदारवादी समझौते ने समाज को तो पहले से ही विस्थापित कर दिया है। चरम दक्षिणपंथी दल सिर्फ दोगलेपन से कुछ दूर हट गए हैं। वे नवउदारवादी समझौते के विरुद्ध नहीं है बल्कि यह इसका ज़्यादा सटीक प्रतिबिंब है।
इसके बावजूद खास किस्म के चरम दक्षिणपंथी दलों को वोट देने वालों में अतार्किक क्रोध का भाव नहीं है, यह तो कल्पनाहीन नवउदारवादी नेताओं का गढ़ा हुआ एक जुमला है। खास किस्म के चरम दक्षिणपंथ के अग्रणी नेताओं को उनकी भाषाशैली की वजह से दांते के नरक के पाँचवे सोपान में रखा जाएगा। वे असल में क्रोध में रहने वाले हैं। उदारवादी और रूढ़िवादी पारंपरिक दलों के उनके अभिजात्य प्रतिद्वंद्वी निराशा में रहने वाले हैं जो गंदले पानी में अपनी असल भावनाएँ दबाए बैठे हैं।

इन्फर्नो, फ्रांज़ वॉन स्टक, 1908
2017 में ब्राज़ील की Perseu Abramo Foundation ने साओ पाओलो में झुग्गी-बस्तियों में रहने वालों की राजनीतिक समझ और मूल्यों के बारे में एक शोध प्रकाशित किया। इसमें पाया गया कि ये लोग अधिक सामाजिक सहायता और कल्याण की नीतियों के पक्ष में हैं। वे जानते हैं कि सिर्फ अपनी कड़ी मेहनत के बल पर उनका जीवन नहीं चल सकता इसलिए उन्हें उम्मीद रहती है कि सरकारी नीतियों से उन्हें अतिरिक्त सहायता मिले। इस तरह की राय से सैद्धांतिक तौर पर वर्गीय राजनीति का विकास होना चाहिए। लेकिन शोधकर्ताओं ने पाया कि ऐसा नहीं है: बल्कि नवउदारवादी विचार इन बस्तियों में घर कर गए हैं जिससे यह रहने वाले अमीर और गरीब के बीच के मुख्य संघर्ष को नहीं देख पाते बल्कि उनके लिए राज्य और व्यक्ति के बीच का संघर्ष मुख्य हो जाता है और पूँजी इस पूरी बहस से अलग बनी रहती है। ऐसे कई दूसरे अध्ययन भी हो चुके हैं जिनके निष्कर्ष इस शोध के निष्कर्षों जैसे ही हैं। ऐसा नहीं कि मज़दूर वर्ग के वे हिस्से जो खास किस्म के चरम दक्षिणपंथ की तरफ जाते हैं उनमें बेतरतीब गुस्सा है या वे भ्रमित हैं। वे अपने अनुभवों को लेकर बहुत स्पष्ट हैं लेकिन अपनी ज़िंदगी की बर्बादी का कसूरवार राज्य को ठहराते हैं। क्या आप उन्हें इसके लिए गलत ठहरा सकते हैं? राज्य के साथ उनके संबंध सामाजिक कार्यकर्ताओं या कल्याणकारी अफ़सरों के द्वारा नहीं बनते बल्कि खास तरह की पुलिस की निर्ममता पर बनते हैं जो उनसे उनके नागरिक और मानव अधिकार छीनती है। इसलिए उनके लिया राज्य का अर्थ है नवउदारवादी समझौता और इससे नफ़रत करना। इस मटमैले पानी से निकले दक्षिणपंथी राजनेता मसीहा ही लगते हैं। इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि इनके पास उस बर्बादी को ठीक करने का कोई उपाय नहीं जो उदारवादी नीतियों वाले पारंपरिक दलों समाज पर थोपी है: ये भी कम-से-कम उनसे नफ़रत तो करते हैं।

Keeping up the Pureness (पवित्रता को बचाए रखना), फुयूको मात्सूई (जापान), 2004
इसके बावजूद खास किस्म के चरम दक्षिणपंथ का अजेंडा एक बड़े वर्ग की परेशानियों को हल करना नहीं है। उनका अजेंडा है समाज पर तेज़ाबी राष्ट्रवाद थोपकर इन परेशानियों को और बढ़ाना। इस तरह का राष्ट्रवाद इंसान के इंसान के प्रति प्रेम पर नहीं बल्कि वंचितों के प्रति घृणा पर आधारित होता है। यह घृणा ही देशप्रेम का रूप धर लेती है; राष्ट्रीय ध्वज ऊँचे से ऊँचा होता चला जाता है और राष्ट्रीय गान के लिए उत्साह कई गुना बढ़ जाता है। देशप्रेम से गुस्से और हिंसा की बू आने लगती है, नारकीय मटमैले पानी की बू आने लगती है। राष्ट्रीय ध्वज और गान के लिए देशप्रेम होना एक बात है और भुखमरी तथा निराशा के खिलाफ देशप्रेम होना दूसरी।
इंसान में सभ्य होने की चाह होती है लेकिन यह चाह निराशा और क्रोध के कीचड़ में घुलकर दबी रह जाती है। दांते और उसका मार्गदर्शक नरक के सभी सोपानों से होते हुए, तमाम धराओं और खाइयों को पार करके आकाश में बने एक छोटे से छेद तक पहुँचते हैं जिसमें से उन्हें सितारे दिखाई देते हैं और उन्हें स्वर्ग की पहली झलक मिलती है। हम सभी सितारे देखने के लिए तड़प रहे हैं।
सस्नेह,
विजय