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हमारी दुनिया को ख़ूनख़राबे ने जकड़ रखा है: बीसवाँ न्यूज़लेटर (2025)

सूडान के गृहयुद्ध में 150,000 लोग मारे जा चुके हैं। इस भुला दिए गए युद्ध के राजनीतिक कारणों की पहचान कर के ही इसे ख़त्म करने के उपाय किए जा सकते हैं।

शीर्षकहीन, डाहलिआ अब्दुल्ला बाशर.

प्यारे दोस्तो,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।

पिछले कुछ हफ़्ते दुनिया की नज़र भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ते हुए तनाव पर बनी रही, इसके इर्द-गिर्द छाई धुँध छँटने के बाद इसके बारे में हम लिखेंगे। हालाँकि दोनों ही देशों की सेनाओं ने लाइन ऑफ़ कंट्रोल कही जाने वाली सरहद लाँघी नहीं फिर भी इस तनाव को लेकर जो चिंता दिखी वह उचित है: दोनों ही देश परमाणु हथियारों से लैस हैं। अब हालात फिर से 1948 वाले युद्धविराम जैसी हो चुकी है जिसके बाद दशकों तक किसी यथोचित शांति संधि के अभाव में स्थिति नाज़ुक बनी रही थी। इसके साथ ही दुनिया में ग़ज़ा पर इज़राइल के कसते शिकंजे को लेकर भी चिंता रही और यह चिंता भी उचित है। जनसंहार की जंग की परवाह न करते हुए 27 जनवरी 2025 को कई फ़िलिस्तीनी उत्तरी ग़ज़ा लौट आए, शायद इसीलिए इज़राइल ने ग़ज़ा पर कार्रवाइयाँ बढ़ा दी हैं।

लेकिन इन सबके बीच कुछ अन्य टकराव भी दुनिया में जारी हैं जिनको लगभग भुला दिया गया है जैसे सूडान में जारी लड़ाई। और इस न्यूज़लेटर में इसे ही केंद्र में रखा गया है, यह मानवतावादी कार्यकर्ताओं और सूडानी राजनीति से जुड़े लोगों से बातचीत के आधार पर लिखा गया है। यह तर्क दिया जाता है कि यह युद्ध हैरान करने वाला है और इसकी कोई आसान व्याख्या नहीं की जा सकती। यह तर्क अपने आप में इस युद्ध की रिपोर्टिंग में छिपे नस्लवाद को दिखाता है जो अफ़्रीका में हो रहे तनाव और टकरावों को अबूझ और अंतहीन मानता है। ज़ाहिर सी बात है कि इस लड़ाई के कारण हैं, जिसका मतलब है कि इसे ख़त्म करने के उपाय भी हैं। ज़रूरत है कि हमारी दुनिया में जिस ख़ूनख़राबे की भाषा का बोलबाला है उसे छोड़कर उन राजनीतिक उपायों को खोजना चाहिए जिनमें शांति की संभावनाएँ निहित हैं।

शीर्षकहीन, राशिद दीआब (सूडान), 2016.

दो साल पहले सूडान में शांति की थोड़ी-बहुत संभावना भी बिखर गयी, जब राष्ट्र की दो बाजुएँ – सूडानीज़ आर्म्ड फोर्सेज (एसएएफ़) और रैपिड सपोर्ट फोर्सेज (आरएसएफ़) – एक दूसरे से युद्ध करने लगीं। इस युद्ध की दूसरी सालगिरह 11 अप्रैल 2025 को आरएसएफ़ ने उत्तरी दारफ़ुर स्थित ज़मज़म शरणार्थी कैम्प पर हमला कर दिया। इस हमले में बचीं तीन बच्चों की माँ हावा बताती हैं, ‘अस्पतालों पर बम गिर रहे थे।… जो बच गए उनके पास अपने बच्चों के अलावा और कुछ भी नहीं बचा’।

जिस कैम्प में कभी लगभग पाँच लाख शरणार्थी रहा करते थे वह 16 अप्रैल तक पूरी तरह बर्बाद हो चुका था, सैकड़ों लोग मारे जा चुके थे और जो बचे थे वे पास के एल फ़शर और तवीला इलाक़ों में चले गए। दो साल की लड़ाई में कम-से-कम 150,000 लोग मारे जा चुके हैं और लगभग 1 करोड़ तीस लाख बेघर हो चुके हैं (यह सूडान की 5 करोड़ 10 लाख की आबादी के पाँचवे हिस्से से ज़्यादा है)। सूडान के लोगों के लिए यह लड़ाई बिलकुल बेमानी सी है।

ज़मज़म में हुए क़त्लेआम से छह साल पहले 11 अप्रैल 2019 को चीज़ें बहुत अलग थीं जब लंबे समय तक राष्ट्रपति रहे उमर अल-बशीर को एक बड़े जन आंदोलन ने अपदस्थ कर दिया और आख़िर सेना ने भी। महँगाई और बढ़ते सामाजिक संकट के चलते अल-बशीर के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों की शुरुआत दिसंबर 2018 में हुई थी। अल-बशीर के पास जनता को देने के लिए कोई जवाब नहीं था इसलिए वह बल प्रयोग से भी अपना शासन बरकरार न रख पाया। ख़ासतौर से स्थिति तब बिलकुल बदल गयी जब सूडान की सेना उसके ख़िलाफ़ हो गयी (वैसे ही जैसे 2011 में मिस्र की सेना वहाँ के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक के ख़िलाफ़ हो गयी थी)। अल-बशीर का तख़्तापलट करने वाली ताक़त को बाद में ट्रांसज़ीशनल मिल्टरी काउन्सिल कहा गया जिसका नेतृत्व किया था जेनरल अब्दुल फ़तह अल-बुरहान ने और उन्हें मदद मिली थी लेफ़्टिनेंट जेनरल मोहम्मद ‘हेमेदती’ हमदान दगालो से।

एक शांतिपूर्ण क्रांति, गलाल यूसुफ़ (सूडान), 2021.

जिन संगठनों ने ज़मीन पर प्रदर्शनों का नेतृत्व किया था उन्होंने फ़ोर्सेज ऑफ़ फ़्रीडम एंड चेंज (एफ़एफ़सी) के नाम से एक गठबंधन बना लिया। एफ़एफ़सी में शामिल थे सूडान की कम्युनिस्ट पार्टी, नेशनल कोंसेंसस फ़ोर्सेज़, सूडानीज़ प्रोफ़ेशनल असोसीएशन, सूडान रेवोल्यूशनरी फ़्रंट, विमन ऑफ़ सूडानीज़ सिविक एंड पोलिटिकल ग्रूप्स और इसके साथ सूडान के कई अन्य प्रतिरोध करने वाले समूह या इलाक़ों की कमेटियाँ। एफ़एफ़सी के नेतृत्व में हो रहे प्रदर्शनों के दबाव में 2019 के मध्य में सेना ने एक जनता की सरकार बनने की प्रक्रिया की निगरानी करने के समझौते पर हस्ताक्षर किए।

अफ़्रीकन यूनियन की मदद से ट्रांसज़ीशनल सॉव्रेंटी काउन्सिल का गठन हुआ, इसमें पाँच सेना के और छह जनता के प्रतिनिधि सदस्य थे। इस काउन्सिल ने अब्दुल्ला हमदोक (जन्म 1956) को नए प्रधानमंत्री और नेमत अब्दुल्ला ख़ैर (जन्म 1957) को सर्वोच्च न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया। इकनॉमिक कमिशन ऑफ़ अफ़्रीका में बहुत अहम काम करने वाले विनम्र राजनयिक हमदोक इस संक्रमण काल में प्रधानमंत्री के पद के लिए उचित दावेदार लगे। जीवन भर एक जज के तौर पर काम करने वाले ख़ैर ने अल-बशीर के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों में हिस्सा लिया और इन्हें न्यायपालिका के शीर्षपद पर नियुक्त करना भी एक सही निर्णय लगा। सूडान के एक नए भविष्य के लिए रास्ता खुल गया।

लाखों लोगों का जुलूस, अबु’ओबायदा मोहम्मद (सूडान), 2021.

लेकिन जल्दी ही सूडान अपने ही इतिहास की बलि चढ़ गया। कई असफल सैन्य तख़्तापलट की कोशिशों के बाद 2021 में जनरल अब्दुल फ़तह अल-बुरहान ने सत्ता हासिल कर ली। कहने को ऐसा परिवर्तनकारी प्रक्रिया की रक्षा के लिए किया गया था लेकिन इसका असल मक़सद था अल-बशीर के लोगों को दोबारा सरकार में शामिल करना। अधिकतर पुरानी सत्तारूढ़ ताक़तें लौटकर क्रांतियों का रास्ता रोक देती हैं क्योंकि इन ताक़तों का सेना और समाज पर प्रभाव जल्दी ख़त्म नहीं किया जा सकता। सेना के दोनों अधिकारी अल-बुरहान और हेमेदती जानते थे कि अल-बशीर की सरकार के ख़िलाफ़ अगर कोई न्यायिक कार्रवाई हुई तो उन पर गाज गिरेगी क्योंकि पुरानी सरकार के बाहुबली तो वे ही थे (हेमेदती की सेना, जिसे आम लोग Janja’wid  यानी ‘घुड़सवार शैतान’ कहते थे, ने दारफ़ुर में अल-बुरहान की कार्रवाइयों के दौरान मानव अधिकारों के हनन के आरोप थे)। इसके साथ ही इन दोनों अधिकारियों और इनकी सैन्य टुकड़ियों के अपने हित भी इस पूरे मामले से जुड़े थे जिनमें दारफ़ुर और कोरदोफ़ान में स्थित सूडान की सोने की खदानों पर नियंत्रण भी शामिल था।

ऐसे लोगों में फाँसी का डर और लालच दोनों ही बहुत ज़्यादा होते हैं। अगर सही मायने में नयी शक्तियों को सत्ता सौंपनी है तो पुराने समाज से पूरी तरह नाता तोड़ना पड़ता है। यह तब तक मुश्किल है जब तक सेना को पूरी तरह बर्बाद न कर दिया जाए या उसे एक नए समाज के विचार के आधार पर पुनर्निर्मित न कर दिया जाए। अल-बुरहान और हेमेदती दोनों ने ही इस परिवर्तन के ख़िलाफ़ काम किया। उन्होंने जन आंदोलनों को जल्द-से-जल्द दबा दिया ख़ासतौर से मज़दूर संगठनों और कम्युनिस्टों को तथा खार्तूम में सत्ता हासिल कर ली।

गुंथे हुए, रीम अलजियाली (सूडान), 2022.

अगर कभी किसी देश के लिए  दबंग देशों का कोई गुट बन जाए तो उस देश के सभी लोगों को चिंता होनी चाहिए। 2021 में सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका ने ‘क्वाड फ़ॉर सूडान’ का गठन किया। उनके मुताबिक़ इसका लक्ष्य था देश में लोकतंत्र की बहाली। सूडान भू-राजनीति के षड्यंत्र की धार पर चल रहा था, आरोप लगने लगे कि प्रतिक्रांतिकारी सेना के रूस से नज़दीकी रिश्ते बनने लगे हैं। 2019 में अल-बशीर ने एक सौदे पर बातचीत की थी जिसके तहत रूस को लाल सागर में जलसेना का एक अड्डा बनाने की अनुमति मिल जाती और अफ्रीकी महाद्वीप में रूस को पैर जमाने का मौक़ा मिल जाता। अल-बशीर की सरकार गिरने से यह सैन्य अड्डा खटाई में पड़ गया था लेकिन जब उसके पुराने साथी फिर से सत्ता में आए तो इसके रास्ते फिर खुल गए। इस वजह से पश्चिम और रूस, साथ ही खड़ी अरब देशों के साम्राज्यों के आपसी तनाव के बीच सूडान फँस गया।

जब कोई देश दूसरे देशों के आपसी तनाव के बीच फँस जाता है तो उसकी अपनी समस्याओं को पहचान पाना मुश्किल हो जाता है। सेना और अल-बशीर के लोगों की सत्ता के गठजोड़ के भीतर एक असहमति पैदा हो गई, वजह थीं सैन्य शक्तियों का समन्वय और लूट का बँटवारा। ऊपरी तौर पर वे एक जनता की सरकार की वापसी के समय को लेकर आपस में उलझ रहे थे लेकिन असल झगड़ा सैन्य शक्ति और संपदाओं पर नियंत्रण का था।

मछली बाज़ार तक की राह, सलाह अलमोर (सूडान), 2024.

सत्ता के लिए ये अंदरूनी झगड़े आख़िरकार 2023 में एक गृहयुद्ध के रूप में सामने आए। यह एक अपरिहार्य युद्ध था जिसमें छद्म युद्ध के सब लक्षण हैं इसमें एक ओर थे एसएएफ़ जिसे मिस्र और सऊदी अरब का समर्थन है और दूसरी ओर है संयुक्त अरब अमीरात का समर्थन प्राप्त आरएसएफ़, इसके अलावा और भी बाहरी ताक़तें हैं जो पर्दे के पीछे से चाल चल रही हैं। बीच-बीच में शांतिवार्ताएँ भी हो रही हैं लेकिन इनका कोई नतीजा नहीं निकल रहा। यह अजीब सा एक युद्ध है जिसमें एसएएफ़ के 300,000 सैनिक आरएसएफ़ के अत्यधिक जोश से भरे 100,000 सैनिकों के ख़िलाफ़ कुछ ख़ास जीत हासिल नहीं कर पा रहे। सोने की बिक्री से मिल रही अंतहीन दौलत और बाहरी समर्थन की  वजह से यह युद्ध हमेशा के लिए चलाया जा सकता है। या फिर कम-से-कम इतने लंबे समय तक तो चल ही सकट है कि आख़िर दुनिया इसके बारे में भूल ही जाए (जैसे कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य के युद्ध और म्यांमार की सरहद पर चल रहे युद्ध को भुलाया जा चुका है)।

संयुक्त राष्ट्र लगातार वक्तव्य जारी कर रहा है, मानव अधिकार संगठन एसएएफ़ और आरएसएफ़ दोनों पर दबाव डालने का निवेदन कर रहे हैं। लेकिन इस सिलसिले में कुछ भी नहीं हो रहा। शांतिवार्ता भी बँटी हुई है: अमीरात और मिस्र काहिरा में कोई समझौता करने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि सऊदी जेद्दा में और ब्रिटेन लंदन में। यह साफ़ नहीं कि इन शांतिवार्ताओं में कौन किससे बात कर रहा है।

केश और प्रेम, आमना एलहसन (सूडान), 2019.

समझौता करवाने का सबसे सक्रिय प्रयास जनवरी 2024 में अफ़्रीकन यूनियन (एयू) की ओर से हुआ जब सूडान पर एक हाई-लेवल पैनल (एचएलपी-सूडान) का गठन किया गया। इस पैनल की अध्यक्षता की घाना के एक राजनयिक डॉ. मोहम्मद इब्न चंबस ने जो 2012 से 2014 तक अफ़्रीकन यूनियन-दारफ़ुर के लिए संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिनिधित्व रहे हैं। वे दोनों जनरलों को जानते हैं और सूडान की पेचीदा परिस्थितियों से वाक़िफ़ हैं। पैनल के अन्य सदस्य हैं यूगांडा की भूतपूर्व उप-राष्ट्रपति डॉ. स्पेसीओज़ा वांडिरा-काजिब्वे और मोज़ाम्बिक की राजदूत फ़्रान्सिसको मदेरा जो सोमालिया में एयू की विशेष प्रतिनिधि और वहाँ एयू मिशन की अध्यक्ष रह चुकी हैं। एचएलपी-सूडान पूर्वी अफ़्रीका के एक क्षेत्रीय संस्थान इंटरगवर्नमेंटल अथॉरिटी ऑन डेवलपमेंट (आईजीएडी) के साथ मिलकर दोनों पक्षों के बीच बातचीत करवा कर युद्धविराम और एक व्यापक समझौते के लिए काम कर रहा है।

यह जानना महत्वपूर्ण है कि एचएलपी-सूडान ने देश के सभी राजनीतिक पक्षों के लोगों से मुलाक़ात की है, इनमें राजनीतिक दलों, सेना और नागरिक समूहों के लोग शामिल हैं। इनमें से कइयों ने 2020 के जूबा शांति समझौते पर हस्ताक्षर भी किए थे, इस समझौते में दारफ़ुर, दक्षिण कोर्डोफन और ब्लू नाइल के कट्टर गुट भी शामिल थे। लेकिन नागरिक समूहों की ओर से समझौताकर्ताओं को परेशनियाँ सामने आयीं। अक्टूबर 2023 में अपदस्थ किए गए प्रधानमंत्री अब्दुल्ला हमदोक ने तक़द्दम (प्रगति) गठबंधन बनाया जिसने नागरिक समाज की आवाज़ों को समझौते की प्रक्रिया में शामिल किया। लेकिन पिछले दो सालों से एक पक्ष या दूसरे पक्ष के साथ वफ़ादार होने के सवाल पर असहमति पैदा हो गयी, और आख़िरकार फ़रवरी 2025 में इसका विघटन हो गया। हमदोक ने इसके बाद समौद (प्रतिरोध) नाम से एक नया समूह शुरू किया जो दोनों ही पक्षों से बराबर दूरी बनाए रखना चाहता है। मार्च में ट्रांसज़ीशनल सॉव्रेंटी काउन्सिल के सदस्य रह चुके अल-हादी इदरिस ने Ta’sis (सूडान का निर्माण) गठबंधन बनाया जिसने आरएसएफ़ के हेमेदती को अपने नेता के तौर पर नामित किया। अंतत: नागरिक समूह भी गृहयुद्ध के दो पक्षों में ही बँट गए।

मस्जिद, इब्राहिम एल-सलाही (सूडान), 1964.

पिछले साल मैंने हमदोक से बात की जो इस लंबे युद्ध और बेनतीजा समझौतों से थके हुए लग रहे थे। भावशून्य दिखने वाले राजनयिक हमदोक को लग रहा था कि युद्धों से सेनाएँ थक जाएँगी और सभी पक्ष समझौते के लिए मजबूर हो जाएँगे। वे अपना इतिहास जानते हैं: सूडान ने ब्रिटेन और मिस्र से 1956 में आज़ादी हासिल की लेकिन इसके बाद ही यहाँ उत्तर और दक्षिण में पहला गृहयुद्ध शुरू हो गया जो 1972 के एडिस अबाबा समझौते से ख़त्म हुआ; इसके बाद शांति का जो दशक आया (जिसमें दक्षिण के तेल के भंडारों ने मदद की) अब एक भूली हुई याद बनकर रह गया है; 1983 से2005 के बीच उत्तर और दक्षिण के बीच दूसरा गृहयुद्ध चला जिसका नतीजा था 2011 का जनमत संग्रह जिसके बाद देश सूडान और दक्षिण सूडान में बँट गया; और आख़िर 2003 में दारफ़ुर का भयावह टकराव शुरू हुआ जो धीरे-धीरे 2010 में ख़त्म हुआ, और अंतत: 2019 उमर अल-बशीर को सत्ता से हटाया गया। उस समय अल-बशीर के ख़िलाफ़ नारा था tisqut bas: ‘बस हटाओ’। उसे हटा दिया गया। लेकिन हालात अब भी नाज़ुक हैं।

सूडान के लोगों ने कई पीढ़ियों से शांति नहीं देखी है। हमदोक की उम्मीद इतिहास के बरक्स खड़ी भविष्य की ओर देखती हुई एक उम्मीद है।

सस्नेह,

विजय