प्यारे दोस्तों,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।

वर्तमान युग की शुरुआत से पहले के प्रागैतिहासिक काल को पारंपरिक रूप से तीन युगों में विभाजित किया जाता है: पाषाण युग, कांस्य युग और लौह युग। उसके बाद से लिखित इतिहास के युग में, हमने कभी विशिष्ट धातुओं या खनिजों के अनुसार अपने काल को परिभाषित नहीं किया है। नयी उत्पादन तकनीकों और श्रम के बदले स्वरूप ने बहुत से धातु और खनिज उपलब्ध करवाए हैं, जिनसे हम बड़ी मात्रा में अतिरिक्त उत्पादन कर रहे हैं। हम वर्तमान युग को उद्योग युग कहते हैं, स्टील युग नहीं, हालाँकि स्टील हमारे समय की प्रमुख धातु है।

1914 में रूसी कवि अलेक्सी गस्तव ने ‘हम लोहे से बढ़ते हैं’ कविता लिखी थी। भट्टियों और लोहारख़ानों, हथौड़ों और मशीनों को देखते हुए, उन्होंने लिखा कि:

उन्हें देखते हुए, मैं तन कर खड़ा हो जाता हूँ।

मेरी रगों में एक नया, लोहे का खून दौड़ता है,

और मैं बढ़ने लगता हूँ।

स्टील के कंधों और बेइंतहा मज़बूत हाथों के साथ बड़ा हो रहा हूँ।

लोहे की इमारत का हिस्सा बन रहा हूँ।

अपने कंधों से, राफ़्टर और बीम छत की ओर धकेलता हूँ।

मेरे पैर ज़मीन पर हैं, लेकिन मेरा सिर इमारत से ऊँचा है।

और जब अपने अमानवीय प्रयासों से मेरा दम घुट रहा होता है,

मैं ज़ोर से बोलने लगता हूँ:

एक शब्द, साथियों, एक शब्द!

मेरे शब्द लोहे की गूँज से भर जाते हैं, सारी इमारत

अधीरता से काँपने लगती है।

मैं ऊपर की ओर उठता रहता हूँ; पाइपों तक पहुँच जाता हूँ।

और यहाँ कोई कहानी नहीं है, कोई आवाज़ नहीं।

बस एक शोर है:

[कि] हम जीतेंगे!

 

1970 के दशक में उत्तरी अमेरिका और यूरोप में विऔद्योगीकरण (डीइंडस्ट्रीयलाईज़ेशन) का चलन बढ़ा और पोस्ट-वर्क तथा पोस्ट-इंडस्ट्रियल समाज आदि विषयों पर विद्वान लिखने लगे। उस साहित्य से एक विचित्र धारणा का जन्म हुआ कि डिजिटल अर्थव्यवस्था ही पूँजी के संचय का प्राथमिक ज़रिया बनेगी। अब इस तथ्य में किसी कि दिलचस्पी नहीं थी कि डिजिटल अर्थव्यवस्था को भी सैटेलाइट और अंडर-वॉटर केबलों के साथ-साथ बिजली पैदा करने के संयंत्र तथा डिजिटल राजमार्गों को जोड़ने वाले गैजेट आदि के बुनियादी ढाँचे की ज़रूरत होगी। डिजिटल अर्थव्यवस्था तांबे और लिथियम जैसी कई धातुओं और खनिजों पर आधारित है। और हमारा समाज आज भी बड़े कारख़ानों में बनने वाले स्टील पर टिका हुआ है। लोहे से हज़ार गुना मज़बूत, स्टील, हमारी दुनिया में प्लास्टिक की ही तरह सर्वव्यापी है।

 

 

पिछले पचास वर्षों में, स्टील का उत्पादन तीन गुना हो गया है। चीन, यूरोप, भारत, जापान, रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका आज स्टील के प्रमुख उत्पादक हैं। महामारी के दौरान भी, स्टील के उत्पादन में केवल 1% की गिरावट आई थी, क्योंकि चीन और भारत जैसे देशों में आंतरिक मांग को पूरा करने के लिए भट्टियाँ जलती रहीं। हालाँकि अधिक उत्पादन की चिंताओं के चलते चीन के स्टील उत्पादन में मामूली कमी आई थी, लेकिन भारत के स्टील कारख़ानों में महामारी के दौरान स्टील का उत्पादन बढ़ा था।

भारत में इनमें से अधिकतर कारख़ाने सार्वजनिक क्षेत्र में हैं, जो सरकारी पैसे से बने थे और जिनका प्रशासन सरकार या अर्ध-सरकारी संस्थाओं के हाथ में है। इन्हीं में से एक कारख़ाना है आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम शहर में स्थित राष्ट्रीय इस्पात निगम लिमिटेड (आरआईएनएल)। यह कारख़ाना, जिसे लोग प्यार से विशाखा स्टील कहते हैं, आंध्र प्रदेश के लोगों द्वारा चलाए गए लंबे जन संघर्ष के बाद बना था। 1966 में शुरू हुआ संघर्ष 1992 तक चला था, जब तक कि भट्टियाँ जलने नहीं लगीं। इस कारख़ाने की स्थापना ऐसे समय में हुई थी जब भारत की सरकार – भारत के शासक वर्ग और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव में आकर – अर्थव्यवस्था का उदारीकरण करने लगी थी। इस प्रक्रिया में राज्य की संपत्ति का निजीकरण भी शामिल था। कारख़ाने का जन्म एक उदारीकृत दुनिया में हुआ, जहाँ सरकार निजीकरण की लहर में इसे भी निजी पूँजी को बेचना चाहती थी। इसलिए सरकार शुरू से ही कारख़ाने की संभावनाओं को ख़त्म करने के लिए उत्सुक थी।

 

विशाखा स्टील की प्रेरक कहानी हमारे हाल ही में जारी हुए डोज़ियर संख्या 55 (अगस्त 2022), ‘पीपुल्स स्टील प्लांट एंड फ़ाइट अगेन्स्ट प्राइवेटाइज़ेशन इन विशाखापत्तनम’ की विषय वस्तु है। इस डोज़ियर में आंध्र प्रदेश के लोगों के संघर्षों का वर्णन है। एक ऐसा संघर्ष जिसमें लोगों ने सरकार को कारख़ाना बनाने के लिए मजबूर कर दिया था, जिसे भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ‘आधुनिक भारत का मंदिर’ कहते थे। युवा और छात्र ‘विशाखा उक्कू, अंध्रुला हक्कू’ (विशाखा स्टील आंध्र के लोगों का अधिकार है) के नारे के साथ सड़कों पर उतर आए थे। 1966 में उमड़े जनता के संघर्ष को राज्य की क्रूर हिंसा का सामना करना पड़ा, जिसमें बत्तीस लोग मारे गए और कई लोग गिरफ़्तार हुए तथा यातनाएँ सहीं। लेकिन सरकार कम्युनिस्टों द्वारा आकार दिए गए इस आंदोलन को कुचलने में असफल रही। दूसरी ओर सरकार को यह भी समझ में आ रहा था कि भूख और निरक्षरता जैसी समस्याओं को दूर करने की कोशिश में लगे भारत के लिए स्टील अनिवार्य है। सरकार कारख़ाना बनाने के लिए सहमत हो गई और 1980 के दशक के दौरान 17 बिलियन रुपये ख़र्च कर संयंत्र का निर्माण शुरू किया।

विशाखा स्टील एक ऐसे समय में बन रहा था जब निजीकरण सबसे बड़ा धर्म बन चुका था। भारत सरकार ने कई मौक़ों पर ऐसे कोशिशें की कि इस कारख़ाने को सार्वजनिक क्षेत्र से निकालकर निजी हाथों में दे दे। कारख़ाने के लिए समर्पित खदानें नहीं दी गईं, गंगावरम में समर्पित बंदरगाह का निर्माण करने से रोका गया, स्टील मेल्ट शॉप (जहाँ कच्चे लोहे को स्टील में बदला जाता है) की क्षमता बढ़ाने से रोका गया तथा सही समय पर पर्याप्त सरकारी धन प्राप्त करने से भी रोका गया। इसके बजाय सरकार ने एक निजी कंपनी को स्टील मेल्ट शॉप स्थापित करने की अनुमति देने की कोशिश की। उद्देश्य यह था कि विशाखा स्टील की भट्टियों में पिघला लोहा इस निजी कम्पनी के स्टील मेल्ट शॉप में जाकर स्टील बनता और फिर वह निजी कम्पनी उसे उच्च लाभ मार्जिन पर बाज़ार में बेचती। मज़दूर सरकार की चाल समझ गए और इसके ख़िलाफ़ एकजुट हो गए। सरकार को पीछे हटना पड़ा। पर स्टील के उत्पादन या स्टील कारख़ाने के मज़दूरों और उनके परिवारों के जीवन में सुधार लाने को लेकर सरकार ने कभी भी अपनी प्रतिबद्धता नहीं दिखाई।

 

लेकिन, मज़दूरों के पास अपनी योजना थी। भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र (सीटू) व अन्य यूनियनों के नेतृत्व में, मज़दूरों ने सरकारी क़र्ज़ का पुनर्गठन कर उसे सरकारी इक्विटी में बदलने, कारख़ाने के लिए लौह अयस्क की समर्पित ख़दानें आवंटित करवाने और स्टील मेल्ट शॉप की क्षमता बढ़ाने के लिए संघर्ष शुरू किया। हमारा डोज़ियर इस बात को रेखांकित करता है कि ‘विशाखा स्टील के मज़दूर कारख़ाने को एक तकनीकी और वित्तीय रूप से सक्षम इकाई के रूप में विकसित करने के प्रति समर्पित रहे हैं। इसकेलिए वे कारख़ाने की उत्पादन क्षमता को बढ़ाने और समर्पित खदान के आवंटन की माँगों को लेकर लड़े हैं और कारख़ाने की तकनीकी समस्याओं को सुलझाने के लिए भी कृतसंकल्पित रहे हैं। जब भी कारख़ाने में कोई तकनीकी समस्या आई है, चाहे वो कोक ओवन हो, विद्युत केंद्र हो, स्टील मेल्ट शॉप या फिर कहीं और, मज़दूरों और कामगार यूनियनों ने सघन अध्ययन करके विश्लेषण किया है और समाधान निकालकर समस्याओं का निराकरण किया है’। तो कुल मिलाकर एक तरफ़ विशाखा स्टील को तबाह करने पर उतारू सरकार है और दूसरी ओर ‘जनता के स्टील कारख़ाने’ में उत्पादन के लिए प्रतिबद्ध मज़दूर हैं।

गंगावरम बंदरगाह को सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित करने के बजाय, जैसा कि शुरू में परिकल्पना की गई थी, सरकार ने यह बंदरगाह अडानी समूह को दे दिया है। इस निजी बंदरगाह के इस्तेमाल के लिए विशाखा स्टील को भारी फ़ीस देनी पड़ती है। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि यह निजी बंदरगाह उस ज़मीन पर बना है जो कि मूल रूप से विशाखा स्टील कारख़ाने की थी। इसके अलावा, विशाखा स्टील शहर में संपत्ति कर भरती है, लेकिन अडानी के निजी बंदरगाह को कर भुगतान से छूट मिली हुई है। इसके साथ-साथ, मोदी सरकार ने विशाखा स्टील की ज़मीन पर दक्षिण कोरियाई स्टील कंपनी POSCO को ऑटो ग्रेड स्टील बनाने के लिए रोलिंग मिल लगाने की पेशकश भी की थी। डोज़ियर का तर्क है कि यह पिछले दरवाज़े से निजीकरण का विशिष्ट उदाहरण है जिसमें ‘विशाखा स्टील के सिर पर सबसे ज़्यादा जटिल और ख़तरनाक काम थोपे जा रहे थे। लौह अयस्क ख़रीदना, कोक ओवन, ऑक्सीजन संयंत्र और अन्य भट्ठियाँ चलाने का काम विशाखा स्टील को करना था। जबकि POSCO को मूल्य शृंखला का सबसे लाभदायक हिस्सा प्राप्त होना था’।

लेकिन मज़दूरों ने ठान लिया है कि ऐसा कुछ नहीं होने देंगे। कारख़ाना बनवाने के लिए जनता द्वारा लड़े गए जुझारू संघर्ष को याद करते हुए, विशाखा स्टील के मज़दूर अब अपने कारख़ाने को बचाने का आंदोलन चला रहे हैं। इस आंदोलन की लहर को किसान आंदोलन, यूनियनकृत आँगनबाड़ी (ग्रामीण बालविकास केंद्र) कार्यकर्ताओं और आंध्र प्रदेश की जनता का ज़बरदस्त साथ मिल रहा है। सरकार को पीछे हटना पड़ा है। महामारी के दौरान सरकार ने जब अपने हाथ खड़े कर दिए थे, तब वे विशाखा स्टील के मज़दूर ही थे जो कारख़ाने के ऑक्सीजन संयंत्रों में अस्पतालों के लिए मेडिकल ग्रेड ऑक्सीजन का उत्पादन करते रहे।

इस तरह के संघर्षों के बारे में बहुत ज़्यादा नहीं लिखा जाता है। इनकी अगुवाई करने वाले विशाखा स्टील मज़दूरों जैसे बहादुर मज़दूरों को अक्सर भुला दिया जाता है और जब याद किया भी जाता है तब असल मक़सद होता है उन्हें बदनाम करना। वे भट्टियों के पास खड़े होकर स्टील बनाने का काम इस उम्मीद में करते हैं कि स्टील से किसानों के खेतों तक बेहतर नहरें पहुँचे, स्कूलों और अस्पतालों की बेहतर इमारतें बनें, और मानवीय  दुविधाओं से पार पाने के लिए बुनियादी ढाँचे का निर्माण हो। हमने अपने डोज़ियर के लिए स्टील मज़दूरों व उनकी यूनियनों से बात की थी, जिनमें उन्होंने हमें बताया कि वे अपने अतीत को व अपने संघर्ष को कैसे देखते समझते हैं। उन्होंने अपने व आंध्र प्रदेश से निकलने वाले समाचार पत्र ‘प्रजाशक्ति’ के कुंचेम राजेश द्वारा ली गई तस्वीरें हमारे साथ साझा कीं। हमारे कला विभाग ने इन तस्वीरों के कोलाज बनाए हैं, जो हमारे डोज़ियर का हिस्सा हैं। (उनमें से कुछ कोलाज इस न्यूज़लेटर में भी शामिल किए गए हैं)।

अपने प्रदर्शनों में मज़दूर गीत गाते हैं और कविताएँ पढ़ते हैं कि संघर्ष के लिए तैयार हो जाओ ‘इससे ​​पहले कि हमारे पैरों के नीचे से धरती ग़ायब हो जाए, इससे पहले कि स्टील हमारे हाथों से फिसलकर बाहर निकल जाए’। वो गाते हैं कि यदि कारख़ाने का निजीकरण करने की कोशिश की जाती है तो, ‘विशाखा शहर भट्टी में, और उत्तरी आंध्र प्रदेश युद्ध के मैदान में बदल जाएगा… हम अपनी जान की बाज़ी लगाकर अपने स्टील की रक्षा करेंगे’।

स्नेह-सहित,

विजय।