कहीं जलकर ख़ाक न हो जाए दुनिया: तेइसवाँ न्यूज़लेटर (2025)
हमारे सामने खड़े जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संकट की वजह है पूँजीवाद का हिंसक स्वरूप। क्या COP23 इसके बहुपक्षीय उपाय निकाल सकेगा?

अमरीकी सियार की खाल – धूल भरे पंजे, रेबेका ली कुन्ज़ (चेरोकी नेशन ऑफ ओक्लाहोमा), 2022.
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के दस्तावेज़ पढ़कर मैं मायूस हो जाता हूँ। सब कुछ बर्बाद नज़र आता है। इसकी मुख्य वजह है पूँजीवाद की सामाजिक प्रक्रियाएँ जिनमें प्रकृति का दोहन और कार्बन उत्सर्जन करने वाले ईंधन पर निर्भरता शामिल है। उदाहरण के लिए:
- धरती के लगभग अस्सी लाख पौधों और जानवरों की प्रजातियों में से दस लाख पर विलुप्त हो जाने का ख़तरा मँडरा रहा है।
- खाद्य उत्पादन की पूंजीवादी कृषि-व्यापार प्रणाली की वजह से जैविक विविधता का नाश, संकटग्रस्त प्रजातियों के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
- वर्तमान में दुनिया में रहने योग्य ज़मीन के 30% भाग का इस्तेमाल कृषि उत्पादन के लिए होता है और भूमि परिवर्तन, प्रदूषण और मिट्टी की गुणवत्ता ख़राब करने की वजह से यह 86% ज़मीन की जैव विविधता के संभावित नुक़सान का कारण है।
अनेकों वैज्ञानिक दस्तावेज़ों में जो तमाम तथ्य दिए गए हैं ये सिर्फ़ उनमें से तीन हैं। इस बात पर जितना ज़ोर दिया जाए कम है कि पर्यावरण का नुक़सान समस्त मनुष्य जाति नहीं कर रही बल्कि सामाजिक गठन की एक ख़ास व्यवस्था कर रही है जिसे हम पूँजीवाद कहते हैं।

Dandora (Xala, Musicians), माइकल आर्मिटाज (केन्या), 2022.
एंथ्रोपोसीन (एक भूवैज्ञानिक युग जो पृथ्वी की व्यवस्था पर ख़ास मानव प्रभाव को दर्शाता है, इस शब्द का प्रयोग पहले वैज्ञानिकों ने और फिर समाज शास्त्रियों ने करना शुरू किया) शब्द की समस्या है इसका निहितार्थ, कि बिना किसी विभाजन के सभी इंसान हमारे सामने खड़े पर्यावरण संकट के लिए ज़िम्मेदार हैं। यह शब्द बहुत आसानी से पूँजीवादी व्यवस्था और इसके साथ आए वर्ग तथा राष्ट्र विभाजन की भूमिका को कम कर देता है। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि मानव समाज अपने मौजूदा उपभोग को जारी रखने के लिए 1.7 पृथ्वी के बराबर संसाधनों का इस्तेमाल कर रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो पृथ्वी को प्राकृतिक संसाधनों को फिर से उत्पन्न करने में जितना समय लगता है हम उसके मुक़ाबले 75% ज़्यादा तेज़ी से उनका प्रयोग कर रहे हैं। यह सिर्फ़ जलवायु परिवर्तन तक सीमित समस्या नहीं है, हमने धरती पर कितना पर्यावरण के लिहाज से बहुत दबाव डाल दिया है (जैसे जंगलों की कटाई, ज़रूरत से जयद मछली पकड़ने, मीठे पानी का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल और मिट्टी के क्षरण आदि से)।
अगर हम इस अविभाजित मानव जाति की अवधारणा को देश के आधार पर बाँटे तो विभाजन साफ़ नज़र आने लगने हैं। अगर दुनिया का हर व्यक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका (अमेरिका) के औसत व्यक्ति की तरह जीने लगे तो हमें पाँच पृथ्वियों की ज़रूरत पड़ेगी। अगर हर कोई यूरोपीय यूनियन के औसत व्यक्ति की रहना शुरू कर दे तो तीन पृथ्वियों की। अगर सभी भारतीयों की तरह रहने लगें तो हमें ज़रूरत पड़ेगी 0.8 पृथ्वी की। और यमन के लोगों की तरह सब रहने लगे तो 0.3 पृथ्वी की। सभी इंसानी समाजों को एक ही चश्मे से देखने की वजह से दुनिया की विषमताएँ और कुछ समाजों की ज़रूरतें दबा दी जाती हैं – जैसे यमन की जनता के गरिमामय जीवन जीने के लिए ज़रूरी है कि उनका उपभोग बढ़ाया जाए।
एंथ्रोपोसीन की अवधारणा तथ्यों को उजागर करने की बजाय उन्हें छिपाती ज़्यादा है।

Les Initiés, रॉजर बोटेम्बे (कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य), 2001.
कुछ ही महीनों में COP30 के लिए कई निजी विमान ब्राज़ील के बेलेम में उतरेंगे। अमेज़न नदी के मुहाने पर स्थित बेलेम संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन रूपरेखा सम्मेलन (UNFCCC) के सदस्यों के तीसवें सम्मेलन के लिए बिलकुल सही जगह है। एक चौथाई सदी से अमेज़न क्षेत्र में भारी तादाद में वन काटे गए हैं, सिर्फ़ ब्राज़ील के अमेज़न क्षेत्र में ही 2000 से 2023 के बीच कुल 264,000 वर्ग किलोमीटर जंगल काटे गए हैं – यह न्यूज़ीलैंड और यूके दोनों के कुल क्षेत्र के बराबर है। ब्राज़ील के राष्ट्रपति लूला डी सिल्वा के अहम प्रयासों ने इस ट्रेंड को पलटने में काफ़ी बढ़त बनाई है लेकिन और भी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है। बेलेम में COP30 आयोजित करना न सिर्फ़ अमेज़न को बचाने का एक मज़बूत संदेश देता है बल्कि पृथ्वी तथा मानवता के भविष्य को बचाने की ज़रूरत को भी उजागर करता है।
ब्राज़ील में हमरी टीम फिलहाल जलवायु और पर्यावरण से जुड़े पूँजीवादी संकट पर दस्तावेज़ों की एक शृंखला पर काम कर रही है जो COP30 के दौरान वितरित किए जाएँगे। हमारे विश्लेषण से स्पष्ट है कि ‘ग्रीन पूँजीवाद’ इस संकट का उपाय क़तई नहीं है; जैसा कि जेसन हिकल ने अफ्रीका पर केंद्रित न्यूज़लेटर में लिखा पूँजीवाद की वजह से ही हम इस संकट को झेल रहे हैं। ग्रीन पूँजीवाद के छलावे से परे हम कुछ शुरुआती माँगें सबके सामने पेश कर रहे हैं।

सेलेस्टियल अंडरवियर, जगत वीरसिंघे (श्रीलंका), 2003.
- जलवायु और पर्यावरण से जुड़ी बहसों को लोकतांत्रिक बनाया जाना चाहिए। जिन कॉरपोरेशनों के हित पर्यावरण और जलवायु की तबाही से जुड़े हैं वे इन मुद्दों पर बंद दरवाज़ों के पीछे बहसें नहीं आयोजित कर सकते। उदाहरण के लिए ज़रबाइजान के बाकू में आयोजित COP29 को आंशिक रूप से तेल कंपनियों ने फंड किया जैसे ExxonMobil, Chevron, Octopus Energy, अज़रबाइजान गणराज्य की राष्ट्रीय तेल कंपनी के साथ अमेरिकी चैम्बर ऑफ़ कामर्स तथा वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम (जिसे ख़ुद आंशिक रूप से अमेरिकी सरकार फंड करती है)। जब सत्ता और पैसे की बात आती है तो जिसकी लाठी उसकी भैंस की कहावत बिलकुल सही बैठती है। संयुक्त राष्ट्र के ऐसे सम्मेलन के लिए फंड तमाम सरकारों को देना चाहिए और इनमें होने वाली सभी बातचीत को लेकर पारदर्शिता होनी चाहिए।
- विश्व भर की सरकारों को अपने समझौतों और संधि दायित्वों को सशक्त करना होगा। यह समझना ज़रूरी है कि अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के दबाव में किसी भी प्रमुख जलवायु समझौते में मुआवज़े को लेकर ठोस बात नहीं कही गई, इस मुआवज़े को ‘हानि और क्षति’ कहा जाता है (यानी जलवायु क्षति का मुआवज़ा)। हानि और क्षति कोष में योगदान स्वैच्छिक है, जैसा कि 1992 यूएनएफसीसीसी से लेकर 2013 के वारसॉ अंतर्राष्ट्रीय तंत्र, 2015 के पेरिस समझौते, 2021 की ग्लासगो जलवायु संधि और 2022 के ब्रेकथ्रू ऑन फ़ंडिंग मकैनिज़म तथा 2023 के हानि और क्षति कोष समझौते तक कई प्रक्रियाओं और संधियों से पता चलता है।

जो लोहे से चोट पहुँचाएगा, लोहे से ही चोट खाएगा, डेनिल्सन बनिवा (ब्राज़ील), 2018.
- ऊर्जा परिवर्तन की एक न्यायोचित योजना को लोकतांत्रिक तरीक़े से आकार दिया जाना चाहिए। इस योजना में यह ज़रूर शामिल होना चाहिए कि कार्बन आधारित ईंधन बेचने वाली निजी कंपनियों को मिलने वाली सरकारी सब्सिडी बंद की जानी चाहिए। इसकी जगह नए प्रकार की ऊर्जा को प्रोत्साहन देने के लिए फंड दिया जाना चाहिए और साथ ही जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण का संकट झेल रहे समुदायों की रक्षा के लिए भी।
- कृषि सुधार के ज़रिए वैश्विक अर्थव्यवस्था को नया रूप दिया जाना चाहिए। इस तरह के सुधार को कृषि के वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक स्वरूप पर ज़ोर देना चाहिए जिससे मिट्टी, पानी और हवा की सुरक्षा की जा सके। जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण के संकट को सुलझाने के लिए सरकारों को ऐसे शोध करने होंगे जिनसे पता लगाए जा सके कि कृषि का नया स्वरूप कैसा होना चाहिए। हमें नई तरह के कृषि-जलवायु मानचित्रण और डाटा की ज़रूरत है जिससे समझा जा सके कि स्थानीय समुदायों के ज्ञान का इस्तेमाल कर प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को कैसे सुरक्षित रखा जा सके, इसके साथ ही प्राकृतिक संसाधनों का सबके लाभ के लिए सतत प्रयोग कैसे किया जाए। मानचित्रण की यह प्रकिया हमें जंगल की कटाई से बचने और पुनर्वनरोपण को प्रोत्साहित करने में मदद करेगी तथा बिना सामाजिक और पर्यावरण से जुड़े भयानक संकट पैदा किए प्राकृतिक संसाधनों के खनन में भी। उदाहरण के लिए क्या हम 2027 तक जंगलों की शून्य कटाई का लक्ष्य प्राप्त करने का वादा कर सके हैं?

जावारी घाटी आदिवासी क्षेत्र, अमाजोनेस राज्य, ब्राज़ील, सेबास्तियाओ साल्गाडो (ब्राज़ील), 1998.
ऊपर दिख रही यह तस्वीर हमारे दोस्त सबास्तियो सल्गाडो (1944-2025) ने ली थी, इसी 23 मई को उनकी मृत्यु हो गई। सल्गाडो ने मज़दूर वर्ग और किसानों का गरिमापूर्ण चित्रण किया तथा उनके चित्रों में इन वर्गों के शोषण का रूमानी स्वरूप नहीं दिखता। वे हमेशा इनके संघर्षों तथा संगठनों के साथ खड़े रहे। 1996 में साउथ पारा में हुए Eldorado do Carajás जनसंहार में भूमिहीन मज़दूर आंदोलन (Movimento dos Trabalhadores Rurais Sem Terra, या MST) से जुड़े उन्नीस कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई। इसके बाद सल्गाडो ने गायक चीको बुआर्क और होज़े सारामगो के साथ मिलकर Terra (ज़मीन) नाम की एक क़िताब तैयार की जिसकी बिक्री से होने वाली सारी आय MST को दे दी गई। इसके साथ ही सल्गाडो ने अपनी कुछ तस्वीरें भी दान कीं जिससे MST को अपना Florestan Fernandes National School बनाने में मदद मिली।
सल्गाडो को ट्राईकॉन्टिनेंटल का काम बहुत पसंद था और वे बीच-बीच में हमारे काम को प्रोत्साहित करने के लिए संदेश भेजा करते थे। मानवता के लिए उनके महान योगदान के लिए हम सम्मान में उनके सामने अपना शीश झुकाते हैं।

1843 में, जूलियो सीज़र रिबेरो डी सूजा नाम के एक व्यक्ति का जन्म बेलेम में हुआ था, जो अमेज़ॅन के वेले डो जवारी से दूसरी तरफ़ था, जिसकी फोटो सालगाडो ने खींची थी। सूज़ा को पक्षी देखना बहुत पसंद था और प्रकृति के साथ उनकी इसी नज़दीकी रिश्ते ने उन्हें गरम हवा के ऐसे ग़ुब्बारे का आविष्कार करने की प्रेरणा दी जिसे मोड़कर उसका दिशानिर्धारण किया जा सकता था, पक्षियों की उड़ने की योग्यता का अनुसरण करते हुए। शायद हमें यही आदर्श अपने सामने रखना चाहिए: प्रकृति पर आधिपत्य नहीं स्थापित करना; बल्कि इससे सीखना है और इसके बीच जीना है।
सस्नेह,
विजय