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हिंदी बुलेटिन

एआई की लड़ाई का ख़ाका भर खींच पाई पेरिस कॉन्फ्रेंस

आने वाले दिनों में एआई को लेकर दुनिया कहीं ज्यादा बँटी हुई दिख सकती है।

चंद्रभूषण

कृत्रिम बुद्धि, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) इस दशक की शुरुआत तक आम लोगों के बीच सिनेमा या साइंस फिक्शन के दायरे की चीज़ मानी जाती थी। लेकिन अभी हाल यह है कि दुनिया भर का राजनीतिक नेतृत्व न केवल इसके बारे में गंभीर बहसें कर रहा है, बल्कि इसे लेकर कूटनीतिक ध्रुवीकरण बनाने की कोशिशें भी चल रही हैं। हाल में एआई को लेकर आयोजित विश्व सम्मेलन की संयुक्त अध्यक्षता करते हुए भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एआई विमर्श की दिशा ‘ग्लोबल साउथ’ की ज़रूरतों की तरफ मोड़ने का आग्रह किया। ऐसे किसी नेतृत्व-मूलक दृष्टिकोण से परे जाते हुए सम्मेलन के आयोजक और अध्यक्ष, फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रों ने अपने वक्तव्य में फ्रांस के एआई रेस में वापस आ जाने का दावा किया और अपने यहां 109 अरब यूरो (लगभग 115 अरब डॉलर) ऐडवांस्ड एआई रिसर्च और इन्फ्रास्ट्रक्चर में लगाने की बात कही।

सम्मेलन में सबसे तीखा, विवादित और इस क्षेत्र में जारी लड़ाई का ख़ाका खींचने वाला बयान अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वांस का था, जिस पर हम बाद में आएंगे।

2022 में अमेरिका की नई  कंपनी ओपेनएआई ने चैटजीपीटी के नाम से अपने पहले प्रॉडक्ट, भाषा के क्षेत्र में काम करने वाली पहली कृत्रिम बुद्धि को बाज़ार में उतारा था। सवालों का हर बार अलग लेकिन रचनात्मक और काफ़ी कुछ कारगर जवाब पेश करने वाली इस एआई को ‘सर्जनात्मक कृत्रिम बुद्धि’ या जेनरेटिव एआई (संक्षेप में जेन एआई) कहा गया, हालांकि इसका तकनीकी नाम लार्ज लैंग्वेज मॉडल (एलएलएम) है। यह ऑनलाइन एआई सॉफ्टवेयर इतने धमाके के साथ दुनिया में आया कि न केवल इसने न्यूनतम समय में अधिकतम उपयोग के रिकॉर्ड तोड़ दिए, बल्कि जल्द ही ग्लोबल स्तर पर एआई डाइरेक्शन और रेगुलेशन को लेकर शिखर सम्मेलन शुरू हो गए।

ऐसा पहला सम्मेलन 2023 में सुरक्षा के सवाल पर हुआ, जिसके मूल में डीपफेक की समस्या थी। दुनिया भर में कई सेलिब्रिटीज की तस्वीरों और बयानों के साथ की गई आपराधिक छेड़छाड़ इस सम्मेलन के लिए मुख्य चिंता का विषय थी। दूसरा सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र की ओर से घोषित मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स को लागू करने में एआई का अधिकतम सहयोग लेने पर केंद्रित था। तीसरा ग्लोबल सम्मेलन इस साल फरवरी के दूसरे हफ्ते में पेरिस में हुआ,  जिसके जिक्र से इस लेख की शुरुआत की गई है। बहरहाल, पहली बार इस सम्मेलन में ही ऐसा लगा कि पूरी दुनिया के बारे में गुडी-गुडी, यानी सबको खुश रखने वाली बातों तक सीमित मुलाकातें इस खास मामले में संभव नहीं हैं।

पेरिस सम्मेलन का जोर कृत्रिम मेधा को ‘इन्क्लूसिविटी’ (सबको साथ लेकर चलने) और ‘सस्टेनेबिलिटी’ (समाज में कोई खलल न पैदा करने) के अनुरूप बनाने पर था। लेकिन 60 भागीदारों की सहमति के बावजूद अमेरिका और ब्रिटेन ने इन बिंदुओं के इर्दगिर्द तैयार किए गए घोषणापत्र पर दस्तख़त करने से साफ़ मना कर दिया। ऐसा करने के पीछे अमेरिका की सीधी दलील थी कि नई टेक्नॉलजी को ऐसे संकल्पों से बांधने का प्रयास किया गया तो उसका विकास ही रुक जाएगा। ब्रिटेन की राय हितों से जुड़े ज़्यादातर मामलों में अमेरिका की हां में हां मिलाने की ही दिखती है, फिर भी अमेरिकी बयान को ज्यों का त्यों दोहरा देने के बजाय उसने कहा कि ‘इन्क्लूसिविटी’ के संकल्प में सुरक्षा संबंधी हितों पर ध्यान कुछ कम दिया गया है, और यह बात उसके राष्ट्रीय हितों के ख़िलाफ़ जा सकती है।

कहने को इनकार सिर्फ दो ही देशों का है, लेकिन भीतर उतरकर देखें तो मामला टेढ़ा जान पड़ता है। हालात कुछ ऐसे हैं कि आने वाले दिनों में एआई को लेकर दुनिया कहीं ज्यादा बँटी हुई दिख सकती है। भारत में हमें इस जटिलता को और क़रीब जाकर देखना होगा क्योंकि जेनरेटिव एआई में तकनीकी तौर पर हाथ तंग होने के अलावा 2026 में यह सम्मेलन भी भारत में ही होना है। मामला यह है कि एआई में पूंजी तो कई मुल्क लगा रहे हैं, लेकिन भाषा में काम करने वाली एआई, लार्ज लैंग्वेज मॉडल (एलएलएम) में कांटे की टक्कर वाला दख़ल अभी अमेरिका और चीन का ही है। संयोग कहें कि पेरिस कॉन्फ्रेंस चीन के ताक़तवर, सस्ती और ओपेनसोर्स जेन एआई डीपसीक के बाज़ार में उतरने के तुरंत बाद हुई, जिसने अमेरिकी शेयर बाजारों को एक ट्रिलियन डॉलर की चपत लगाई थी।

20 जनवरी 2025 को जारी चीनी चैटबॉट डीपसीक आर-1 तूफानी गति से पॉपुलर होता हुआ जैसे ही ऐपल और गूगल के ऐपस्टोर्स में टॉप पर पहुंचा, अमेरिकी निवेशकों में हड़कंप मच गया कि अजेय समझी जाने वाली उनकी चिप निर्माता और सॉफ्टवेयर कंपनियों के शेयर ज़रूरत से ज़्यादा महंगे समझे जाने चाहिए, क्योंकि बाज़ार को अपनी मर्जी से हांककर बहुत ज़्यादा कमाई वे आगे नहीं कर पाएंगी। बिकवाली से एक दिन के अंदर एक लाख करोड़ डॉलर का नुकसान निवेशकों को उठाना पड़ा। आकार का अनुमान लगाना हो तो भारत की अर्थव्यवस्था चार लाख करोड़ डॉलर का कांटा अब तक नहीं छू पाई है। इससे बुरी बात यह कि ऐसा किसी झूठी अफ़वाह के चलते नहीं हुआ था कि आज का हल्ला कल को फुस्स हो गया तो ख़ुशहाली का माहौल पहले की तरह ही लौट आएगा।

अमेरिकी थिंकटैंक हाल तक अपनी सरकार को बताते आ रहे थे कि कम से कम जेनरेटिव एआई में चीन अपनी भीतरी रोकटोक के चलते ज़्यादा आगे नहीं जा सकता। इसीलिए डॉनल्ड ट्रंप ने दूसरी बार अमेरिकी राष्ट्रपति की शपथ लेने के बाद पहला ठोस काम यही किया कि कुछ बड़ी सॉफ्टवेयर और एआई कंपनियों को साथ बिठाकर इस क्षेत्र में अमेरिका को बाक़ी दुनिया की पहुंच से परे कर देने के लिए 250 बिलियन डॉलर की सरकारी फंडिंग घोषित कर दी। विडंबना यह कि डीपसीक की एंट्री से अमेरिका को सबसे ज़्यादा तकलीफ़ जेनरेटिव एआई के फील्ड में ही पहुंची है। यह चीनी प्रॉडक्ट एआई के धंधे में अमेरिका को ज़्यादा नुक़सान भले न पहुंचाए, लेकिन शुरू के दौर में अमेरिकी जेन एआई प्रॉडक्ट्स की कमाई शर्तिया तौर पर घटा देगा। अमेरिकी कंपनियों की यह पुरानी समस्या है कि वे अपने भौकाल से ही चलती हैं। जैसे ही आगे कोई रेखा दिखती है, निवेशक बहुत जल्दी उन्हें पैदल कर देते हैं।

अब, मसला यह है कि एआई तकनीक का फील्ड लीडर अमेरिका इस मामले में विश्व बाज़ार को अधिक से अधिक खुला रखना चाहता है। अलग-अलग देश इस क्षेत्र में ज़्यादा रोक-छेंक वाले कानून बनाएं, ऐसा वह हरगिज नहीं होने देना चाहता। जैसे अभी गूगल (अल्फाबेट), फेसबुक (मेटा), ट्विटर (एक्स) और माइक्रोसॉफ्ट लगभग पूरी दुनिया पर खुल्ला राज करते आ रहे हैं, वैसे ही इन सारी कंपनियों के जेन एआई प्रॉडक्ट्स, साथ में ओपेनएआई की सारी नई खोजें भी बेरोकटोक पूरे ग्लोब से कमाई करती रहें, यह उसकी रणनीति का पहला बिंदु है। लेकिन इसके साथ ही उसको यह भी सुनिश्चित करना है कि इस खुलेपन में उसका एकाधिकार, मोनॉपली बनी रही। यहां अकेला राज उसकी कंपनियों का ही चले, चीन या किसी और देश की कंपनी को इसका फ़ायदा उठाने का मौका न मिले।

इसके लिए वह पुराना, आजमाया हुआ नुस्खा ही एक बार फिर आजमा रहा है। यानी यह आरोप लगाना कि चीन जो कुछ भी बना रहा है, सारा अमेरिकी तकनीक को चुराकर ही बना रहा है। साथ में ऐसा दावा करना कि कोई भी चीनी ऑनलाइन सॉफ्टवेयर सुरक्षित नहीं है क्योंकि वह उपभोक्ताओं से जुड़ा सारा डेटा चीन में मौजूद सर्वरों पर सेव करता है, जिसका इस्तेमाल विभिन्न देशों की राष्ट्रीय सुरक्षा में सेंध लगाने में किया जा सकता है। यह बात हूबहू अमेरिकी ऑनलाइन सॉफ्टवेयर्स पर, खासकर सोशल मीडिया कंपनियों पर भी लागू होती है, साथ में वे विज्ञापनों से होने वाली कमाई में टैक्सचोरी भी करती हैं, इस बारे में यूरोपियन यूनियन के अलावा और कहीं चर्चा भी नहीं होती।

यह पृष्ठभूमि हमें पेरिस सम्मेलन में दिए गए अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वांस के विवादित बयान को समझने की ओर ले जाएगी। सम्मेलन में मौजूद चीनी उपप्रधानमंत्री झांग क्वोछिन ने कहा कि उनका देश एआई की प्रगति और इससे जुड़ी सुरक्षा संबंधी चिंताओं में मिल-जुलकर काम करने के लिए तैयार है, लेकिन संभवतः उन्हें ही निशाना बनाते हुए वांस ने कहा- ‘इस कमरे में मौजूद हमीं लोगों में से कुछेक ने अपने तजुर्बे से यह सीखा है कि ‘उनके’ साथ साझेदारी का मतलब है, अपने देश को एक ऐसे निरंकुश मालिक के साथ जंजीरों में जकड़ देना, जो आपके यहां घुसपैठ करना चाहता है, और आपके सूचना इन्फ्रास्ट्रक्चर में अपने पैर जमाकर उस पर क़ब्ज़ा करने में जुट जाता है।’ सवाल यह है कि दुनिया इस मामले में अगर एक देश से इतना ही डरती है तो इस सम्मेलन में उसे बुलाया ही क्यों गया था?

यहां से आगे ‘इन्क्लूजन’ और ‘सस्टेनेबिलिटी’ पर नए सिरे से चर्चा हो सकती है। शुरुआत सस्टेनेबिलिटी से करें। यानी देर तक सहज ढंग से चलते जाने की, समाज में कोई उठापटक न पैदा करने के गुण की, तो इस मामले में सम्मेलन में पर्चा पढ़ने आए अमेरिकी एआई कंपनी एंथ्रॉपिक के मुख्य कार्यकारी अधिकारी डैरियो एमोडी की चेतावनी पर ज्यादा गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए था।

उन्होंने कहा कि ‘मानवीय बुद्धिमत्ता की बराबरी करने या उससे भी आगे निकल जाने की एआई की क्षमता बस कुछ ही साल दूर है।’ आगे अपनी व्याख्या में उन्होंने बताया कि 2030 से पहले, बल्कि 2026-2027 की शुरुआत में, यानी अगले साल ही यह वैश्विक श्रम बाज़ार को पूरी तरह से नया आकार दे सकती है। उनका सीधा इशारा बहुत सारी इज़्ज़तदार मध्यवर्गीय नौकरियों का क़िस्सा ख़त्म हो जाने की तरफ़ था। दुनिया की धुरी माने जा रहे इस सामाजिक दायरे पर आ रही इस आपदा से निपटने की क्या तैयारी पेरिस सम्मेलन में की जा सकी? क्या सचिवों द्वारा ड्राफ्ट किए गए एक साझा बयान से यह काम हो जाएगा?

रही बात इन्क्लूजन की, तो अमेरिकी सर्च इंजनों और सोशल मीडिया कंपनियों के प्रॉडक्ट्स की बनावट ऐसी है कि इनका हर उपभोक्ता खुद को ‘इन्क्लूडेड’ ही मानता है और इनसे किसी को कोई नुकसान होता हुआ भी नहीं लगता। भारत में कम ही लोग ऐसे बचे होंगे, जिनका फेसबुक, वॉट्सऐप, ट्विटर या इंस्टाग्राम एकाउंट न हो, जिनका स्थायी पता जीमेल में न खुलता हो और जो कभी गूगल सर्च में न जाते हों। ये खाते भारत के विज्ञापन बाजार को दुहकर दिन-रात भारी रक़म अमेरिका ले जाने में जुटे हैं, इसकी फ़िक्र किसे है? कमजोर तबक़ों के प्रति घृणा फैलाना इनका मिज़ाज ही बन गया है और इनका इस्तेमाल अक्सर शासक दल और शासक वर्गों के पक्ष में जनमत बनाने में होता है। दंगे-फसाद में इनकी भूमिका बहुत बार देखी जा चुकी है, लेकिन इनका कभी कुछ बिगड़ता नहीं देखा गया। जेन एआई भी भारत में इनके ही कंधों पर चढ़कर आ रही है तो इसके कमाल अलग कैसे हो जाएंगे?

इसमें कोई शक नहीं कि कई क्षेत्रों में, ख़ास तौर पर साइंस-टेक्नॉलजी के सीमावर्ती क्षेत्रों में एआई बहुत उपयोगी है। लेकिन वहां इसके उपयोग के लिए ज्यादा पैसा ख़र्च करना पड़ता है, जो संस्थागत समर्थन के बिना संभव नहीं है। भारत के वैज्ञानिक शोध संस्थानों को समय से इस तरफ़ ध्यान देना चाहिए, वरना आने वाले वर्षों में रॉकेट साइंस और सैटेलाइट टेक्नॉलजी में भी हमारे पिछड़ने की रफ़्तार बहुत तेज़ हो जाएगी। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि एआई के, ख़ासकर जेन एआई के प्रॉडक्शन एंड पर भारत का अभी कोई कारगर दख़ल नहीं है। चीनियों की भी हाल तक एआई फील्ड में कुछ ख़ास ऊंची जगह नहीं थी। लेकिन अभी अचानक वे इसके बड़े खिलाड़ी समझे जाने लगे हैं।

इस क्षेत्र में आने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं चाहिए। सिर्फ़ किराये पर लिए जा सकने वाले अच्छे सुपरकंप्यूटर, ऐडवांस्ड चिप्स वाले कुछ पर्सनल कंप्यूटर और मशीन लर्निंग में माहिर बहुत सारे सॉफ्टवेयर इंजीनियर। तीनों संसाधनों की कोई कमी हमारे यहां नहीं है। कमी है तो सिर्फ़ आंत्रप्रेन्योरशिप की, उद्यमिता की, जो पहले ही दिन से पैसा कमाने वाले क्षेत्रों को छोड़कर हर दायरे में हमारे यहां नदारद दिखती है। उद्यमी डरते हैं कि भारी पूंजी और वक़्त लगाकर कोई प्रॉडक्ट तैयार किया, और बाज़ार में उसे ले गए तो पता चलता है, उसी क्लास के विदेशी प्रॉडक्ट्स के सामने वह कहीं टिक ही नहीं पा रहा। टाटा ग्रुप जैसे चुनिंदा घरानों ने इस डर का सामना किया और अपने उत्पादों को घरेलू बाज़ारों में टिका ले जाने के अलावा बाहर भी अपना दख़ल बनाया। लेकिन हमारी आम उद्यमिता पर नज़र डालें तो यह ख़रीद और बिक्री दोनों ही छोरों से सरकार को दुहने, पैकेजिंग-ब्रैंडिंग करके विदेशी प्रॉडक्ट्स को अपने नाम से बेच देने, या सेवा क्षेत्र में अपनी जगह सुरक्षित बनाए रखने तक ही सीमित है।

इसके उलट, चीनियों में अपने घरेलू बाज़ार का भरोसा रहा है और पिछले आठ सालों में लगाए गए अमेरिकी प्रतिबंधों ने उन्हें और ज़्यादा इत्मीनान में ला दिया है। डीपसीक, बाइटडांस, टेंसेंट और अलीबाबा जैसी वहां की मजबूत प्रॉडक्ट-बेस्ड सॉफ्टवेयर कंपनियां बिल्कुल जड़ से शुरुआत करने वाले बहुत छोटे उद्यमियों की ही देन हैं। बहुत अफ़सोस की बात है कि ‘स्नेक चार्मर से ऊपर उठकर माउस चार्मर हो जाने’ के दावों के बावजूद कंप्यूटर साइंस की दुनिया में हमारी छवि ‘साइबर कुली’ वाली ही बनी हुई है और हमारी ताक़तवर सर्विस कंपनियों का ज़ोर भी इस पर ही रहा है। दुनिया भर में अपनी सेवाएं बेचने वाली ये कंपनियां कभी किसी प्रॉडक्ट पर भी तो हाथ आजमा सकती थीं। ख़ैर, अभी ज़्यादा देर नहीं हुई है। आम बाज़ार के लिए न सही, कम से कम अपने वैज्ञानिक दायरों के लिए अपनी एआई हमें ख़ुद ही बनानी चाहिए, क्योंकि अमेरिकी प्रॉडक्ट्स एक हद से आगे हमारे काम नहीं आएंगे।

(लेखक चर्चित कवि और विचारक हैं)