बुचेनवाल्ड यातना शिविर को कम्युनिस्ट क़ैदियों ने आज़ाद करवाया था: पंद्रहवाँ न्यूज़लेटर (2025)
यूरोप में फैल रहा ख़ास क़िस्म का चरम दक्षिणपंथ, फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की सफल ऐतिहासिक घटनाओं को लगातार मिटाने की कोशिश कर रहा है।

बुचेनवाल्ड यातना शिविर में विद्रोह 11 अप्रैल, 1945, बोरिस तस्लिट्ज़की (फ्रांस), 1964.
प्यारे दोस्तो,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
अस्सी साल पहले 11 अप्रैल 1945 को संयुक्त राज्य अमेरिका (अमेरिका) की सेना की जेनरल जॉर्ज एस. पैटन की चौथी सशस्त्र टुकड़ी जर्मनी के वाइमर शहर की ओर बढ़ी जहाँ बुचेनवाल्ड यातना शिविर स्थित था। पैटन की टुकड़ी ने बुचेनवाल्ड शिविर को अपने क़ब्ज़े में ले लिया। लेकिन बाद में आए इतिहासकारों के दस्तावेज़ों, जिनमें सैनिकों के विवरण दर्ज हैं, से पता चलता है कि अमेरिकी टैंकों ने बुचेनवाल्ड को आज़ाद नहीं करवाया था। दरअसल, मित्र (Allied) राष्ट्रों की सफलता की वजह से जर्मन सैनिक भागने लगे थे और इसी का फ़ायदा उठाते हुए शिविर के क़ैदियों ने संगठित होना शुरू किया और अमेरिकी टैंकों के पहुंचने से पहले ही शिविर को आज़ाद करवा लिया था।
बुचेनवाल्ड के राजनीतिक क़ैदियों ने लड़ाकू दलों (Kampfgruppen) का गठन किया था, जिन्होंने अपने छिपे हथियारों के ज़रिए शिविर के अंदर एक विद्रोह खड़ा किया, तथा नाज़ी सैनिकों को शिकस्त देकर शिविर के प्रवेश द्वार पर स्थित मीनार को अपने क़ब्ज़े में ले लिया। इस मीनार पर क़ैदियों ने सफ़ेद झंडा फहराकर पूरे शिविर के बाहर घेरा बना लिया ताकि अमेरिकी सैनिकों को बताया जा सके कि यह शिविर आज़ाद हो चुका है। उन्होंने कहा ‘Das Lager hatte sich selbst befreit’; ‘इस यातना शिविर ने ख़ुद को आज़ाद करवा लिया है’।
सिर्फ़ बुचेनवाल्ड में ही क़ैदियों ने विद्रोह नहीं किया था। अगस्त 1943 में ट्रेबलिंका के क़ैदियों ने भी सशस्त्र विद्रोह किया था। हालाँकि उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया था, लेकिन उन्होंने नाज़ियों को यह घिनौना यातना शिविर (जहां लगभग दस लाख यहूदियों की हत्या की गई थी) बंद करने पर मजबूर कर दिया था।
सोवियत संघ की लाल सेना और अमेरिकी सेनाओं ने ऐसे कई यातना शिविरों को आज़ाद करवाया था जिन्हें होलोकॉस्ट के दौरान निर्मम हत्याएँ करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा था। अप्रैल 1945 में अमेरिकी सेना ने दचाऊ कैम्प को आज़ाद करवाया। लेकिन सबसे भयानक यातना कैम्पों को आज़ाद कराने में लाल सेना ने अहम भूमिका निभाई थी। जैसे, पोलैंड में माज्दानेक (जुलाई 1944), ऑशविट्ज़ (जनवरी 1945) और जर्मनी में साक्सेनहौसेन (अप्रैल 1945) और रेवनब्रुक (अप्रैल 1945)।

K.L. Dora: Bydlení ve štole (के. एल. डोरा: सुरंग के भीतर रहना), डॉमिनिक सर्नी (चेकोस्लोवाकिया), 1953.
जुलाई 1937 में नाज़ी सत्ता साक्सेनहौसेन के क़ैदियों को पास के इलाक़े वाइमर में ले गई। यह जगह कभी जोहान वोल्फगैंग वॉन गोएथे और फ्रेडरिक शिलर का घर थी और साल 1919 में यहीं जर्मनी के संविधान पर हस्ताक्षर हुए थे। इन क़ैदियों से लगभग 400 एकड़ जंगल साफ़ करवाकर बुचेनवाल्ड यातना शिविर के लिए जगह बनवायी गई। यहां एक समय पर 8,000 क़ैदियों को रखा जा सकता था, जिनसे बंधुआ मज़दूरी करवाई जाती थी और जिन पर नाज़ी कैम्प कमांडर हर्मन पिस्टर (1942-1945) ने मेडिकल प्रशिक्षण भी किए। आठ साल बाद जब यह कैम्प बंद हुआ तब तक यहाँ लगभग 2,80,000 क़ैदी रखे जा चुके थे (इनमें ज़्यादातर क़ैदी नाज़ी सत्ता की खिलाफत करने वाले कम्युनिस्ट, सोशल डेमोक्रेट, रोमा व सिंती, यहूदी और ईसाई थे)। साल 1943 में इस कैम्प में नाज़ियों ने 8,500 सोवियत युद्धबंदियों और कई कम्युनिस्टों व सोशल डेमोक्रेटों की गोली मारकर हत्या की थी। आठ सालों में यहाँ नाज़ियों ने अंदाज़तन 56,000 क़ैदियों की हत्या की थी जिनमें जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी (KPD) के नेता अर्न्स्ट थालमन भी शामिल थे। ग्यारह साल तक एकाकी क़ैद में रखने के बाद 18 अगस्त 1944 को थालमन को गोली से मार दिया गया था। लेकिन बुचेनवाल्ड कैम्प, माज्दानेक व ऑशविट्ज़ जैसे कैम्पों की तरह हत्याएँ करने के लिए नहीं बना था। यह कैम्प सीधे तौर पर अडॉल्फ़ हिट्लर के ‘यहूदियों की समस्या के अंतिम समाधान’ (Endlösung der Judenfrage) के घिनौने कार्यक्रम का हिस्सा नहीं था।
बुचेनवाल्ड के अंदर कम्युनिस्टों और सोशल डेमोक्रेटों ने अंतर्राष्ट्रीय कैम्प कमेटी स्थापित की। इसके ज़रिए उन्होंने कैम्प के भीतर ख़ुद को संगठित किया और नाज़ियों के योजनाओं को नाकाम करने तथा विद्रोह खड़ा करने का काम किया। नज़दीक की एक हथियार बनाने की फ़ैक्टरी के ख़िलाफ़ किया गया विद्रोह इस कमेटी की सबसे यादगार कार्रवाइयों में से है। इस संगठन ने 1944 में पॉप्युलर फ़्रंट कमेटी का रूप लिया, जिसके चार नेता थे: हरमन ब्रिल (जर्मन पीपल्स फ़्रंट), वर्नर हिल्पर्ट (ईसाई डेमोक्रेट), अर्न्स्ट थेप (सोशल डेमोक्रेट) और वॉल्टर वुल्फ़ (जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी)। इस संगठन की ख़ास बात यह थी कि क़ैदी होते हुए भी इस कमेटी के सदस्यों ने एक ऐसे नए जर्मनी की संभावना पर चर्चा शुरू कर दी थी जहाँ से नाज़ियों का नामोनिशान मिटा दिया गया होगा और जो कि एक सहकारी अर्थव्यवस्था पर आधारित होगा। बुचेनवाल्ड में रहते हुए वुल्फ़ ने अपनी पुस्तक A Critique of Unreason: On the Analysis of National Socialist Pseudo-Philosophy (अतार्किकता की आलोचना: राष्ट्रीय समाजवादी छद्म दर्शन का विश्लेषण) लिखी।

ब्लॉक 51. बुचेनवाल्ड. लघु शिविर, नाचुम बैंडल (यूक्रेन), 1947.
बुचेनवाल्ड के क़ैदियों ने अपनी आज़ादी के एक हफ़्ते बाद अपने फ़ासीवाद विरोधी प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में यातना शिविर के पास एक लकड़ी का बुत स्थापित किया। वे इस कैम्प को वहाँ की गई हत्याओं के लिए नहीं बल्कि क़ैद के दौरान उनके द्वारा किए गए प्रतिरोध और आज़ादी की लड़ाई के लिए याद रखना चाहते थे। 1945 में क़ैदियों ने बुचेनवाल्ड शपथ लिखी थी, जो उनके संघर्ष का मूलमंत्र थी: ‘हम तब तक अपनी लड़ाई ख़त्म नहीं करेंगे जब तक कि सभी राष्ट्रों में हर गुनाहगार के ख़िलाफ़ कोर्ट में सुनवाई पूरी नहीं हो जाती। नाज़ीवाद को जड़ से ख़त्म करना हमारा मक़सद है। शांति और स्वतंत्रता पर आधारित एक नई दुनिया का निर्माण हमारा लक्ष्य है’।
तत्कालीन जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक (DDR या पूर्वी जर्मनी) में स्थित यह कैम्प बाद में मुक़दमों का इंतज़ार कर रहे नाजियों को क़ैद करने हेतु जेल के रूप में इस्तेमाल किया गया। कुछ नाज़ियों को उनके गुनाहों के लिए गोली मार दी गई थी। वाइमर का मेयर कार्ल ऑटो कोच भी यहीं मारा गया था, जिसने 1941 में शहर में यहूदियों की गिरफ़्तारी करवाई थी। दूसरी ओर फ़ेडरल रिपब्लिक ऑफ़ जर्मनी (पश्चिमी जर्मनी) में तेज़ी से नाज़ियों को राज्य की नौकरशाही में समाहित किया जा रहा था, Bundeskriminalamt (फ़ेडरल क्रिमिनल पुलिस) के दो तिहाई वरिष्ठ स्टाफ़ मेंबर भूतपूर्व नाज़ी थे। पूर्वी जर्मनी में नाज़ियों के ख़िलाफ़ चल रहे मुक़दमे ख़त्म होने के साथ बुचेनवाल्ड कैम्प सार्वजनिक यादगार के प्रोजेक्ट का हिस्सा बन गया।

लकड़ी के दरवाज़े के सामने एक महिला का चित्र, इल्से हेफ़नर-मोडे (जर्मनी).
1958 में DDR के पहले प्रधानमंत्री और सोशल डेमोक्रेट ऑटो ग्रोटवोल ने कैम्प को जनता के लिए खोल दिया ताकि मज़दूर और स्कूली बच्चे यातना तथा प्रतिरोध के किस्से सुनकर फ़ासीवाद के विरुद्ध खुद को प्रतिबद्ध कर सकें। उसी साल बुचेनवाल्ड में क़ैदी रहे ब्रूनो अपिट्ज की क़िताब Nackt unter Wölfen (भेड़ियों के बीच नग्न) छपी। इसमें बताया गया कि कैसे कैम्प के भीतर चल रहे प्रतिरोध आंदोलन ने भारी ख़तरा उठाते हुए एक छोटे बच्चे को छिपाया था और फिर कैसे 1945 में कैम्प को आज़ाद करवाया गया। 1963 में DDR में फ़्रैंक बेयर ने इस उपन्यास पर एक फ़िल्म बनाई। यह कहानी एक बच्चे स्टेफ़ान जर्ज़ी ज़वेग के जीवन पर आधारित थी, जिसे ऑशविट्ज़ भेजे जाने से बचाने के लिए क़ैदियों ने छिपा दिया था। ज़वेग इस यातना से बच गए थे और 2024 में वीएना में 81 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हुई।
DDR ने अपनी राष्ट्रीय संस्कृति का निर्माण फ़ासीवाद विरोध के आधार पर किया। 1949 में शिक्षा मंत्रालय ने स्कूलों से कहा कि वे धार्मिक अवकाशों की बजाय फ़ासीवाद विरोधी संघर्ष को उजागर करने वाली घटनाओं के आधार पर छुट्टी का कैलेंडर तैयार करें। उदाहरण के लिए Fasching (मार्डी ग्रा) की बजाय विश्व शांति दिवस की छुट्टी रखी गई। पुराने Jugendweihe (युवकों के वयस्क होने का दीक्षा समारोह) को इस तरह परिवर्तित किया गया कि वह केवल उम्र के नए पड़ाव में शामिल होने का आयोजन नहीं रह गया बल्कि युवाओं ने ख़ुद को फ़ासीवाद के विरुद्ध प्रतिबद्ध करना शुरू कर दिया। स्कूल अपने छात्रों को बुचेनवाल्ड, रेवनब्रुक और साक्सेनहौसेन ले जाते थे ताकि फ़ासीवाद की भयावहता को छात्र पहचान पाएँ और उनमें मानवतावादी व समाजवादी मूल्य पैदा हो सकें। ये प्रयास एक ऐसे संस्कृति को बदलने की लंबी प्रक्रिया का हिस्सा थे जो कि कभी पूरी तरह नाज़ीवाद के चंगुल में फँसी हुई थी।

हम नहीं जानते थे, हर्बर्ट सैंड्बर्ग (जर्मनी), 1964.
पर जब 1990 में पूर्वी जर्मनी पश्चिमी जर्मनी का हिस्सा हो गया तो एक नई प्रक्रिया शुरू हुई: DDR में फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ उठाए गए सभी प्रयासों को कमज़ोर करने की प्रक्रिया। बुचेनवाल्ड इस प्रक्रिया का केंद्र बना। सबसे पहला विवाद बुचेनवाल्ड के नेतृत्व को लेकर शुरू हुआ। 1988 में भूतपूर्व KPD क़ैदी क्लाउस ट्रोस्टोरफ़ के बाद कमान सँभालने वाली डॉ. इर्मगार्ड सेडेल को अख़बार से पता चला कि उन्हें उनके पद से हटा दिया गया है (डॉ. सेडेल ने SS दस्तावेज़ो की जाँच से पता लगाया था कि बुचेनवाल्ड में 28,000 महिला क़ैदी थीं जो ग़ुलामों की तरह काम करती थीं, ज़्यादातर हथियारों की फ़ैक्टरी में)। डॉ. सेडेल को हटाकर अलरिच श्नाइडर को लाया गया, उन्हें भी इसलिए हटा दिया गया कि वे पश्चिम जर्मनी में कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। श्नाइडर के बाद आए थोमस होफ़मन, जो इतने कम्युनिस्ट विरोधी थे कि नए राजनीतिक नेतृत्व को पसंद आ गए। इसके बाद, जनता की फ़ासीवादी विरोधी सोच को बदलने की कोशिशें शुरू हुईं ताकि उन्हें कम्युनिस्ट विरोधी बनाया जा सके। थालमन के स्मारक पर ध्यान न देना इसी प्रक्रिया का एक हिस्सा था। सोवियत ने बुचेनवाल्ड का इस्तेमाल किस तरह नाज़ियों को क़ैद करने के लिए किया इस पर ज़्यादा तवज्जो दी गई।
पश्चिमी जर्मनी के इतिहासकारों ने लिखना शुरू किया कि पैटन के सैनिकों ने शिविर को आज़ाद करवाया न कि ख़ुद क़ैदियों ने (उनकी इस तरह की व्याख्याओं का एक उदाहरण थी मैन्फ़्रेड ओवरेश की प्रभावशाली क़िताब Buchenwald und die DDR. Oder die Suche nach Selbstlegitimation [बुचेनवाल्ड और DDR. या आत्म-वैधीकरण की खोज], 1995)। जून 1991 में जर्मनी के चान्सलर हेल्मट कोल ने एक समारोह की अध्यक्षता की जिसमें ‘कम्युनिस्ट आतंक आधारित तानाशाही’ के पीड़ितों की याद में छह बड़े क्रॉस स्थापित किये गए और यहाँ नाज़ी अपराधों की बात इस तरह की गई जैसे वे सोवियत संघ की कार्रवाइयों के बराबर थे। 1991 से 1992 के बीच जर्मनी के एक इतिहासकार एबरहार्ड जैकल ने बुचेनवाल्ड का नया इतिहास लिखने के लिए एक समिति का नेतृत्व किया, इसमें उन्होंने कम्युनिस्ट क़ैदियों पर नाज़ियों के साथ मिल जाने का आरोप लगाया और फ़ासीवाद-विरोधी जेलों के ‘पीड़ितों’ को श्रद्धांजलि दी। यह एक अधिकारिक प्रयास था, ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़कर फ़ासीवादियों को अच्छा और फ़ासीवादी-विरोधियों को बुरा दिखाने का। भूतपूर्व सोवियत गणतंत्र रहे रूस और बेलारूस के राजनयिकों का आमंत्रण इस सालाना स्मृति समहरोह से वापस ले लिया गया। इस समारोह में दिए गए भाषणों में वक्ताओं ने नाज़ी यातना शिविरों को सोवियत श्रम शिविरों के समान बताया। बुचेनवाल्ड में इज़राइल का झंडा तो खुलेआम फहराया गया है लेकिन फ़िलिस्तीनी केफ़ियेह पहनकर जाना मना है और फ़िलिस्तीन के जनसंहार का ज़िक़्र करने तक की भी सख़्त मनाही है।

हिल्डे कोल्बी क्वेडलिंगबर्ग स्थित Dorothea Christiane Erxleben Medical School की अपनी क्लास के वियतनामी छात्रों को DDR के बुचेनवाल्ड लेकर गईं, 15 अप्रैल 1976.
पचास के दशक में फ़ासीवाद विरोधी संघर्ष की याद में कम्युनिस्ट कलाकारों ने मिलकर बुचेनवाल्ड स्मारक बनाया। मूर्तिकार रेने ग्रेट्स, वाल्डमर गरज़िमेक और हान्स कीस ने शिलालेखों का निर्माण किया जिनके पीछे DDR के पहले संस्कृति मंत्री जोहनस आर. बेचर की एक कविता लिखी हुई थी:
थालमन ने एक दिन देखा:
उन्होंने छिपे हुए हथियार खोद निकाले
क़ब्रों से बर्बाद मनुष्य उठे
उनकी फैली हुई बाहें देखीं
कई रूपों में छिपा एक स्मारक देखा
हमारे अतीत और वर्तमान के संघर्षों को याद करते
मृतक चेतावनी देते हैं: बुचेनवाल्ड याद रहे!
इस न्यूज़लेटर में इस्तेमाल किए गए चित्र बुचेनवाल्ड में क़ैदी रहे कलाकारों के हैं। ‘क़ैदियों के विद्रोह’ को दर्शाती फ़ोटोग्राफ़ में जो एक बड़ी काँसे की मूर्ति है जिसमें क़ैदी ख़ुद को आज़ाद कर रहे हैं वह (1929 से KPD के सदस्य रहे) फ़्रिट्स क्रेमेर द्वारा बनाई गई थी।
सस्नेह,
विजय
पुनश्च: जून में Zetkin Forum for Social Research बर्लिन में फ़ासीवाद के विरोध में एक सम्मेलन आयोजित कर रहा है, आप सभी इसमें आमंत्रित हैं।