रागनियों में स्त्री की छवि
अनुराधा अनन्या
(कवियित्री और अनुवादक, हरियाणा के जींद ज़िले में रहती हैं।)
रागनी हरियाणा की लोक–गायन शैली है और यह हरियाणवी जनमानस के जीवन के विविध पहलुओं को व्यक्त करती है। रागनी की उत्त्पत्ति हरियाणा के लोकनाट्य ‘सांग’ से हुई है, जो कि संस्कृत नाटकों की तर्ज़ पर प्रादेशिक बोली हरियाणवी में रचे गये थे, जिनकी शुरुआत तेरहवीं शताब्दी में हुई थी। रागनी, सांग की संगीतमय गायन शैलियों में से एक थी। हरियाणा में प्रचलित अन्य गायन शैलियों में से रागनी की लोकप्रियता बरक़रार रही है, हालाँकि इसकी प्रदर्शन शैली व विषयवस्तु और इसे लिखने व गाने के अंदाज़ में समय के साथ बदलाव आया है।
सांग और रागनी के शुरुआती दौर में रागनियों के लेखन और गायन में महिलाओं की कोई भूमिका नहीं होती थी, हालाँकि वे तब भी रागनियों के केंद्र में थीं। श्रृंगार रस के माध्यम और वाहक के रूप में महिलाओं की दैहिक सुन्दरता का वर्णन और प्रेमाख्यान मिलते हैं। रागनी लेखक अपनी रचनाओं में महिला पात्र की व्याख्या उसके सौन्दर्य और नख–शिख वर्णन को केन्द्र में रखते थे, चाहे वो पात्र मेनका हो या मीराबाई। जैसे ‘मीराबाई’ सांग के रागनी लेखक प.लख्मीचंद ने दर्शकों के मनोरजंन को ध्यान में रखते हुए मीराबाई के सौन्दर्य को दर्शाने के लिए उपमाओं से भरी रागनियाँ लिखी हैं। जबकि मीराबाई की अपनी रचनाओं में वह एक स्वतंत्र महिला के तौर पर राणा की राज व्यवस्था की आलोचना करती हैं और अपने समय की सामाजिक सरंचनाओं तथा महिलाओं से की जाने वाली अपेक्षाओं को चुनौती देती हैं।
पौराणिक रागनियों में महिलाओं की छवि पर सामाजिक व नैतिक बुनावट का असर भी झलकता है; अपने पति के प्राणों के लिए यमराज से टक्कर लेने वाली ‘सत्यवान–सावित्री’ की नायिका सती सावित्री हो या ‘नल–दमयन्ती’ की नायिका दमयन्ती, जो अपने पति राजा नल के बुरे वक़्त में अपने राजसी ठाठ–बाट को त्याग कर पति के साथ वन में रहने चली जाती है। रागनियों में राज–घरानों से ताल्लुक रखने वाली इन नायिकाओं को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया जाता था और आम स्त्रियों से उनके जैसा बनने की उम्मीद की जाती थी। वहीं सामाजिक मानदंडों के विपरीत आचरण करने वाली स्त्रियों के किस्से भी रागनियों में मिलते हैं, जिनमें महिलाओं को त्रियाचरित्र, मोहिनी, ठगनी, माया, मूर्ख, डायन–शैतान, धर्म से डिगाने वाली, ऋषियों की तपस्या भंग करने वाली और युद्ध का कारण बनने वाली आदि के रूप में चित्रित किया गया है| जैसे पं.लख्मीचंद ने ‘पूर्णमल’ सांग में नूणादे पात्र को पतिधर्म न निभाने वाली खलनायिका के रूप में चित्रित किया है।
इस प्रकार पौराणिक रागनियों पर पितृसत्तात्मक या पुरुषवादी नज़रिए की छाप दिखाई देती है। उनमें स्त्री की पुरुषवादी दृष्टि से गढ़ी गई छवि ही नज़र आती है। एक तरफ़ जहाँ स्त्री के सौन्दर्य वर्णन पर कामुकता का ज़ोर है, वहीं औरत को तमाम बुराइयों की जड़, कुलक्षिणी, कुल्टा आदि भी बताया गया है। ज़ाहिर है ये रागनियाँ उस दौर के समाज और उसके चलन की गवाही देती हैं। स्त्री को लेकर समाज के इस पिछड़ेपन का एक कारण यह हो सकता है कि हरियाणा किसी समाज सुधार आंदोलन का केन्द्र नहीं रहा। यहां तक कि 1857 के बाद राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम – जिसके साथ ही स्त्री–पुरुष समानता की बात शुरू हुई – हरियाणा में प्रबल रूप से पकड़ नहीं बना पाया था। वहीं स्वतंत्रता संग्राम को नेतृत्व देने वाली कांग्रेस पार्टी की हरियाणा में पहुंच न होने के चलते हरियाणा राजनैतिक रूप से भी पिछड़ा रहा|
इसके इतर पौराणिक रागनियों में स्त्री वेदना, गरीबी, बेमेल विवाह, विवाहेतर सम्बन्ध आदि भी अहम विषय के तौर पर कमोबेश नज़र आते रहे हैं। लेकिन इस प्रकार की रचनाओं में भी स्त्री–विमर्श या क्रांतिकारी विचारधारा का असर नहीं बल्कि प्रचलित प्रथाओं के प्रति रचयिता की अपनी रूढ़िवादी दृष्टि नज़र आती है। जैसे पं लख्मीचंद के “हूर–मेनका” सांग की एक रागनी में जब अप्सरा मेनका अपनी नवजात बेटी को जंगल में अकेली छोड़ जाती है, तो उसे पितृसत्ता की पुत्र–लालसा से पीड़ित महिला के रूप में नहीं बल्कि पितृसत्तात्मक नज़रिए से पत्थर–दिल, कमअक्ल, बेशर्म औरत के रूप में चित्रित कर कटघरे में खड़ा किया गया।
रागनी में महिलाओं की छवि बदलने में आर्य समाज और इमरजेंसी के बाद के समय में उठी प्रगतिशील लहर ने शुरुआती भूमिका निभाई। लेकिन इस दौर में प्रगतिशील विचारधारा पढ़े–लिखे मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी तबके तक ही सीमित थी। ये विचारधारा लोगों तक पहुँचाने के लिए कविता गोष्टियाँ, सेमीनार आयोजित किये गये। नाटक और गायन मंडलियाँ भी बनीं, नये गीत और रागनी लेखन का काम भी किया गया। इन रचनाओं ने आदर्शवादी रुझानों से होते हुए सामाजिक–सांस्कृतिक पिछड़ेपन की आलोचना तो प्रस्तुत की, लेकिन आम जनमानस के बीच व्यापक स्वीकार्यता भी न बना सकीं और बदलाव की सम्भावना पेश करने में भी विफल रहीं।
लेकिन इस काम में नब्बे के दशक में भारी परिवर्तन हुए जब बुद्धिजीवी तबका साक्षरता–अभियान के तहत सीधे तौर पर लोगों के सम्पर्क में आया। निरक्षरता को खत्म करने के लिए हरियाणा की सामाजिक स्थिति को समझना ज़रूरी था। लोगो के सुख–दुःख, आशाओं और दिक्कतों को सम्बोधित करने की ज़रूरत पड़ी। यह काम बिना लोक–भाषा और लोक–कलाओं के नहीं हो सकता था। बुद्धिजीवी तबके ने अपने विचारों को लोकशैलियों के माध्यम से लोगों के बीच पहुँचाने का जिम्मा उठाया। जैसे हबीब भारती ने अपनी रागनी के ज़रिए कहा कि अगर ज़माने के साथ चलना है तो शिक्षा से शर्माना छोड़ना होगा–
तेज़ ज़माना तेरी मंद चाल या क्यूकर पार बसावै।
जै तूं चाह्वै कदम मिलाणा ना पढ़णै तैं सरमावै।।
साक्षरता आंदोलन के अंतर्गत चले कला–जत्थों के साथ रागनी की प्रदर्शन शैली, मंच, कलाकार, प्रस्तुति का समय और दर्शक भी बदले। कला जत्थों के ज़रिए जनपक्षीय रागनियों की स्वीकृति आम लोगों के बीच बढ़ी और महिला दर्शकों की भी जगह बनी। इस आंदोलन में हरियाणा की महिलाएँ नेतृत्वकारी भूमिका में आईं, और स्त्री–विमर्श आंदोलन के अभिन्न हिस्से के रूप में पहचाना गया। पुरुषवादी सामाजिक संरचना में जकड़ी महिलाओं के संघर्ष कला–जत्थों की प्रस्तुतियों में खुल कर सामने आने लगे। निरक्षरता और ग़ैरबराबरी के ख़िलाफ़ लड़ाई में महिला–पुरुष रचनाकार अपनी लेखनी में एक–दूसरे के साथ हो रहे अन्यायों को उजागर करने लगे। रामधारी खटकड़ ने अपनी रचना के माध्यम से दलित महिलाओं के दोहरे उत्पीड़न को दर्शाया–
पेट भरण की खातर हमने भारी दुखड़ा ठाणा हो
सिर पै मैला, कूड़ा, कचरा दूर फैंक कै आणा हो
करां सफाई गळियां की न्यूं अपणा फर्ज पुगाणा हो
रूखा–सुखा टुकड़ा हमनै घर–घर जाकै ल्याणा हो
मर–मर कै या जीवै जग म्हं दलित जात की नारी हे
और बराबरी पर आधारित समाज स्थापित करने के लिए गुहार लगाई कि ‘आसमान तक ईब उठाओ क्रान्ति की गुंजार सखी’। इस दौर की रागनियों में प्रतिरोध के स्वर भी सुनाई देने लगे। यौन हिंसा की लगातार बढ़ती घटनाओं के ख़िलाफ़ मंगतराम शास्त्री ने लिखा कि ‘कितने दिन न्यूं ए चाल्लैगा सदा सह्या ना जावैगा, खुद बहादुर बण लडऩा होगा और ना कोए बचावैगा’। जैसे, रामफल जख्मी ने महिलाओं से घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने से रोकने वाली ‘चुप की चुनरिया’ त्याग देने का आह्वान किया।
साक्षरता के आंदोलन से जुड़ी कई महिलाएँ जनवादी महिला समिति के साथ भी जुड़ती गईं। महिला समिति देश के अलग–अलग हिस्सों में समाज को समझने व उसे जनवादी दिशा में बदलने के लिए महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप करती रही है। हरियाणा में जनवादी महिला समिति ने नशाखोरी के खिलाफ संघर्ष चलाए और ‘इज़्ज़त’ के नाम पर होने वाली हत्याओं के मामले में खाप पंचायतों से लोहा लिया। किसान आंदोलन के दौरान भी जनवादी महिला समिति ने अहम भूमिका निभाई। हमारे दौर में महिला समिति से जुड़ी मुकेश यादव उर्फ़ संतोष कुमारी अहम रागनी लेखिका के रूप में उभरी हैं। उनकी यह रचना हरियाणा में व्याप्त तमाम अमानवीय व महिला–विरोधी प्रथाओं के ख़िलाफ़ एकजुट होने का आह्वान करती है–
हे सखी कट्ठी होल्यो, बदल दिखाद्यो हरियाणा
जात–पात की बुरी बीमारी, दिल तै काढ़ बगादयो हे
माणस–माणस होवे बराबर, सबनै या समझादयो हे
ना कोए ऊंचा ना कोए नीचा, खोलकै बतादयो हे
वोटां खातर जात राखर्ये, करर्ये सै धिंगताणा
गाम–गाम म्हं ठेके खुलग्ये, घर–घर नशाखोर होगे
सुलफा गांजा चरस स्मैकी, नसेड़ी पुरजोर होगे
कुछ महंगाई घरां शराबी, संकट चारों ओर होगे
नशामुक्त हो हरियाणा, हो दूध–दही का खाणा
छोरियां की संख्या घटगी, चिंता बढग़ी भारी हे
पढ़ण–लिखण खेलकूद म्हं, ये सबतै आग्गै आरी हे
भ्रूण हत्या नै रोकण की थम, मिलकै करल्यो त्यारी हे
दोयम दरजा खत्म करो और आग्गै कदम बढ़ाणा
मात–पिता की संपति म्हं, अपणे हिस्से लेणे चहिएं
दान–दहेज और सिद्धे कौथळी, नहीं किसै नै देणे चहिएं
कह ‘मुकेश’ ये लारे लप्पे, नहीं किसै नै खेणे चाहिए
अपणे हक की खातिर बोलो, इसमैं के शरमाणा|
निश्चय ही समय के साथ रागनियों का चरित्र बदला, उनमें स्त्री की छवि बदली। महिलाओं को आधुनिक जीवनमूल्यों की रोशनी में देखा जाने लगा। लेकिन आज महिलाओं के सामने नई चुनौतियाँ आ खड़ी हुई हैं। बाज़ार ने अपने मुनाफ़े के लिए उन्हें एक प्रदर्शनकारी वस्तु के रूप में पेश करना शुरू कर दिया है। और वह यह ‘स्त्री विमर्श’ की आड़ में कर रहा है। सच्चाई यह है कि स्त्री विमर्श की भाषा चुराकर उसने अपना एक ‘स्त्री विमर्श’ रचा है। दूसरी तरफ़ महिलाओं के दुख का स्वरूप बदल गया है। बदली सामाजिक–आर्थिक परिस्थितियों में भी उन्हें अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में रागनी समेत सभी लोककलाओं को आज के अनुरूप महिलाओं के नज़रिए से हस्तक्षेप करना होगा।
(लेख में शामिल चित्र ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की आर्ट टीम ने तैयार किए हैं)