चंद्रभूषण

 

अज्ञान की आंधी चल रही है और ज्ञान का दीपक बुझ रहा है’

फ़ैज़ी (अकबर के नवरत्नों में एक)

हाल में कोरोना के दो साल छोड़कर 1914 से अब तक हर साल आयोजित होती आई इंडियन साइंस कांग्रेस इस साल न केवल निलंबित कर दी गई है, बल्कि आशंका इस बात की है कि यह सिलसिला अब बंद ही हो जाएगा। ध्यान रहे, भारत ही नहीं, पूरे एशिया का यह सबसे पुराना और निरंतर जारी वैज्ञानिक जमावड़ा है। इसकी जो गत इस साल बनी है, उससे देश की छवि को धक्का लगेगा। इस आयोजन की धुरी इंडियन साइंस कांग्रेस असोसिएशन (आईसीएसए) रही है, जो भारत में वैज्ञानिकोंतकनीकविदों का एकमात्र राष्ट्रीय संगठन है और जिसके 40 हजार से ज्यादा सदस्य हैं। लेकिन साइंस कांग्रेस का मुख्य प्रायोजक भारत सरकार का साइंसटेक्नॉलजी विभाग ही रहा है। 

विभाग की ओर से इधर काफी समय से हर साल पांच करोड़ रुपये का बजट विज्ञान कांग्रेस के लिए जारी होता आया है, जो सीधे आयोजन स्थल बने विश्वविद्यालय को सौंप दिया जाता है। आयोजन की तिथि स्थायी रूप से 3 जनवरी चली आ रही है। इस साल विज्ञान मंत्रालय लखनऊ विश्वविद्यालय में विज्ञान कांग्रेस कराना चाहता था, जिसके लिए पता नहीं क्यों आईसीएसए राजी नहीं हुआ। कुछ दिन यह झगड़ा दबा रहा, फिर सितंबर 2023 में आईसीएसए ने इसे जालंधर की लवली पब्लिक यूनिवर्सिटी में कराने की घोषणा की, जहां इससे पहले 2019 में यह आयोजन हो चुका है। उसी समय विज्ञान मंत्रालय ने इसमें अपना योगदान करने से मना कर दिया, साथ ही यह घोषणा भी की कि आईसीएसए अगर अपना रवैया नहीं सुधारता तो वह आगे भी इस मद में कोई पैसा नहीं देगा।

लवली पब्लिक यूनिवर्सिटी को जैसे ही जानकारी मिली कि इस बार सरकार की ओर से पैसे नहीं आने वाले, उसने कुछ अपरिहार्य कारणों का हवाला देते हुए आयोजन से अपने हाथ खींच लिए। इधर कुछ वर्षों से इंडियन साइंस कांग्रेस की साख कुछ अच्छी नहीं जा रही है। वैज्ञानिक शोध रिपोर्टों के बजाय हर साल इसकी चर्चा कभी भारत के प्राचीन विमान शास्त्र तो कभी गणेश जी की प्लास्टिक सर्जरी के लिए ही हो रही है। और तो और, पांचेक साल पहले एक केंद्रीय मंत्री ने साइंस कांग्रेस के मौके पर ही डार्विनियन थिअरी और इवॉल्यूशन को नकारते हुए भारतीयों को किसी बंदर या चिंपांजी के बजाय ‘ऋषिमुनियों की संतान’ बताया था तो पूरी दुनिया के वैज्ञानिक हलकों में चर्चा शुरू हो गई थी कि पश्चिम के पोंगापंथी पादरियों में व्याप्त यह बीमारी आखिर भारत में कैसे और कब पहुंच गई

 

सोरित गुप्तो, इंडियन साइंस कांग्रेस, 3 जनवरी 2020, साभार: डाउन टू अर्थ

बहरहाल, इन सारी समस्याओं के बावजूद कुछ नोबेल पुरस्कार विजेता और अन्य ख्यातिलब्ध विदेशी वैज्ञानिक भारतीय वैज्ञानिकों के आग्रहपूर्ण बुलावे पर इस आयोजन में शामिल हो ही जाते हैं। ऐन मौके पर इंडियन साइंस कांग्रेस के रद्द हो जाने से उन्हें अपने व्यस्त कार्यक्रम में हेरफेर करना पड़ा होगा, जो साइंसटेक्नॉलजी में भारत की साख के लिए और भी ज्यादा नुकसानदेह है। घोषित रूप से भारतीय विज्ञान कांग्रेस का उद्देश्य देश में वैज्ञानिक संस्कृति के विकास और साइंसटेक्नॉलजी में आम दिलचस्पी बढ़ाने के अलावा भारत में हो रहे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक शोधों को दुनिया की नजर में लाना है। इसके लिए विभिन्न शोध पत्रपत्रिकाओं के प्रकाशन का जिम्मा भी आईएससीए को सौंपा गया है। हालांकि व्यवहारतः इसकी दशा देश के बाकी सरकारी संगठनों जैसी ही है।

बताया जा रहा है कि इंडियन साइंस कांग्रेस का स्वरूप बदलने की तमाम कोशिशों के बावजूद इसके प्रति मौजूदा भारत सरकार की अरुचि का मूल कारण यह है कि वह इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल (आईआईएसएफ) को बढ़ावा देना चाहती है, जिसमें केंद्रीय भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े ‘विज्ञान भारती’ नाम के संगठन की है। ऐसे धूमधड़ाके भारतीय मतदाताओं को यह बताने का अच्छा मंच हो सकते हैं कि दुनिया की सारी खोजें और वैज्ञानिक दृष्टि प्राचीन हिंदू शास्त्रों से ही चुराई हुई है और अभी की सरकार उन्हें खोजखोजकर वापस ला रही है। सरकार अगर चाहे तो अपने इस आयोजन को भारतीय विज्ञान कांग्रेस के साथसाथ और उसके समानांतर भी चला सकती है। इस तरह के मद में हर साल पांच करोड़ के बजाय दस करोड़ खर्च में कुछ खास समस्या उसे नहीं होने वाली। लेकिन शायद एक आयोजन को बंद करके दूसरा शुरू करने के जरिये वह कोई संदेश भी देना चाहती है।

संदेश यह कि वैज्ञानिकता और अवैज्ञानिकता का यह द्वैत अब भारत से विदा होना चाहिए। प्रधानमंत्री स्वयं ‘विकास और विरासत एक साथ’ का नारा दे रहे हैं। यानी चढ़ता शेयर बाजार और अयोध्या में बन रहा भव्य राम मंदिर दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, फिर इससे अलग किसी और वैचारिक अग्रगति के बारे में सोचने की जरूरत क्या है। 

भारतीय संविधान में सरकारों के लिए तय नीति निर्धारक तत्वों में एक ‘वैज्ञानिक चेतना का विकास’ भी है। इसका अर्थ हैलोगों में तार्किक समझ विकसित करना, सवालों के इहलौकिक जवाब खोजना और इंसानों को जातिधर्म के खांचों में बांटकर न देखना। लेकिन देश अभी मंदिर ‘वहीं’ बनाने के दौर से गुजर रहा है। टीवी पर तो क्या, संसद में भी धर्म के नाम पर गालियां दी जाती हैं। अखबारों में अपराधियों का नाम तक इस समझदारी के साथ छपता है कि किस श्रेणी में कौन सा नाम बहुसंख्यक पाठकों को कैसा लगेगा। ऐसे में 110 साल जी चुकी इंडियन साइंस कांग्रेस का टेंटुआ टीपकर ‘इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल’ का संस्कारी गदर शुरू कर देने में हर्ज क्या है?         

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कवि हैं। जनांदोलनों से लंबा जुड़ाव रहा है।)